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उत्तम संयम धर्म

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संयम विहीन ज्ञान का कोई मूल्य नहीं-प्रज्ञायोगी आचार्य श्री गुप्तिनंदी जी गुरुदेव

आडूल, दिव्यराष्ट्र/ धर्म तीर्थ क्षेत्र चातुर्मास कर रहे आडूल में श्रावक संस्कार शिविर के अंतर्गत प्रज्ञायोगी दिगम्बर जैनाचार्य गुप्तिनंदी गुरुदेव ने पर्यूषण पर्व के छटे दिन उत्तम संयम धर्म पर अपनी संयमित वाणी में कहा–*
संयम शब्द सम् पूर्वक यम धातु से बना है।अर्थात् समीचीन श्रद्धापूर्वक सम्यक् व्रतों का पालन करते हुए स्वयं को पूर्णरूपेण संयमित करना संयम धर्म है।गाड़ी में यदि ब्रेक नहीं हो तो कभी भी दुर्घटना घट सकती है उसी प्रकार जीवन रूपी गाड़ी में संयम का ब्रेक अनिवार्य है।सर्वोत्तम गाड़ी होने पर भी यदि ड्रायवर अनाड़ी है तो गाड़ी अच्छे रास्तों से भटककर संकटाकीर्ण पथ पर जा सकती है और यदि ड्रायवर कुशल खिलाड़ी है तो दुर्गम रास्तों से विपत्ति ग्रस्त गाड़ी भी अपने गंतव्य तक अवश्यमेव पहुंच सकती है।इसी प्रकार इन्द्रियों की प्रवृत्ति भी बहुमुखी है।यह संयम की रक्षा में साधक भी है और बाधक भी।यदि इन्हें विषय भोगों में छोड़ दिया जाए तो संयम में बाधक बन जायेंगी और यदि उन इन्द्रियों को ज्ञानार्जन तत्पश्चरणादि शुभ कार्यों में लगा दिया जाए तो संयम की सिद्धि में साधक बन जायेगी।अग्नि भोजन को पकाती है और जीवन का रक्षण भी करती है लेकिन यदि किसी की झोपड़ी में अग्नि लगा दी जाये तो वह प्रलयंकारी बन जायेगी,घातक हो जायेगी।इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों का ज्ञान यदि तपश्चरणादि में सदुपयोग किया जाए,नियुक्त किया जाये तो वे इन्द्रियाँ भी हमारे संयम की सुरक्षा की पुष्टि करती हैंं।
जैसे जीवन के लिए ऑक्सीजन आवश्यक है वैसे ही संयम भी आवश्यक है।पंडित टोडरमल जी ने कहा है कि जब तक संयम धारण नहीं किया जाएगा।तब तक परिणाम निर्मल हो ही नहीं सकते।इसी प्रकार नाटक समयसार के रचयिता पंडित बनारसीदास जी ने कहा है कि-

ज्ञान कला जिनके घट जागी,वे जगमाहि सहज विरागी
ज्ञानी गगन विषय सुख माहिं,दुई विपरीतों सम्भव नाहि

अर्थात् कोई व्यक्ति ज्ञानी हो और साथ में असंयमी हो यह संभव नहीं है।ज्ञान व असंयम एक साथ कैसे संभव है।एक म्यान में दो तलवार नहीं समा सकती है।
जब महात्मा गांधी गोलमेज परिषद में भाग लेने जा रहे थे तो राह में स्वीटजरलैंड में रूके,वहाँ विश्व नागरिक संगठन के अध्यक्ष पियरे ने उनका स्वागत किया और विनम्रता से पूछा गांधी जी यह बताइये एक नेता बनने के लिए क्या -क्या गुण होना चाहिए।गांधीजी ने अपने साथ बैठे अन्य साथियों से उत्तर देने को कहा तो साथियों ने कहा कि इसके उत्तर में यदि हम सब कह कि नेता होने के लिए सत्यवादी होना आवश्यक है आप कहेंगे कि शीलवान भी
होना चाहिए। उसमें यह गुण भी होना चाहिए और वह गुण भी होना चाहिए। हम एक पंक्ति में इस का उत्तर नहीं दे सकते इसका उत्तर तो आप ही दीजिए। तब गांधीजी ने कहा बहिरंग में संयम और अंतरंग में प्रत्येक क्षण परमात्मा का स्मरण, यह दो गुण जिस में हो वही नेता बनने के योग्य है। गांधी जी ने गांधी विचार दोहन नामक पुस्तक में लिखा है कि बहुत अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है,संयम के साथ थोड़ा ज्ञान ही मूल्यवान है ज्ञानार्जन भी उसी से कीजिए जो संयमी है। एक व्यक्ति विद्वत्ता के साथ असंयम युक्त है तो उसका जीवन बर्बाद है। गांधी जी के बहुत ही सुंदर विचार हैं यथार्थ में संयम विहीन ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है ।
आचार्य पूज्यपाद भगवंत ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है कि लोक व्यवहार में यदि कोई स्वेच्छाचार करते हैं तो शासन उसे दंडित करता है । जब मर्यादाविहीन दुराचरण स्वेच्छाचार के लिए लोक में भी दंड विधान है तो पारमार्थिक लोक में स्वेच्छाचार के लिए किस प्रकार व कितना अधिक दंड होना चाहिए आप स्वयं विचार करें । जब लौकिक शासन भी संयमित जीवन का पोषक है तो आत्मानुशासन में संयम का उन्मूलन कौन कर सकता है। आज का मानव भौतिक विषयों का दास होता जा रहा है,मन का दास होता जा रहा है इन पर उसका बिल्कुल नियंत्रण नहीं है। मनमाने ढंग से कल्पना की उड़ान भर रहा है इसके परिणामों की उसे तनिक भी चिंता नहीं है मन को नियंत्रित करने हेतु संयम की आवश्यकता है । संयमित जीवन ही निरापद है। यथार्थ में संयम वही है जहां दया है । दयाविहिन मानव असंयमी है। संयम रत्नत्रय के परिवर्द्धन संरक्षण हेतु सर्वोत्तम टॉनिक है , तो हम भी आज अपनी जीवन सरिता को संयम के तट बंधों में सुरक्षित ले जाकर आनंद के महासागर में सम्मिलित होने का संकल्प लें ।संयम के बीजों में सिद्धत्व का सुफल पायें।आज डाक्टर श्री प्रेमचन्द आशीष मयूर कासलीवाल परिवार ने सौधर्मेन्द्र बनकर गणिनी आर्यिकाश्री आस्थाश्री माताजी रचित श्री तत्त्वार्थसूत्र विधान, श्री दशलक्षण विधान व सुगंध दशमी व्रत की पूजा संपन्न की।वहीं आर्यिकाश्री मुक्तिश्री माताजी के जन्मदिन के प्रीत्यर्थ सौ.सुगंधा चाँदमल प्रशांत हेमा श्रुत कासलीवाल परिवार ने महाशान्तिधारा व गुरुदेव के पादप्रक्षालन का लाभ लिया।भक्तों ने आचार्य श्री संघ की प्रेरणा से दशमुख वाले धूपघटों में धूप की सुगंध महका कर जीवंत धूप दशमी मनायी।सांयकाल में आचार्य श्री ने सहज ध्यान योग में सभी शिविरार्थियों को पिण्डस्थ, पदस्थ,रूपस्थ, रूपातीत ध्यान का अभ्यास कराया।साथ ही शाम को श्री सुगंध दशमी कथा का वर्णन व ध्यान करवाया। जिसमें आडूल नगर के सभी प्रबुद्ध वर्ग ने बढ़-चढ़कर लाभ लिया।

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