Home न्यूज़ आपातकाल के 50 साल और इलाहाबाद हाईकोर्ट का कमरा नंबर 24

आपातकाल के 50 साल और इलाहाबाद हाईकोर्ट का कमरा नंबर 24

100 views
0
आपातकाल के 50 साल और इलाहाबाद हाईकोर्ट का कमरा नंबर 24
आपातकाल के 50 साल और इलाहाबाद हाईकोर्ट का कमरा नंबर 24
Google search engine

देश में आपातकाल लगने की घटना को 50वर्ष पूर्ण होने जा रहे है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के कमरा नंबर 24 ने देश की दशा और दिशा बदल कर रख दी थी। इस कमरे में हुई सुनवाई ओर फैसले ने देश को आपातकाल का दर्द दिया। जस्टिस्ट जगमोहन लाल सिंहा 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस के रूप में जो फैसला सुनाया था, उसने देश की राजनीति की दिशा बदल दी थी। आजाद भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब किसी प्रधानमंत्री के निर्वाचन को अवैध घोषित किया गया था।

आपातकाल के 50 साल पूरे होने के मौके पर जस्टिस सिन्हा के इस फैसले को एक बार फिर देश के राजनीतिक हलकों में याद किया जा रहा है। 12 जून 1975 का वह दिन था, जब हाई कोर्ट के कमरा नंबर 24 में जस्टिस सिन्हा ने एक अहम फैसला सुनाया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट में कमरा नंबर 24 को अब प्रशासनिक फेरबदल के बाद न्याय कक्ष या कोर्ट रूम 34 कहा जाता है।

जस्टिस सिन्हा और उनके परिवार को इस मामले में फैसला सुनाने से पहले अनेक तरह के दबावों का सामना भी करना पड़ा, इस प्रकार की जानकारी विभिन्न पुस्तकों में मिलती है।

1971 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की राय बरेली सीट से जीत के खिलाफ राज नारायण हाई कोर्ट पहुंच गए थे। राज नारायण ने रायबरेली लोकसभा सीट से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विपक्षी उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा था। उन्होंने चुनाव में धांधलियों और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया था और चुनाव नतीजों को अदालत में चुनौती दी थी।
दूसरी मंजिल पर स्थित कोर्ट रूम को सुरक्षा वजहों से चुना गया था क्योंकि इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 18 और 19 मार्च को अदालत में उपस्थित होना था।

राज नारायण की याचिका को सबसे पहले जस्टिस विलियम ब्रूम की बेंच के सामने लिस्ट किया गया। ब्रूम हाई कोर्ट के अंतिम ब्रिटिश जज थे। वह दिसंबर, 1971 में रिटायर हो गए थे। इसके बाद यह मामला दो अलग-अलग बेंच जस्टिस बीएन लोकुर (सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर के पिता) और केएन श्रीवास्तव की बेंच के सामने गया लेकिन उन दोनों के भी रिटायरमेंट के बाद राज नारायण की याचिका को 1975 में जस्टिस सिन्हा की बेंच को सामने रखा गया।

12 फरवरी, 1975 को इस मामले में गवाहों की रिकॉर्डिंग शुरू हुई तो दोनों पक्षों की ओर से कई हाई-प्रोफाइल लोग अदालत कक्ष में मौजूद थे। इंदिरा गांधी की ओर से योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष पीएन हक्सर जबकि राज नारायण की ओर से भारतीय जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर और कांग्रेस-ओ के अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा थे।

वकील के तौर पर एस.सी. खरे ने इंदिरा गांधी जबकि शांति भूषण और आर.सी. श्रीवास्तव ने राज नारायण की ओर से दलीलें दी। एस.एन. कक्कड़ उस समय उत्तर प्रदेश के एडवोकेट जनरल थे, वह राज्य सरकार की ओर से जबकि भारत के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल नीरेन डे केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए।
मामले में अपनी गवाही के चलते इंदिरा गांधी 17 मार्च, 1975 को इलाहाबाद पहुंचीं। अदालत में काफी गहमागहमी का माहौल था। अदालत कक्ष में विपक्षी नेता मधू लिमये, श्याम नंदन मिश्रा (जो बाद में विदेश मंत्री बने) और रवि राय (जो बाद में लोकसभा अध्यक्ष बने) एक तरफ जबकि दूसरी ओर इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी और उनकी बहू सोनिया गांधी थीं।

आमतौर पर गवाह को गवाही देने के लिए अदालत में बने बॉक्स में खड़ा होता है लेकिन इंदिरा गांधी को कुर्सी दी गई। इंदिरा गांधी के वकील एससी खरे ने जस्टिस सिन्हा से अनुरोध किया था कि वे एक आयोग का गठन कर दें जो दिल्ली में उनका बयान दर्ज कर सके लेकिन जस्टिस सिन्हा ने उनके अनुरोध को ठुकरा दिया। कुछ दिनों तक बहस चली और अदालत 23 मई, 1975 को गर्मी की छुट्टियों के चलते बंद हो गई।

इस मामले में राज नारायण के वकील शांति भूषण (पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री) के बेटे प्रशांत भूषण ने अपनी किताब दा केस देट शोक इंडिया: दा वर्डिक्ट देट लेडी टू दा इमरजेंसी में उन तमाम दबावों के बारे में लिखा है जिनका सामना जस्टिस सिन्हा और उनके परिवार को करना पड़ा क्योंकि तब बहस पूरी हो चुकी थी और फैसला आने का इंतजार था।
बताया जाता है कि अगले तीन हफ्तों के दौरान जब जस्टिस सिन्हा अपना फैसला लिख रहे थे तो उन्होंने खुद को घर में बंद कर लिया था और उनसे मिलने के लिए आने वालों से कहा जाता था कि वह अपने बड़े भाई से मिलने के लिए उज्जैन गए हुए हैं।

प्रशांत भूषण अपनी किताब में लिखते हैं कि फैसले से एक रात पहले जस्टिस सिन्हा ने अपने स्टेनो मन्ना लाल के लिए हाईकोर्ट बिल्डिंग से सटे बंगला नंबर 10 में रहने का इंतजाम किया था। अब यह बंगला अस्तित्व में नहीं है।
जस्टिस सिन्हा के बेटे और इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस विपिन सिन्हाके अनुसार ,मैं तब 11वीं क्लास में था और वे दिन हम लोगों के लिए बहुत मुश्किल भरे थे। हमें गाली-गलौज वाले कई फोन कॉल आते थे और हम अपने पिता को फोन नहीं उठाने देते थे।

जस्टिस सिन्हा के इस फैसले का भारत की राजनीति पर बहुत गहरा असर पड़ा। जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले में कहा, “याचिका को स्वीकार किया जाता है और रिस्पॉन्डेट नंबर. 1 इंदिरा नेहरू गांधी का लोकसभा के लिए निर्वाचन शून्य घोषित किया जाता है। उन्हें इस आदेश की तारीख से 6 साल के लिए अयोग्य घोषित किया जाता है।” जस्टिस सिन्हा के फैसले के बाद इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया। आपातकाल का यह दौर 21 महीने तक चला

इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज शंभूनाथ श्रीवास्तव भी फैसले वाले दिन अदालत के कोर्टरूम नंबर 24 में मौजूद थे। जस्टिस श्रीवास्तव के अनुसार इस फैसले के बाद कुछ लोग हैरान थे और कुछ लोग सदमे में भी थे। इंदिरा गांधी के वकील एससी खरे के भतीजे और उनके जूनियर वीएन खरे (बाद में सीजेआई बने), ने अपने हाथ से स्टे आवेदन तैयार किया लेकिन जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले पर 20 दिनों का स्टे लगा दिया।
जस्टिस श्रीवास्तव ने लिखा है कि, “सब कुछ इतनी जल्दी में हुआ कि स्टे आवेदन तक टाइप नहीं किया गया।

सीनियर एडवोकेट अशोक मेहता जो मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश के एडिशनल एडवोकेट जनरल हैं, वह कहते हैं, “ऐसे बहुत कम जज हैं जो जस्टिस सिन्हा और जस्टिस एचआर खन्ना की बराबरी कर सकें। जब भी चुनाव से जुड़ी कोई याचिका कोर्ट के सामने आती है तो हमारे दिमाग में सबसे पहले ‘राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी’ का मामला आता है। हमें इसके लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर गर्व है।”

मार्च 2008 में जस्टिस सिन्हा का निधन हो गया था। अगस्त, 1996 में एक इंटरव्यू के दौरान जस्टिस सिन्हा ने इस फैसले को सामान्य बताया था और कहा था, “मेरे लिए यह किसी और मामले जैसा ही था। फैसला सुनाते ही मेरा काम खत्म हो गया।”

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here