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चातुर्मासों की उद्घोषणा के साथ प्रतिष्ठा संपन्न, आचार्य जिनमणिप्रभसूरि ने कहा— ‘परमात्मा का ध्यान हमें अभय बनाता है’

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हातकणंगले, दिव्यराष्ट्र/ संघवी माणकचंदजी सुशीलादेवी ललवानी परिवार द्वारा निर्मित जिन मंदिर में मूलनायक शंखेश्वर पार्श्वनाथ, आदिनाथ, मुनिसुव्रत, गणधर गौतम स्वामी, दादा जिनकुशलसूरि, नाकोडा भैरव, माणिभद्र देव, पद्मावती देवी व सरस्वती देवी की प्रतिमाओं की शनिवार को अंजनशलाका प्रतिष्ठा संपन्न हुई।

प्रतिष्ठा से पूर्व आचार्यश्री ने भजन प्रस्तुत कर वातावरण को भक्तिमय बना दिया। प्रतिष्ठा के इस अवसर पर मंदिर निर्माता ललवानी परिवार के हजारों श्रद्धालु उपस्थित थे। इस अवसर पर खरतरगच्छाधिपति आचार्य जिनमणिप्रभसूरि ने विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए कहा- हृदय से परमात्मा की भक्ति करने वाला कभी भी भयग्रस्त नहीं हो सकता। परमात्मा की भक्ति की परिभाषा बताते हुए उन्होंने कहा- परमात्मा के गुणों को अपने हृदय में स्थान देना ही परमात्मा की सच्ची भक्ति है। अपने अन्तर मन में जन्मों से भरे दुर्गुणों के कचरे को दूर कर सद्गुण की सुवास फैलाना, यही परमात्मा की भक्ति है।

हमारे अन्तर में अनादिकाल से ईर्ष्या, वासना, काम, क्रोध, अहंकार, माया, लोभ भरे पडे हैं। परमात्मा के शासन को प्राप्त कर अपने अन्तर में सरलता, सहजता, समता, सादगी का विकास करना है। उन्होंने कहा- जीवन में चल रही भाग दौड़ के बीच आत्म तत्व की प्राप्ति के लिए परमात्मा से बढ कर और कोई उपाय नहीं है। प्रभु मंदिर से निरन्तर जुड़ाव जहाँ हमें विकृत होने से बचाता है, वहीं हमें जीवन के परिणामों को सजगता से पाने की प्रेरणा देता है। यह हमें जीवन का लक्ष्य निर्धारित करने का मार्ग दिखाता है जिन पर चलकर हम परम शांति का अहसास करते हैं।

धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि भौतिक सुख सुविधाओं का संकलन कभी स्थायी शांति का आधार नहीं बन सकते, जन्म हुआ है तो मृत्यु निष्चित है। हमने यदि जीवन का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया तो सब व्यर्थ। हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि जीवन महोत्सव बने न बने, किन्तु मृत्यु महोत्सव बनना चाहिए। हमारा चिन्तन, मनन उन साधुओं की तरह निरंतर चलते रहना चाहिए जो सोते हुए भी जागृत भाव में रहते है अन्यथा हमारी स्थिति बस के उस कंडेक्टर की तरह हो जाएगी जिसने सफर तो बहुत किया किन्तु पहुँचा कहीं नहीं।

आचार्यश्री ने कहा कि मृत्यु कभी चाहना से नहीं मिलती, उसका समय परमात्मा ने कब, कैसे आदि से निर्धारित कर दिया है। अल्प जीवन में असफलताओं में भी सफलता के हेतु पहचान कर दीवार पर चढ़ने के प्रयास में बार-बार गिरती चींटी की तरह अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित भाव से पुरूषार्थ करते हुए डिप्रेषन में जाने से बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि एक ओर हम रिष्ते-नाते को महत्व देते हैं किन्तु वास्तविकता यह है कि हमारा शरीर भी हमारा नहीं हैं। जो हमसे जुड़ा है या जिसे हमने जोड़ लिया है वह वास्तव में हमारा नहीं है। हमारा शरीर तो आत्मा का आवरण है। परमात्मा प्राप्ति के लिए किया गया हमारा पुरूषार्थ मृत्यु को महोत्सव बनाता है। मन, वचन और कर्म की प्रवृत्तियां सदैव चलती रहती है किन्तु इन्हें सद्मार्ग पर चलाने जप, तप और साधना की आवष्यकता होती है। हमें जीवन में सांसारिक क्रियाओं के चलते दृष्टि को सही रखना चाहिए, गलत दृष्टि अषांति पैदा करती है, उत्तेजना पैदा करती है जो पाप है।

इस अवसर पर अपना मंगल आशीर्वाद देने हेतु दिगम्बर आचार्य श्री चन्द्रप्रभसागरजी चंदाबाबा पधारे। उन्होंने कहा- दिगम्बर हो या श्वेताम्बर! हम सभी को यह सतत स्मरण रखना है कि हम सभी जैन हैं, व भगवान महावीर के अनुयायी हैं। उन्होंने कहा- परमात्मा के समवशरण में एक दूसरे से वैर रखने वाले पशु भी साथ साथ बैठते हैं। तो हम तो आपस में एक ही हैं। सूरत से पधारे भरत गांधी को दीक्षा का शुभ मुहूर्त्त प्रदान किया गया। उसकी दीक्षा 19 जुलाई को सूरत में संपन्न होगी।

आचार्य जिनमणिप्रभसूरि ने भारत भर से पधारे श्री संघों की विनंती स्वीकार करते हुए अपने समुदाय के आगामी चातुर्मासों की घोषणा की। उनका चातुर्मास सूरत नगर में होगा। अरूण ललवानी ने अपने भाव व्यक्त करते हुए सकल संघ व कार्यकर्त्ताओं का आभार माना।

समारोह में भाग लेने के लिये तिरपातूर, बैंगलोर, चेन्नई, दिल्ली, जयपुर, बाडमेर, नंदुरबार, सूरत, सिवाना, मोकलसर, समदडी, बालोतरा, भिवंडी, गदग, हुब्बल्ली, होसापेटे, बल्लारी, सांगली, जेसिंगपुर, कोल्हापुर आदि गांवों के श्रद्धालु बडी संख्या में उपस्थित रहे।

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