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उत्तम शौच धर्म

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लोभ पाप का बाप है तो शौच धर्म आत्मा का शोधक है -प्रज्ञायोगी आचार्य श्री गुप्तिनंदी जी गुरुदेव
आडूल,, दिव्यराष्ट्र/ धर्मतीर्थ अतिशय क्षेत्र में चातुर्मास रत धर्मतीर्थ के निकट आडूल नगर में आयोजित रत्नत्रय श्रावक संस्कार शिविर में परम- पूज्य प्रज्ञायोगी दिगम्बर जैनाचार्य श्री गुप्तिनंदी जी गुरुदेव ने पर्यूषण पर्व के चौथे दिन *उत्तम शौच धर्मपर अपनी मधुर वाणी में प्रवचन के माध्यम से बताया—
शौच धर्म आत्मा की पवित्रता का प्रतीक है।यह पवित्रता संतोष के माध्यम से आती है।लेकिन इससे उल्टे जैसे-जैसे मानव को लाभ होता है वैसे-वैसे उसका लोभ बढ़ता जाता है।लोभ से इच्छा और तृष्णा निरंतर बढ़ती जाती है।जिनकी पूर्ति होना सर्वथा असंभव है।लोभ अनेक प्रकार के होते हैं-कितनी भी नदियाँ समुद्र में समाहित हो जाये।फिर भी समुद्र प्यासा ही रहता है।प्रतिदिन पर्याप्त भोजन मिलने पर भी पेट खाली ही रहता है तथा बुभुक्षा हमेशा अतृप्त रहती है।प्रतिदिन अनेक शवों को भस्मसात् करने के बाद भी श्मशान सदा भूखा रहता है।इसी तरह तृष्णा की खाई सदा रिक्त ही रहती है।लोभ की पूर्ति कभी भी संसार में होना असंभव है। जिसकी चित्तभूमि संतोष रूपी उत्तम जल से अभिसिंचित है।वहीं शौच धर्म को हृदयंगम कर सकता है।सुख शांति का पात्र बन सकता है।धन संचय की तृष्णा में यत्र-तत्र भटकते जीव को कभी सातिशय सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती।
जिस प्रकार प्यास से व्याकुलित हिरण दूर चमकते हुए बालू के कणों को देखकर समझता है कि आगे जल है और इस भ्रान्ति में जल पीने दौड़ पड़ता है।दौड़ते-दौड़ते उसके प्राण पखेरु उड़ जाते हैं पर जल नहीं मिलता।वैसे ही संसारी जीव पंचेन्द्रिय विषयों की आकांक्षा में विक्षुब्ध हो विषय भोगों की ओर दौड़ रहे हैं वे इस भ्रम में है कि खाने में सुख है।पुत्र पौत्र बन्धु बंधनो में सुख है और उनकी सुरक्षा व संग्रह में ही वह अपने अमूल्य मानव जीवन को गंवा देता है,पाता कुछ भी नहीं है।आर्त रौद्र ध्यान से मरणकर नरक निगोद आदि दुर्गति का पात्र बनता है। उन जीवों से शौच धर्म यह आव्हान करता है कि यदि सुरक्षा और संचय करो तो उनकी करो जिनकी प्रभा कभी फीकी न रहे।रत्न पारखी जौहरी बनो।कंकड़ पत्थरों के संचय करने में बहुकाल व्यर्थ में बीत चुका है अब रत्नत्रय का संचय करो।
दीपक भले ही स्वर्णांलंकारों से विभूषित हो लेकिन यदि उसके अंतरंग में तेल की एक भी बूँद नहीं है तो वह प्रकाश देने में असमर्थ है।इसी प्रकार हीरा,पन्ना आदि बहुमूल्य रत्नो से घर पर्याप्त भरा हो लेकिन जीवन में यदि शील ,संयम,सदाचार,संतोष नहीं हैं तो वे जड़ रत्न उसे कभी भी दुःखों से मुक्त नहीं कर सकते।
अशुद्धि पदार्थों से निर्मित देह को मात्र जल से शुद्ध बनाने का प्रयास कोरा भ्रम है।चर्म धोने से कभी कर्म नहीं धुलते।शौच धर्म के मर्म को समझकर,संतोष रूपी जल में अवगाहन करके ही अंतर्मन को पावन बनाया जा सकता है।
लोभ की अधिकता से ही समाज में विषमता पैदा होती है।भारत में कुछ गिने चुने लोग बहुत अधिक अमीर हैं और एक बड़ा वर्ग गरीब हैं उसमें मूल कारण लोभ है।यदि जल की अतिवृष्टि भी अनिवार्यतः दुःखदायी है।तो अनावृष्टि के कारण सूखा,अकाल,दुर्भिक्ष भी अपरिहार्य है।निष्कर्षतः अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों ही दुखद घटना है,दोनों में से किसी एक को भी अच्छा नहीं कहा जा सकता क्योंकि अतिवृष्टि से उत्पन्न बाढ़ भी भूमि की उपजाऊ शक्ति को खत्म कर देती है।फिर उसकी अंतिम परिणति अकाल ही होती है।वैसे ही अमीरी व गरीबी की विषमता से ही आंदोलन विद्रोह,भ्रष्टाचार,चोरी,डकैती आतंकवाद जैसी बुराईयों का जन्म होता है और जब यह बुराईयाँ बर्दाश्त के बाहर हो जाती है तब साम्यवाद जैसी अनेक क्रान्ति का जन्म होता है इस विषमता के विषमतल को समता संतोष रूपी बुलडोजर के माध्यम से ही समतल किया जा सकता है।
छ्ल,कपट,हिंसा,क्रूरता के बिना अपरिमित धन का संचय असंभव है इसलिए लोभ को पाप का बाप कहा गया है।आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र ग्रंथ में बहुत आरम्भ और अधिक परिग्रह रखने वाले को नरक आयु का पात्र बताया गया है।लोभी व्यक्ति कंजूस मनुष्य अंदर व निरंतर भयभीत रहता है।कभी चोर लुटेरो का भय है तो कभी इन्कम टैक्स,सैल टैक्स आदि का भय।भयग्रस्त जीव विभिन्न रोग तथा परभव में नरकादि -दुर्गतियों का पात्र होता है।इन सभी बुराईयों से बचने के लिए आइये हम संतोष भाव से शौच धर्म को अपनायें, शुचिता का आलोक जगाएं।

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