आडूल,, दिव्यराष्ट्र/धर्मतीर्थ अतिशय क्षेत्र के निकट धर्मनगरी आडूल में दिगम्बर जैनाचार्य गुप्तिनंदी गुरुदेव ने पर्यूषण पर्व के तीसरे दिन उत्तम आर्जव धर्म पर अपने मुखारविन्द से कहा-
धर्म की 10 दिनों की पाठशाला में पहले क्रोध के विनाश हेतु क्षमा समता का पाठ सीखा था। दूसरे दिन मान के परिहार हेतु फल-फूल से लदे विनम्र वृक्ष के समान विनम्र होना सीखा था। सोमवार को तीसरे दिन हमें ऋजुता,सरलता,आर्जव भाव को पाना है। प्रायः सभी देखते हैं कि नागराज बाहर कितना ही लहराये,आढ़ा-टेढ़ा चले,लेकिन बिल में प्रवेश करते समय उसे सीधा सरल होना ही पड़ेगा। तभी वह बिल में प्रवेश कर सकता है।इसी तरह संसारी प्राणी संसार में कितना कुटिल वक्र बना रहे,कितना ही मायाचार कर ले लेकिन अपने आत्म गृह में प्रवेश करने के लिए उसे एकदम सरल- सीधा बनना ही पड़ेगा।उन्हीं सरल परिणामों का नाम आर्जव धर्म है।संभव है आप क्षमा और मार्दव का व्यवहार भी छ्ल और कपट से कर सकते हैं। क्योंकि दूसरों को धोखा देने के लिए पर को ठगने के लिए लोग बड़ी विनय करते हैं।बड़ा मीठा बोल लेते हैं।छ्ल कपट के परिणामों से अपनाई गई विनय या विनम्रता वास्तविक धर्म नहीं है।धर्म का तात्पर्य तो सरल,सहज,निष्कपट,स्वच्छ व्यवहार से ही है।दूसरों को ठग कर उन्हें मूर्ख बनाकर हम भले ही अल्प समय के लिए आनन्दित हो जायें।स्वयं को बुद्धिमान,समझने लगे किन्तु यह भी ध्यान रखना अनिवार्य है कि हम भले ही दूसरों को छलें लेकिन छाले तो अपनी आत्मा में ही पडेगें।
संसारी प्राणी का जीवन मायाचार का प्रतिबिम्ब बना हुआ है।बहुरूपियापन तो प्याज के छिलके के समान इसका स्वभाव बन गया है।मनुष्य की असलियत का पता लगाना कठिन सा हो चुका है।छ्ल छ्द्म के नकाबो से हम इतने सज गए हैं कि हमारा वास्तविक चेहरा कैसा है,यह पता ही नहीं लग पा रहा है।व्यापार के अलावा अपने व्यवहार,रिश्तेदारी सम्बन्धों और अतिथियों तथा हमारे निकट बसने वालों के प्रति हम किस-किस तरह से छ्ल कपट मायाचारी से स्वयं को प्रस्तुत करते हैं यह हम स्वयं या केवलज्ञानी सर्वज्ञ ही जानते हैं।जितने भी विशाल युद्ध या हिंसात्मक कार्यवाहियां होती हैं उनके मूल में मायाचारी ही निहित है।मायाचारी व्यक्ति सर्वाधिक हिंसात्मक होता है।
उपरोक्त सभी दुष्प्रवृतियों के परिहार हेतु उत्तम आर्जव धर्म अलौकिक दर्पण के समान है लौकिक दर्पण में मूर्त(दृश्यमान)पदार्थों का ही प्रतिबिम्ब झलकता है। पर आर्जव रूपी दर्पण में अन्तरात्मा का वास्तविक स्वरूप झलकता है।
नदी के जल में यदि कल्लोले तरंगे उठ रही हैं तो उसमें हमको अपने मुख का प्रतिबिम्ब नहीं दिख सकता है।उसी प्रकार जिसके हृदय रूपी नदी में कुटिलता,मायाचार की उत्ताल तरंगे उठ रही हैं उसे आत्मा का दर्शन नहीं हो सकता।साथ ही मायाचारी व्यक्ति अनेक मनोरोगों का शिकार हो जाता है।हार्ट- अटैक, हिस्टीरिया,भय,विषाद,डिप्रेशन जैसी बुराईयों के परिहार हेतु आर्जव धर्म को समझना,अपनाना नितांत आवश्यक है।आर्जव धर्म मन को स्वच्छ रखने की प्रेरणा देता है।परमात्मा के समीप पहुँचने के लिए मायाचार का परित्याग कर सरल भावों को अपनाना सीखें क्योंकि मनुस्मृति में कहा है- उन्नतं मानसं यस्य तस्य भाग्य समुन्नतं।
अर्थात् जिसका मन दृढ़ हो जाये,सरल समुन्नत श्रेष्ठ हो जाये उसका जीवन एवं भाग्य भी श्रेष्ठ व समुन्नत हो जाता है। शिविर में श्री दशलक्षण, पंचमेरु, वा तत्त्वार्थसूत्र विधान संपन्न हुआ । आचार्य श्री ने श्रावक प्रतिक्रमण के साथ सातों चक्रों का परिचय व जागरण कराया।धर्म ध्यान का अभ्यास कराते हुए भगवान नेमिनाथ के वैराग्य का ध्यान कराया। विधान के सौधर्मेन्द्र डाक्टर प्रेमचन्द सौ.सुषमा, आशीष मयूर कासलीवाल परिवार के साथ अनेकों श्रावक श्राविकाओं ने, विशेष रूप से बालक बालिकाओं और युवा वर्ग ने पूजन ध्यान शिविर में बड़े पैमाने पर उत्साह से भाग लिया।