(जन्म दिनांक 24 मई पर दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. विजय विप्लवी की विशेष प्रस्तुति)
एक पुलिस अधिकारी और कुछ सिपाही उत्तरप्रदेश की बरेली जेल में हथकडियों और बेडियों से जकड़े एक युवक को समझा रहे थे, ‘‘कुँवर साहब, हमने आपको बहुत समय दे दिया है। अच्छा है कि अब आप अपने क्रान्तिकारी साथियों के नाम हमें बता दें। इससे सरकार आपको न केवल छोड़ देगी, अपितु पुरस्कार भी देगी। इससे आपका शेष जीवन सुख से बीतेगा।’’ उस क्रांतिकारी युवक का नाम था- कु. प्रताप सिंह बारहठ। वे राजस्थान की शाहपुरा रियासत के प्रख्यात क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहठ के पुत्र थे। प्रताप के चाचा जोरावर सिंह भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे। वे रासबिहारी बोस की योजना से राजस्थान में क्रान्ति कर रहे थे। इस प्रकार उनका पूरा परिवार ही देश की स्वाधीनता के लिए समर्पित था। उस पुलिस अधिकारी की बात सुनकर कु. प्रतापसिंह हंसे और बोले, ‘‘मौत भी मेरी जुबान नहीं खुलवा सकती। हम सरकारी फैक्ट्री में ढले हुए सामान्य मशीन के पुर्जे नहीं हैं। यदि आप मुझसे यह आशा कर रहे हैं कि मैं मौत से बचने के लिए अपने साथियों के गले में फन्दा डलवा दूँगा, तो आपकी यह आशा व्यर्थ है। सरकार के गुलाम होने के कारण आप सरकार का हित ही चाहंेगे पर हम क्रान्तिकारी तो उसकी जड़ उखाड़कर ही दम लेंगे।’’ पुलिस अधिकारी ने फिर समझाया, ‘‘हम आपकी वीरता के प्रशंसक हैं, पर यदि आप अपने साथियों के नाम बता देंगे, तो हम आपके आजन्म कालेपानी की सजा पाये पिता को भी मुक्त करा देंगे और आपके चाचा के विरुद्ध चल रहे सब मुकदमे भी उठा लेंगे। सोचिये, इससे आपकी माता और परिवारजनों को कितना सुख मिलेगा ?’’ प्रताप ने सीना चौड़ाकर उच्च स्वर में कहा, ‘‘वीर की मुक्ति समरभूमि में होती है। यदि आप सचमुच मुझे मुक्त करना चाहते हैं, तो मेरे हाथ में एक तलवार दीजिये। फिर चाहे जितने लोग आ जायें। आप देखेंगे कि मेरी तलवार कैसे काई की तरह अंग्रेजी नौकरशाहों को फाड़ती है। जहाँ तक मेरी माँ की बात है, अभी तो वह अकेले ही दुःख भोग रही हैं पर यदि मैं अपने साथियों के नाम बता दूँगा, तो उन सबकी माताएँ भी ऐसा ही दुख पायेंगी।’’ कु. प्रताप सिंह लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर फेंके गये बमकांड में पकड़े गये थे। इस कांड में उनके साथ कुछ अन्य क्रान्तिकारी भी थे। पहले उन्हें आजीवन कालेपानी की सजा दी गयीय पर फिर उसे मृत्युदंड में बदल दिया गया। फाँसी के लिए उन्हें बरेली जेल में लाया गया था। वहाँ दबाव डालकर उनसे अन्य साथियों के बारे में जानने का प्रयास पुलिस अधिकारी कर रहे थे।
प्रारम्भिक जीवन
कुंवर प्रताप सिंह का जन्म 24 मई 1893 (ज्येष्ठ शुक्ला नवमी, विक्रम संवत् 1950) को उदयपुर के कविराज श्यामलदास हवेली में हुआ था। वे समृद्ध बारहठ परिवार के सदस्य थे और शाहपुरा के रियासत में जागीरदार थे । उस समय कु. प्रतापसिंह के पिता ठाकुर केसरी सिंह बारहठ मेवाड़ के महाराणा के मुख्य सलाहकार के रूप में कार्यरत थे, बाद में उन्हें कोटा राज्य के महाराजा के दरबार में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया , जहाँ उन्होंने परिषद् के सदस्य के रूप में कार्य किया। इसलिए कु. प्रताप का बचपन कोटा में बीता। ठाकुर केसरी सिंह बारहठ पर भी ब्रिटिश शासन पूरी नजर रखता था। कु. प्रताप सिंह ने अपनी शिक्षा हर्बर्ट हाई स्कूल कोटा और बाद में डीएवी हाई स्कूल, अजमेर से पूरी की। कु. प्रताप को छोटी उम्र में अर्जुनलाल सेठी के पास भेजा गया, जो जयपुर में ‘वर्धमान पाठशाला‘ चलाते थे , जो गुप्त रूप से क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रशिक्षण देते थे। बाद में, कु. प्रताप का परिचय रासबिहारी बोस से हुआ। जब स्कूल इंदौर चला गया, तो केसरी सिंह ने प्रताप को दिल्ली भेजना बेहतर समझा । यद्यपि केसरी सिंह देशी राज्यों में उच्च पद पर थे, लेकिन वे गुप्त रूप से क्रांतिकारी दल से भी जुड़े थे। इस प्रकार, उन्होंने अपने छोटे भाई ठाकुर जोरावर सिंह बारहठ, अपने बेटे कु. प्रताप और दामाद ईश्वरदान आशिया को दिल्ली में एक अन्य राष्ट्रवादी मास्टर अमीरचंद के पास भेज दिया। दिल्ली में अमीरचंद ने प्रताप को क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए प्रशिक्षित किया था, जिसमें भेष बदलना, सरकारी कार्यालयों से गुप्त समाचार एकत्र करना और सैनिकों और युवाओं के साथ संपर्क स्थापित करना शामिल था। अमीरचंद कु. प्रतापसिंह से प्रभावित थे, उन्होंने बोस से सिफारिश की कि उन्हें राजस्थान में क्रांतिकारी पार्टी की जिम्मेदारी दी जाए ।
अमीरचंद ने कु. प्रतापसिंह को रास बिहारी बोस से एक बेहद भरोसेमंद, योग्य और बहादुर व्यक्ति के रूप में मिलवाया। बोस ने उन्हें क्रांतिकारी दल में शामिल किया और वे एक प्रमुख सदस्य और बोस के दाहिने हाथ बन गए। दिल्ली, संयुक्त प्रांत और राजस्थान में क्रांतिकारी परियोजनाओं में उनकी प्रमुख भूमिका थी। राजस्थान में, उन्होंने अजमेर और अन्य ब्रिटिश सेना छावनी में सैनिकों को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए प्रेरित करने के लिए कदम उठाए। 20 वर्षीय कु.प्रतापसिंह ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए लोगों को तैयार करने के लिए यात्रा करना शुरू कर दिया।,
हॉर्डिंग बम कांड (1912)
23 दिसंबर 1912 को जोरावर सिंह और प्रताप सिंह दिल्ली के चांदनी चौक में मारवाड़ी कॉलेज की इमारत की छत पर गए । वे भेष बदलकर छत पर गए, जहाँ जोरावर सिंह ने लॉर्ड हॉर्डिंग पर बम फेंका। लॉर्ड हॉर्डिंग गंभीर रूप से घायल हो गए, लेकिन हमले में बच गए, जबकि उनके एक गार्ड की मौत हो गई। बम विस्फोट के बाद, जोरावर सिंह और उनके भतीजे कु. प्रताप सिंह दोनों ही उस जगह से फरार हो गए और छिपे रहे। पुलिस ने क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए ताबड़तोड़ प्रयास किए और किसी भी सुराग के लिए एक लाख रुपये का इनाम भी घोषित किया।
दिल्ली से पलायन
प्रताप सिंह और जोरावर सिंह को दिल्ली से भागना पड़ा और वे यमुना के किनारे आ गए । उस समय वे नदी पार नहीं कर सकते थे क्योंकि नदी में बाढ़ आ गई थी । सात घंटे तक प्रताप सिंह कभी तैरते रहे, कभी गोता लगाते रहे और कभी पुल की जंजीरों से लटकते रहे। जब काफी अंधेरा हो गया, तो वे तैरकर नदी पार कर गए। किनारे पर पहुँचने पर प्रताप सिंह बहुत थक गए थे और बेहोश हो गए। उन्हें नदी पार करते देख दो पुलिस कांस्टेबलों को उन पर शक हुआ। जोरावर सिंह ने उन दोनों को अपनी तलवार से काट डाला और प्रताप सिंह को अपनी पीठ पर लादकर ले गया। जब जोरावर सिंह और प्रताप सिंह बम फेंकने के बाद दिल्ली से निकले, तो वे एक दिन में लगभग चालीस मील पैदल चले।
दूसरी ओर, उनके पिता, ठाकुर केसरी सिंह बारहठ पर कोटा हत्या मामले में मुकदमा चलाया गया और उन्हें 1914 में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस बीच, उनके चाचा जोरावर सिंह को आरा षडयंत्र में मौत की सजा सुनाई गई थी, लेकिन वे बच निकले। दोनों की संपत्ति जब्त कर ली गई। दिल्ली में बम विस्फोट के बाद बोस काशी चले गए थे और वहाँ से नवद्वीप चले गए थे । वहाँ छिपकर वे विद्रोह की योजना को सफलतापूर्वक लागू करने की कोशिश कर रहे थे। सिंह ने बोस से जुड़ने के लिए ब्रिटिश सेना और पुलिस की मौजूदगी से परहेज किया। यह तय किया गया कि 21 फरवरी 1915 को बनारस से सशस्त्र विद्रोह का संकेत दिया जाएगा। इस दौरान दल के सदस्य सैन्य छावनियों से संपर्क कर भारी मात्रा में बंदूकें और अन्य हथियार जुटाएँगे। बोस से सलाह लेकर सिंह राजस्थान चले गए और योजना के अनुसार काम करना शुरू कर दिया। कुंवर प्रताप सिंह बारहठ को ‘कुंवर जी‘ के नाम से भी जाना जाता है। वे दिसंबर 1912 में, दिल्ली में वायसराय के जुलूस में अपने चाचा जोरावर सिंह बारहठ के साथ थे। जिन्होंने हार्डिंग पर बम फेंका था। उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ 1915 के सशस्त्र विद्रोह में बनारस षडयंत्र का भी नेतृत्व किया ।
विश्वासघात और गिरफ्तारी
प्र्रताप सिंह वापस राजस्थान की ओर चला गया, आशानदा स्टेशन ( जोधपुर ) पर रुककर स्टेशन मास्टर से संपर्क किया, जो समूह का हिस्सा था। स्टेशन मास्टर को कुछ दिन पहले पुलिस ने पकड़ लिया था और खुद को बचाने के लिए वह सरकारी गवाह बन गया था। इसके कारण कु. प्रतापसिंह की गिरफ्तारी हुई।
बनारस षडयंत्र मामले में सुनवाई
कुंवर प्रताप सिंह पर बनारस षडयंत्र केस में उनकी मिलीभगत के लिए मुकदमा चलाया गया। 14 फरवरी 1916 को उन्हें पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। दिल्ली षडयंत्र मामले के बाद, बनारस षडयंत्र मामले का सनसनीखेज मुकदमा तीन न्यायाधीशों के न्यायाधिकरण के तहत षडयंत्रकारियों से जुड़े लोगों के खिलाफ शुरू हुआ। इस न्यायाधिकरण में एसआर डेनियल, बीके दलाल और शीतल प्रसाद वाजपेयी जज थे। न्यायाधिकरण ने 7 मार्च 1916 को अपना फैसला सुनाते हुए आरोपियों के साथ प्रताप सिंह बारहठ कोे पांच वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई । फैसले के अनुसार, ‘‘षड्यंत्रकारियों ने मध्य भारत में असंतुष्ट लोगों से संपर्क करने के लिए प्रताप की सेवाओं का उपयोग किया और प्रताप ने षड्यंत्रकारियों का समर्थन किया।‘‘ प्रताप सिंह को बरेली सेंट्रल जेल में रखा गया , जहाँ उन्हें अन्य क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं के नाम और ठिकाने उगलवाने के प्रयास में मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया गया। भारत सरकार का खुफिया विभाग सिंह की कैद से खुश था। वे क्रांतिकारी पार्टी की सदस्यता, उसकी योजनाओं और हार्डिंग पर बम फेंकने वालों के बारे में जानकारी चाहते थे, उन्हें लगा कि यह सब उन्हें पता होगा क्योंकि वे रासबिहारी बोस और शचीन्द्र सान्याल के विश्वासपात्र थे। अपराध जांच विभाग के निदेशक सर चार्ल्स क्लीवलैंड प्रताप से मिलने बरेली आए। वे अपने क्रांतिकारी साथियों की जानकारी और उनके ठिकाने के बारे में जानना चाहते थे। उन्होंने प्रताप को सरकार में उच्च पद दिलाने, उनके पिता ठाकुर केसरी सिंह (जो उस समय बिहार के हजारी बाग जेल में थे) की बीस साल की कठोर कारावास (1914 में कैद) को माफ करने, उनके चाचा जोरावर सिंह के खिलाफ वारंट वापस लेने और परिवार की जब्त की गई सारी पैतृक संपत्ति वापस करने का प्रलोभन दिया। प्रताप ने एक इंच भी नहीं हिला और क्रांतिकारियों के साथ विश्वासघात करने से इनकार कर दिया। तब क्रांतिकारियों ने उन्हें बताया कि उनकी मां उनके लिए दिन-रात रो रही हैं। वह तड़प-तड़प कर मर जाएंगी। जब जेल अधिकारियों ने देखा कि प्रतापसिंह किसी भी तरह मुँह खोलने को तैयार नहीं हैं, तो उन पर दमनचक्र चलने लगा। उन्हें बर्फ की सिल्ली पर लिटाया गया। मिर्चों की धूनी उनकी नाक और आँखों में दी गयी। बेहोश होने तक कोड़ों के निर्मम प्रहार किये गये। होश में आते ही फिर यह सिलसिला शुरू हो जाता। लगातार कई दिन पर उन्हें भूखा-प्यासा रखा गया। उनकी खाल को जगह-जगह से जलाया गया। फिर उसमें नमक भरा गया पर उस मेवाडी वीर ने प्रताप सिंह ने मुँह नहीं खोला। उन्हें और अधिक यातनाएं दी गईं और परिणामस्वरूप 7 मई 1918 को 25 वर्ष की आयु में उनके प्राण इस देहरूपी पिंजरे को छोड़कर अनन्त में विलीन हो गये।
पिछले 50 सालों से, 1974 से, हर साल 23 दिसंबर को बारहठ परिवार की याद में शहीद मेला मनाया जाता है। इसी दिन जोरावर सिंह ने 1912 में भारत के ब्रिटिश वायसराय पर बम फेंका था। उनके गृहनगर शाहपुरा में एक मेला आयोजित किया जाता है और यह आयोजन शहीद त्रिमूर्ति स्मारक पर होता है, जहाँ ठाकुर केसरी सिंह , ठाकुर जोरावर सिंह और कुंवर प्रताप सिंह की मूर्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं।