~ कुलदीप दाधीच
लेखक और शिक्षक कुलदीप दाधीच ने आज के इस मॉडर्न जमाने के मम्मी-पापा को लेकर अपने विचार साझा कियें हैं, जो कि आज के कई शिक्षकों के मन की बात भी है, कुलदीप दाधीच का कहना है कि, एक विद्यार्थी का अपनी शिक्षा या पढ़ाई के प्रति और अपने गुरुजनों के प्रति जो अनुशासन और सम्मान होता है, उसमें माता-पिता का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान होता है, हम ऐसा सुनते भी हैं, और जानते भी हैं कि एक बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है, जहाँ वह अपने जीवन के शुरुआती संस्कार और शिक्षा प्राप्त करता है, परिवार ही वह जगह है जहाँ बच्चे को सही-गलत की समझ, आचार-विचार और समाज के मूल्यों की जानकारी मिलती है। लेकिन यह बात हर परिवार पर लागू नहीं हो पाती, आज के इस मॉडर्न और लाड़-प्यार के दौर में, कई माँ-बाप अपने बच्चों को इतना सर पर चढ़ा चुके हैं, कि बच्चें अब किसी भी बात को सुनना पसंद नहीं करते, क्योंकि दिमाग में भूत सवार होता है, आजकल स्कूल्स और कॉलेज में इस तरह के मामले दिनोंदिन देखने को मिलते हैं। जब टीचर्स की बच्चों को डाँट पड़ती है, तो तुरन्त मॉडर्न मम्मी-पापा दौड़े आते हैं, मॉडर्न मम्मी-पापा मैं उन्हें कहता हूँ, जो स्वयं भी संस्कार नहीं सीख पाए और अपने बच्चों को भी संस्कारित नहीं कर पायें, जो अपने बच्चों के लाड़-प्यार में, बच्चों की गलती को जाने बगैर टीचर्स से कहा-सुनी करने लग जाते हैं, ऐसे मम्मी-पापा से बच्चें बिगड़ रहें हैं, अगर ऐसा ही चलता रहा, तो सभी शैक्षणिक संस्थान स्कूल्स, कॉलेज और यूनिवर्सिटीज दादागिरी के अड्डे बन जाएँगे, क्योंकि शिक्षक बच्चों को कुछ कहने का अधिकार ही खो बैठेंगे, शिक्षक बच्चों से कोई अच्छी बात कहने से भी बचने लगेंगे क्योंकि न जाने कब बच्चों को जरा-सा कुछ कहते ही मॉडर्न मम्मी-पापा दौड़े चले आयें।जब भी कोई माता-पिता एक शिक्षक को यह खबर देतें हैं कि वह अपने बच्चों के बड़े पक्षधर हैं, तो शिक्षक उन बच्चों से सदा के लिए स्वयं को दूर कर लेता है, और परिणाम यह होता है कि, वे आगे चलकर न तो माँ की सुनते हैं, न बाप की, क्योंकि आदतें बदलती नहीं हैं। क्योंकि जो बच्चा शिक्षित ही नहीं हुआ, वह कहीं भी आनंदित नहीं रह सकता, वह किसी भी व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकता, उसके मन में सदा एक उथल-पुथल होती रहेगी। क्योंकि उसमें सूझ-बूझ नहीं घटी। एक समय हुआ करता था, जब माँ-बाप गुरु को साफ छूट दिया करते थे, और कहते थे बच्चे को कूटो-तोड़ो लेकिन सुधार दो। और ऐसे माँ-बापों के बच्चें सुधर भी गए, अनुशासित भी हो गए और आगे बढ़ भी गए, क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों की डोर गुरु के हाथ में सौंप दीं । वे मॉडर्न माता-पिता नहीं बनें। अगर श्री रामकृष्ण की डाँट और गालियाँ सुनकर विवेकानंद के माता-पिता दौड़े चले आते, तो विवेकानंद इतने मेधावी और ज्ञानी न होते।
लेकिन हम अब मॉडर्न हो गए हैं, और मॉडर्न होने के चक्कर में हमने बहुत कुछ पहले भी खो दिया है, और अभी भी लगातार खो रहें हैं।मुझे लगता है, बहुत सी चीजें परम्परागत ही सही लगती हैं।