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आजादी के बाद गुमनामी में रहा, लेखनी व भाषणों से आग उगलने वाला वो क्रांतिकारी

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★बिजोलिया किसान आंदोलन के जनक विजय सिंह पथिक के जन्म दिवस (27 फरवरी) पर विशेष★
तब वेट-बेगार और 84 प्रकार के करों में विवाह पर भी लगता था ‘चवरी टेक्स*
(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. विजय विप्लवी)
12 दिसंबर 1911 को जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार के बाद वायसराय लार्ड हार्डिंग की दिल्ली सवारी निकल रही थी। हार्डिंग पत्नी के साथ एक हाथी पर बैठे हुए थे। जब काफिला चांदनी चौक पहुंचा तो अवसर पाते ही वायसराय पर एक बम फेंका गया, जिसके फटते ही जोरदार धमाका हुआ और वायसराय बेहोश होकर एक तरफ जा गिरे। अफरा-तफरी का लाभ उठाकर क्रांतिकारी हमलावर वहां से बच निकले। इस कांड के आरोपी रास बिहारी बोस, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, विजय सिंह ‘पथिक’ अन्य क्रांतिकारी अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। अंग्रेजी हुकुमत को अपनी लेखनी से हिला देने वाले मेवाड़ में बिजोलिया किसान आंदोलन के जनक विजयसिंह पथिक (भूपसिंह) ने आजादी की लडाई लडी, लेकिन भारत मां के इस सपूत ने आजादी के बाद मथुरा अपना जीवन गुमनामी में बिताया। इस स्वाभिमानी योद्धा ने कोई राजकीय सुविधा, सहायता या शासन पर पद नहीं लिया।
भूप सिंह गुर्जर से विजय सिंह ‘पथिक’ के रूप में चर्चित हुए बुलंदशहर जिले के ग्राम गुठावली कलां में 27 फरवरी 1882 को जन्मे इस क्रांतिकारी पथिक ने युवावस्था में ही रास बिहारी बोस और शचीन्द्र नाथ सान्याल आदि क्रांतिकारियों का सान्निध्य प्राप्त कर लिया था। उनके दादा इंद्र सिंह गुर्जर वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हो गए थे, जिनके किस्सों का पथिक के किशोर मन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा था। उनकी शुरुआती शिक्षा पालगढ़ के प्राइमरी स्कूल में हुई। बाद में वह अपनी बड़ी बहन के पास इंदौर चले गए जहां उन्होंने कई भाषाओं में प्रवीणता प्राप्त की।
सन् 1915 में रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रांतिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फरवरी को देश के विभिन्न स्थानों पर 1857 की क्रांति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। योजना यह थी कि एक तरफ भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाया जाए और दूसरी तरफ देशी राजाओं की सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रांति को संचालित करने का दायित्व विजय सिंह ‘पथिक’ को सौंपा गया।
उस समय वह फिरोजपुर षड्यंत्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनों ने मिलकर दो हजार युवकों का दल और तीस हजार से अधिक बंदूकें एकत्र करने में सफलता प्राप्त की थी। वह ‘अभिनव भारत समिति’ के तत्वावधान में देश में सशस्त्र क्रांति की योजना बना रहे थे, लेकिन अंग्रेजों को इस षड्यंत्र का पता चल गया, जिससे उन्हें अपनी गतिविधियां रोकनी पड़ीं। देश भर में क्रांतिकारियों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। पथिक जी और गोपाल सिंह ने गोला बारूद भूमिगत कर दिया और सैनिकों को इधर-उधर कर दिया गया। पांच सौ सैनिकों के साथ पथिक जी और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया। तभी उन्होंने अपना नाम भूप सिंह से बदलकर विजय सिंह ‘पथिक’ रखा था।
लाहौर षड्यंत्र केस में भी पथिक जी का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर पथिक जी को मिल गई और वह टाडगढ़ के किले से फरार हो गए। गिरफ्तारी से बचने के लिए पथिक जी ने अपना वेश राजस्थानी राजपूतों जैसा बना लिया और चित्तौडग़ढ़ क्षेत्र में रहने लगे। बिजौलिया से आए एक साधु सीताराम दास उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने पथिक जी को बिजौलिया आंदोलन का नेतृत्व संभालने को आमंत्रित किया। पथिक सन् 1916 में बिजौलिया पहुंच गए और उन्होंने आंदोलन की कमान अपने हाथों में संभाल ली।
यहां किसानों की मुख्य मांगें भूमि कर, अधिभारों एवं बेगार से संबंधित थी। किसानों से 84 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसके अतिरिक्त युद्व कोष कर भी एक महत्वपूर्ण मुददा था। एक मुददा साहूकारों के किसानों के उत्पीडऩ से संबंधित भी था जो जमीदारों के सहयोग और संरक्षण से किसानों को निरंतर लूट रहे थे। उन्होंने किसानों से भूमि कर न देने का निर्णय करा लिया। उनके द्वारा लिखित ‘झंडा गान’ की गूंज आज भी सुनाई देती है :-
‘ प्राण मित्रों भले ही गवाना,
पर झंडा नीचे नहीं झुकाना।’
विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित पत्र ‘प्रताप’ के माध्यम से बिजौलिया के किसान आंदोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन जोरों पर थे।
सन् 1919 में अमृतसर कांग्रेस में पथिक जी के प्रयत्न से बाल गंगाधर तिलक ने बिजौलिया संबंधी प्रस्ताव रखा। पथिक जी ने बंबई जाकर किसानों की करुण कथा गांधी जी को भी सुनाई। गांधी जी ने वचन दिया कि यदि सरकार ने न्याय नहीं किया तो वह स्वयं बिजौलिया सत्याग्रह का संचालन करेगें। पथिक जी ने बंबई यात्रा के समय गांधी जी की पहल पर यह निश्चय किया गया कि वर्धा से ‘राजस्थान केसरी’ नामक समाचार पत्र निकाला जाए। पत्र सारे देश में लोकप्रिय हो गया, परंतु पथिक जी का प्रबंधक वर्ग विचारधारा से मेल नहीं खाया और वह वर्धा छोड़कर अजमेर चले गए।
वह एक अच्छे कवि, लेखक और पत्रकार थे। पथिक जी मूलत: क्रांतिकारी विचारधारा के पोषक थे जिन्होंने आजादी का संदेश आम जन तक पहुंचाने के लिए अपने लेखन की धार का सहारा लिया। ब्रिटिश काल में उन्होंने राजस्थान के अजमेर से ‘नव संदेश’ और ‘राजस्थान संदेश’ के नाम से हिंदी के समाचारपत्रों का प्रकाशन किया और लोगों को फिरंगी शासन तथा उत्पीड़क सामंत वर्ग के विरुद्ध जन-जागृति उत्पन्न करने का काम किया। ‘तरुण राजस्थान’ नाम के एक हिंदी साप्ताहिक में वह ‘राष्ट्रीय पथिक’ के नाम से अपने विचार भी व्यक्त किया करते थे।
मेवाड़ में एक स्थान है बिजौलिया। यहाँ के किसान जमींदार के अत्याचारों से बेहद दुःखी थे। वहां अस्सी प्रकार के टेक्स लागत, कयी प्रकार की वेट-बेगार कराया जाता था। यहां तक की मंडप में दुल्हे के मंडप में आने पर ‘ चंवरी टेक्स’ वसूला जाता था, न चुकाने पर विवाह में बाधा व अत्याचार सहने पडते थे। बिजौलिया के लोग विजय सिंह पथिक से मिले और जमींदार द्वारा किये जा रहे बेजा शोषण उत्पीड़न से छुटकारा दिलाने की बात कही। पथिकजी किसानों का साथ देने का बीड़ा उठाकर बिजौलिया रवाना हो गए। पथिक शीघ्र ही अपने निराले व्यक्तित्व व अनोखी कार्यशैली से किसानों के विश्वासपात्र बन गये। पथिक की एक आवाज से हजारों किसान एकत्रित हो जाते थे, सभाएं होती थीं और उनमें उनका जोशीला भाषण जादू का सा कार्य करता था। परिणामस्वरूप किसानों ने लगान देना बंद कर दिया। जमीन को बिना जोते रखा और शादी-विवाह बंद कर देने पड़े। खेती न होने से सम्पूर्ण इलाके को भयंकर आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा। पथिक के नेतृत्व में बिजौलिया आन्दोलन लम्बे समय के बाद सफल हुआ।
अंतत: सरकार ने किसानों की अनेक मांगें मानकर समझौता कर लिया। उत्पीडन के दोषी कारिंदों को नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया, परंतु बेगूं में आंदोलन उग्र होकर अनियंत्रित हो गया। तब सरकार ने पथिक जी को दोषी मानते हुए गिरफ्तार कर लिया। उन्हें पांच वर्ष की सजा सुनाई गई। पथिक जी अप्रैल 1927 में इस सजा से रिहा हुए।
उनकी मुख्य पुस्तकें ‘अजय मेरु’, ‘पथिक प्रमोद’, ‘जेल के पत्र’ आदि हैं। उनकी कविता की यह पंक्तियां लोगों की जुबान पर चढ़ी थीं, जिसमें उन्होंने कहा था-
‘यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे,
यदि इच्छा है तो यह है, जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।’
गांधी ने विजय सिंह ‘पथिक’ की राष्ट्रभक्ति और बहादुरी के किस्से सुने तो कहा—‘‘मैं आपको पथिक की बाबत कुछ बता सकता हूँ। सब लोग बातें बनाने वाले हैं। पथिक सैनिक हैं, वीर हैं, जोशीले हैं पर साथ ही कुछ जिद्दी भी हैं।” यह स्वतंत्र भारत में एक विडम्बना ही कही जायेगी कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रशंसा-पात्र रहे पथिक मथुरा के जनरल गंज इलाके में अंतिम वर्षोंं में गुमनामी के अंधेरे में एक सामान्य नागरिक बनकर रहे। आजादी के बाद पथिक जैसे स्वतन्त्रता सेनानी के लिए आवास और भोजन की समस्या बढ गई । वे मथुरा आकर बस गये। उन्होंने मथुरा के जनरलगंज इलाके में एक मकान अथक परिश्रम से खड़ा किया, तब कहीं रहने की समस्या सुलझ सकी। इस मकान की चिनाई उन्होंने अपने हाथों से की थी। 28 मई 1954 को पथिकजी का मथुरा में निधन हो गया। हालांकि उनके निधन के बाद भारत सरकार ने 29 अप्रैल 1992 को क्रांतिकारी कवि विजय सिंह पथिक की स्मृति में डाक टिकट और प्रथम दिवस आवरण जारी किया गया। कई स्थानों पर उनकी स्मृति में भवन कॉलोनियों, पार्कों का नामकरण किया गया।
देश की आजादी के लिये लड़े योद्धा व जागीरदारी जुल्मों के खिलाफ अपनी लेखनी व भाषणों से आग उगलने वाला वो नायक आजादी के बाद राजनेताओं के झूठे वादों, नारों, वादाखिलाफी व भ्रष्टाचार से व्यथित थे, उस पीडा को उन्होंने अपनी लेखनी में भी व्यक्त किया था, उनमें से कुछ पंक्तियां इस प्रकार है :-
घडी घडी धोको देकर, वोट किसाना रा लेकर।
म्हां पर ही था छुरी चलाई, सेवा बढिया थाकी भाई।
अब न चलेगा म्हां पर जादू, थां शहरी शैतानां का।
गांधीजी की छाप लगाकर, चरखा को झंडो फहराकर।
खूब दुकान चलाई थाने, लूट प्रजा सब खाई थाने।
अब यो ब्लैक नहीं चलवा को, धोखा री दुकान्या को ।
लहरावेगो, लहरावेगो झंडों यो करसाणा रो।

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