-‘महात्मा गांधी ने कहा था “ मेरे मरने के बाद जवाहरलाल मेरी भाषा बोलेगा’
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जयपुर। (दिव्यराष्ट्र के लिए डा.लोकेश चंदेल)
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के लिए कहा था कि ‘ जहां उनमें एक योद्धा के समान साहस और चपलता है, वहीं एक राजनीतिज्ञ की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता भी हैं। वे एक निडर और निर्दोष सरदार हैं। राष्ट्र उनके हाथों में सुरक्षित है।’ पं.नेहरू छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ हिस्सा लेने लगे थे। इसका कारण था कि उनको कांग्रेस की राजनीति, विरासत में मिली थी… उनके पिता मोतीलाल नेहरू कांग्रेस के वरिष्ठ सदस्य थे। 1904 में जापान के हाथों रूस जैसे शक्तिशाली राष्ट्र की पराजय ने पं.नेहरू के हृदय में भारत की स्वतंत्रता के सपने को पंख लगा दिए और राष्ट्रीय विचार उनके मन में हिलोरें लेने लगा था। वे सबसे पहले 1912 में राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने गए । कांग्रेस के 1916 के राष्ट्रीय अधिवेशन में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। यह आगे चलकर इस रूप में फलिभूत हुई कि गांधी ने नेहरू को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया..उन्होने भविष्यवाणी कर दी कि ‘ मेरे मरने के बाद जवाहरलाल मेरी भाषा बोलेगा।’ देश की आजादी के लिए वे 9 वर्ष से अधिक जेल में रहे। वे महान लोकतांत्रिक थे। उन्हें और लोकतंत्र को अलग करके नहीं देख सकते। वे चाहते थे कि लोकतंत्र को केवल राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए बल्कि इसे आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र को भी इसकी परिधि में शामिल करना चाहिए। उनका कहना था कि नागरिकों को राजनीतिक स्वतंत्रता देना ही पर्याप्त नहीं है, इसके साथ उन्हें अवसरों की समानता भी दी जानी चाहिए और आर्थिक विषमताओं का अंत किया जाना चाहिए। सामाजिक रूढ़ियों और आर्थिक असमानताओं से पूर्ण समाज कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। नेहरू का मानना था कि “भूखे व्यक्ति के लिए कोरा मताधिकार कोई महत्व नहीं रखता।’ यदि समाज में ऊंच नीच, छूत-अछूत के भेदभाव हों,धन का न्यायपूर्ण वितरण न हो, वर्गभेद का प्रसार हो और मुट्ठी भर पढ़े लिखे लोग निरक्षर जन-साधारण को अपने पैरों तले दबाए हों तो ऐसे देश या समाज में लोकतंत्र की बात करना निरर्थक हैं।’ उन्होंने पूंजीवाद, उपनिवेशवाद, मुनाफाखोरी और जमाखोरी जैसी कुप्रवत्तियों पर प्रहार किए… उन्होंने माना कि गरीब व बेकारी समस्या का हल प्रजातांत्रिक समाजवाद में ही संभव है। इसका व्यापक परिप्रेक्ष्य लोकतंत्र एवं समाजवाद का मानवतावादी समायोजन है । लोकतंत्र और समाजवाद दोनों के प्रति उनकी आस्था ने उन्हें ‘लोकतांत्रिक समाजवाद का प्रतिपादक बना दिया। नेहरू का विश्वास था कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र की समानता की अनुपस्थिति में कोई अर्थ नहीं है। समानता उस समय तक स्थापित नहीं की जा सकती हैं, जब उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व स्थापित रहता है। यह वास्तविक लोकतंत्र के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं। 1963 में समाज के पिछड़े और दलित वर्गों के पक्ष में सांविधानिक संरक्षणों को तो नेहरू ने उचित ठहराया लेकिन सांविधानिक संरक्षणों के लिए साम्प्रदायिक आधारों को अपनाने का घोर विरोध किया। इलाहाबाद के हरिजन आश्रम में ‘ स्वराज और सामाजिक न्याय ’ विषय पर नेहरू ने कहा था कि ‘ स्वराज सिर्फ राजनीतिक धारणा नहीं है, बल्कि उसे सामाजिक और आर्थिक न्याय की स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे जनसाधारण का कल्याण हो। इसका मतलब अफसरों की बदली नहीं, बल्कि किसी देश की बुनियादी चीजों में परिवर्तन होना है। महात्मा गांधी ने जो सबसे बड़ी चीज हमें दी है, वह है राजनीतिक स्वाधीनता के साथ सामाजिक न्याय। उनका मानना था कि भारत की अवनति का कारण छुआछूत है और जब तक उसे दूर नहीं किया जाता, तब तक भारत उन्नति के नए सोपान तय नहीं कर पाएगा। एक ब्राह्मण लगातार गुलामी में रह रहा है तो उसे अपने आपको किसी हरिजन से ऊंचा समझना शोभा नहीं देता। अगर हरिजनों को शिक्षा के अवसर और आर्थिक सुविधाएं हो जाए तो कोई कारण नहीं है कि वे समाज के अन्य लोगों की बराबरी में न आ जाए। पं. नेहरू दलितों के प्रति काफी संवेदनशील थे। उनका मानना था कि धर्म,जाति,लिंग, सम्प्रदाय के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच अंतर नहीं किया जाना चाहिए। वे व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के उसके सर्वांगीण विकास पर जोर देते थे। पूर्व राष्ट्रपति डॉ.राधाकृष्णन पं. नेहरू के लिए लिखते हैं कि ‘ उन्होंने जनता के जीवन में ही अपने जीवन को खफा दिया और उनके जीवन को समृद्ध तथा सम्पूर्ण बनाने का प्रयत्न किया। वे महान आत्मा थे और असली महानता इसी बात को समझने में है कि व्यक्ति केवल अपने लिए पैदा नहीं होता, बल्कि अपने पड़ोसियों और अपनी जनता के लिए भी होता है। नेहरू केवल देश के महान मुक्तिदाताओं में ही नहीं थे बल्कि उसके महान निर्माताओं में भी थे। उन्होंने अपने जीवन में स्वतंत्रता, समानता के लिए ही प्रयत्न नहीं किया बल्कि सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए प्रयत्न किए।’
गुटनिरपेक्ष आन्दोलनः- अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पं.नेहरू के दो महत्वपूर्ण योगदान माने जाते हैं। एक गुटनिरपेक्ष की विदेश नीति और दूसरा पंचशील सिद्धांत । उन्होंने विश्व के दोनों गुटों से अलग रहने की जो नीति अपनाई, गुटनिरपेक्ष नीति है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोनों शक्ति गुटों से पृथक रहते हुए शांति का एक ऐसा आन्दोलन खड़ा किया, जो किसी भी गुट के साथ नहीं है। यह अलग बात है कि वैश्विक राजनीति के कई चिंतकों ने इसे एक तीसरा अंतरराष्ट्रीय गुट या संगठन के रूप में प्रस्तुत किया। गुटनिरपेक्षता का अर्थ है, विश्व के राज्यों के किसी भी गुट में शामिल न होना और अपनी भूमिका का निर्धारण अपनी मान्यताओं और मूल्यों के आधार पर करना। 4 दिसम्बर,1947 को पं. नेहरू ने भारत की संसद में कहा था कि ‘ हम घोषणा कर चुके हैं कि हम विश्व के किसी भी शक्तिशाली-राजनीतिक गुट में शामिल नहीं होंगे। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम कुछ राज्यों से अच्छे और कुछ राज्यों से बुरे संबंध रखें , हम किसी के दुश्मन नहीं हैं और सभी हमारे मित्र हैं। गुट निरपेक्षता नव स्वतंत्र देशों के लिए तनावग्रस्त विश्व में एक बेहतर विकल्प सिद्ध हुई । इस कारण शीघ्र ही गुटनिरपेक्षता का क्रांतिकारी आदर्श एक आन्दोलन के रूप में बदलने लगा। लेकिन गुटनिरपेक्षता युद्ध रोकने में असमर्थ रहा । किन्तु यह सत्य है कि इसने विश्व शांति की महत्ता स्थापित की और दुनिया के नवस्वतंत्र देशों में नैतिक शक्ति, राजनीतिक चेतना और आत्मसम्मान विकसित करने में भूमिका अदा की। बहरहाल, यह कहा जा सकता है कि पं. नेहरू की गुट निरपेक्षता की विदेश नीति के कारण ही आज भारत किसी विश्व शक्ति का पिछलग्गू नहीं बना। आज भारत विश्व शक्ति का सहयोगी बनकर उसके साथ कदम से कदम मिलाकर नई इबारतें लिख रहा है।