(दिव्यराष्ट्र के लिए संजय अग्रवाला, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल)
हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ पारिवारिक संरचना में पति की भूमिका को अक्सर एक मशीन की तरह देखा जाता है – वह जो कमाता है, जिम्मेदारियाँ निभाता है और कभी नहीं थकता। लेकिन इस सोच के पीछे एक बहुत बड़ी सच्चाई छिपी होती है, जिसे हम बार-बार अनदेखा करते हैं – कि पति भी इंसान हैं। उनका भी मन होता है, भावनाएँ होती हैं, थकावट होती है और सबसे महत्वपूर्ण, वे भी मानसिक दबाव से गुजरते हैं। लेकिन समाज के बने-बनाए ढाँचे में उनकी मानसिक पीड़ा को कोई महत्व नहीं दिया जाता और यही उपेक्षा कई बार आत्महत्या जैसे खतरनाक कदमों की ओर ले जाती है।
समाज में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है, लेकिन यह जागरूकता भी एकतरफा लगती है। जब हम डिप्रेशन, एंग्जायटी या आत्महत्या की बात करते हैं, तो पीड़ित की तस्वीर अक्सर एक महिला, एक किशोर या एक बुजुर्ग की दिखाई जाती है। शायद ही कभी हम उस पुरुष के बारे में बात करते हैं जो दिन-रात परिवार के लिए काम करता है, बच्चों की पढ़ाई और भविष्य को लेकर चिंतित रहता है, जीवनसाथी की अपेक्षाओं और परिवार के दबावों के बीच पिसता है। उसका मन भी कभी टूटता है, लेकिन वह न तो खुलकर रो सकता है, न ही थकने की इजाजत पा सकता है।
शादी के बाद एक पुरुष से समाज की अपेक्षाएँ दोगुनी हो जाती हैं। वह अब सिर्फ एक बेटा या भाई नहीं रह जाता, वह एक पति और एक पिता भी बन जाता है। उसका ‘सक्षम’ होना अनिवार्य हो जाता है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह हर परिस्थिति में स्थिर रहे, कभी भावुक न हो, कभी शिकायत न करे। भावनाएँ दिखाना उसके ‘मर्द होने’ पर सवाल उठाने जैसा माना जाता है। यही कारण है कि पुरुषों में मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएँ अक्सर चुपचाप अंदर ही अंदर पनपती हैं। वे सहायता माँगने से कतराते हैं, क्योंकि उन्हें सिखाया गया है कि ‘असली मर्द’ कभी टूटता नहीं।
परिणामस्वरूप, जब समस्याएँ हद से ज्यादा बढ़ जाती हैं, तो कई पुरुष आत्महत्या जैसे खतरनाक रास्ते की ओर बढ़ जाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्टों के अनुसार, हर साल आत्महत्या करने वाले लोगों में पुरुषों की संख्या महिलाओं से कहीं अधिक है। इनमें से बड़ी संख्या विवाहित पुरुषों की होती है, जिन पर आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक दबाव हावी रहते हैं। लेकिन क्या हम इस विषय पर गंभीरता से चर्चा करते हैं? शायद नहीं। पति की आत्महत्या को अक्सर एक व्यक्तिगत विफलता के रूप में देखा जाता है, जबकि यह एक सामाजिक विफलता होती है।
यह विफलता उस सोच की है जो पुरुषों की भावनात्मक आवश्यकताओं को नगण्य मानती है। यह विफलता उस पितृसत्ता की भी है जो पुरुषों को ‘संवेदनहीन’ बना देने की कोशिश करती है। लेकिन हर पति एक मशीन नहीं होता। वह भी कभी-कभी खुद को अकेला, अपूर्ण और असहाय महसूस करता है। आर्थिक तनाव, वैवाहिक मतभेद, सामाजिक अपेक्षाएँ और भविष्य की अनिश्चितता – ये सब मिलकर उसकी मानसिक स्थिति को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन न तो घर में कोई उसे समझता है, और न ही समाज उसकी पीड़ा को मान्यता देता है।
विवाहित जीवन में भावनात्मक समर्थन दोनों दिशाओं में होना चाहिए। जिस तरह पत्नी को सहारे और समझ की ज़रूरत होती है, उसी तरह पति को भी यह चाहिए। लेकिन अधिकतर मामलों में पति से अपेक्षा की जाती है कि वह केवल देता जाए – प्रेम, सुरक्षा, पैसा, सहारा – और बदले में उसे केवल कर्तव्य याद दिलाए जाते हैं। जब उसकी भावनात्मक ज़रूरतें अनदेखी की जाती हैं, तो वह भीतर ही भीतर टूटने लगता है। यही टूटन, जब चरम पर पहुँचती है, तो आत्महत्या जैसी दुखद घटनाएँ जन्म लेती हैं।
यह जरूरी है कि हम मानसिक स्वास्थ्य को लिंग के आधार पर न बाँटें। हर इंसान को दुख होता है, हर किसी को सहारे की ज़रूरत होती है। पति, पिता, भाई – ये सभी पहले इंसान हैं और फिर समाज द्वारा दिए गए रिश्तों की भूमिकाएँ निभाते हैं। हमें उन्हें यह अधिकार देना होगा कि वे भी खुलकर अपने मन की बात कह सकें, अपनी थकावट जाहिर कर सकें और जब ज़रूरत हो तब मदद माँग सकें।
शायद समय आ गया है कि हम ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ जैसे जहरीले जुमलों को नकारें और यह स्वीकारें कि मर्द भी रोते हैं, मर्द भी टूटते हैं और मर्द भी आत्महत्या कर सकते हैं – अगर समय रहते उनकी पीड़ा को नहीं समझा गया। हमें पारिवारिक संवाद की संस्कृति को बढ़ावा देना होगा जहाँ पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए सुनने वाले, समझने वाले और सहारा देने वाले साथी बन सकें। हमें बच्चों को यह सिखाना होगा कि भावनाएँ लिंग-आधारित नहीं होतीं और हर किसी को अपनी बात कहने का हक़ होना चाहिए।
सरकारों को भी मानसिक स्वास्थ्य पर काम करते समय पुरुषों के लिए अलग से रणनीति बनानी चाहिए। कार्यस्थलों पर पुरुष कर्मचारियों के लिए काउंसलिंग, हेल्पलाइन और तनाव प्रबंधन कार्यक्रमों की शुरुआत होनी चाहिए। स्कूलों और कॉलेजों में भी लड़कों को भावनात्मक साक्षरता की शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वे बड़े होकर एक संवेदनशील पति बन सकें, न कि सिर्फ एक जिम्मेदार मशीन।
अगर हम सचमुच आत्महत्याओं को कम करना चाहते हैं, तो हमें पहले यह स्वीकार करना होगा कि हर आत्महत्या एक असफल संवाद की परिणति होती है – और जब वह संवाद पति के मन में ठहर कर दम तोड़ दे, तो समाज को उसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी। पति भी इंसान है – यह केवल एक वाक्य नहीं, बल्कि एक अहसास है, जिसे जिंदा रखना ही हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। तभी एक सशक्त, संतुलित और खुशहाल समाज की कल्पना साकार हो सकती है।