मंत्रद्रष्टा, ब्रह्मज्ञानी और शास्त्रवेत्ता महर्षि पराशर

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(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ गोविन्द पारीक, अतिरिक्त निदेशक जनसंपर्क सेनि राजस्थान सरकार)

भारतीय ऋषि परंपरा केवल धर्म, दर्शन और वेदों की व्याख्या करने वाली परंपरा नहीं रही, बल्कि यह मानव सभ्यता के बौद्धिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक उत्थान का महान स्रोत भी रही है। इसी परंपरा में विशिष्ट स्थान रखने वाले महर्षि पराशर ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा, ज्योतिष शास्त्र के मूर्धन्य आचार्य, स्मृतिकार, आयुर्वेदज्ञ और ब्रह्मज्ञानी माने जाते हैं। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था, जो वेदों की ऋचाओं से लेकर ज्योतिष के गूढ़ सिद्धांतों और नैतिक धर्मशास्त्रों तक विस्तृत है।

पराशर” का अर्थ है – वह जो स्मरण मात्र से पापों का नाश करता है। वास्तव में, पराशर न केवल पापों का, बल्कि अज्ञान, अंधविश्वास और अधर्म का भी नाश करते हैं।

महर्षि पराशर का जन्म एक अत्यंत तपस्वी और समर्पित ऋषि कुल में हुआ। वे महर्षि वशिष्ठ के पौत्र और शक्तिमुनि तथा अदृश्यन्ती के पुत्र थे। पराशर का जीवन प्रारंभ से ही तप, ज्ञान और गंभीरता का परिचायक रहा। जन्म के बाद वे बाष्कल और याज्ञवल्क्य जैसे महान आचार्यों के शिष्य बने, जिन्होंने उन्हें वैदिक ज्ञान, ज्योतिष और शास्त्रों की शिक्षा दी।

कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास का जन्म

महर्षि पराशर का नाम ‘महाभारत’ की महागाथा से भी गहराई से जुड़ा है। उन्होंने निषाद कन्या सत्यवती से योगबल द्वारा संयोग स्थापित किया, जिससे कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास का जन्म हुआ। वेदव्यास ने महाभारत की रचना की, पुराणों का संकलन किया और वेदों का वर्गीकरण किया। पराशर ने सत्यवती को यह वरदान दिया कि वह कौमारी अवस्था में रहते हुए भी मातृत्व का अनुभव करेगी और उसकी देह से मत्स्यगंध के स्थान पर सुगंध उत्पन्न होगी। यह प्रसंग भारतीय अध्यात्म की उस परंपरा को दिखाता है जहाँ योगबल और तपस्विता के साथ प्रेम, सृजन और लोकमंगल का सम्मिलन होता है।

प्रतिशोध से करुणा की ओर

महर्षि पराशर का जीवन केवल ज्ञान और सृजन से ही नहीं, संघर्ष और आक्रोश से भी जुड़ा है। जब उनके पिता का राक्षस बन चुके राजा कल्माषपाद ने वध कर दिया, तो पराशर ने प्रतिशोध की भावना से प्रेरित होकर एक भीषण राक्षस-सत्र यज्ञ प्रारंभ किया। इस यज्ञ में एक-एक करके राक्षस भस्म होने लगे तो महर्षि पुलस्त्य और पुत्र वेदव्यास ने उन्हें समझाया कि निर्दोषों का संहार अधर्म है। पराशर ने अपने क्रोध पर नियंत्रण रखते हुए यज्ञ को रोक दिया। यह प्रसंग पराशर की वैचारिक परिपक्वता और करुणा के आदर्श को दर्शाता है।

वेद, स्मृति और ज्योतिष के आचार्य

महर्षि पराशर को एक बहुआयामी विद्वान के रूप में जाना जाता है। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की जो आज भी संदर्भ का स्रोत हैं। उनकी रचना विष्णु पुराण धर्म, भक्ति और सृष्टि-विज्ञान से युक्त है। पराशर स्मृति धर्मशास्त्र युगानुरूप आचरण और सामाजिक व्यवस्था का मार्गदर्शन करता है। बृहत्पाराशर होरा शास्त्र आधुनिक वैदिक ज्योतिष का मूलाधार ग्रंथ है। इसमें ग्रहों, राशियों और उनके प्रभाव का गूढ़ विश्लेषण है।

आयुर्वेद से संबंधित पराशर संहिता (वैद्यक) में रोगों और चिकित्सा विधियों का वर्णन है। उनकी अन्य रचनाओं में पराशर गीता, वास्तुशास्त्र, नीतिशास्त्र, पराशर महापुराण, लघुपराशरी आदि ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। उनका ज्ञान केवल शास्त्रों तक सीमित नहीं था, वे समाज-निर्माण और नीति-संरचना में भी उतने ही दक्ष थे।

अध्यात्मिक संवाद और विचार दर्शन

पराशर केवल ग्रंथकार नहीं, वरन् एक सक्रिय विचारक और संवादकर्ता भी थे। उनका अध्यात्म विषय में जनक के साथ संवाद हुआ था। राजा जनक ने उनसे कल्याण मार्ग जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि “सदाचार और धर्मनिष्ठा ही मानव जीवन का सर्वोत्तम मार्ग है।” यह उपदेश आज के नैतिक पतन के युग में भी उतना ही प्रासंगिक है।

सामाजिक दृष्टिकोण और पराशर की प्रासंगिकता

पराशर केवल एक ऋषि नहीं बल्कि समाज-संस्कृति के गहन चिंतक और निर्माता भी थे। उन्होंने समय के अनुसार धर्म की व्याख्या की और यही कारण है कि पराशर स्मृति को युगानुरूप धर्मशास्त्र माना जाता है। उन्होंने वंशवाद, वर्ण व्यवस्था और नारी की गरिमा पर भी व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया। सत्यवती के साथ उनका संबंध इस बात का प्रमाण है कि योग, तप और ब्रह्मज्ञान से युक्त व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था को भी न्यायोचित दिशा दे सकता है।

महर्षि पराशर भारतीय ऋषि परंपरा के उन विलक्षण व्यक्तित्वों में हैं, जिन्होंने वेदों के गूढ़ रहस्यों से लेकर समाज के नैतिक दिशा-निर्देशन तक, हर क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी है। मन्त्रद्रष्टा पराशर ने ऋग्वेद में अपनी ऋचाओं से प्रकृति और ब्रह्म को व्याख्यायित किया। ग्रंथकार पराशर ने धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद और वास्तु पर ज्ञान-विज्ञान को अक्षरबद्ध किया। समाज-सुधारक पराशर ने प्रतिशोध के स्थान पर क्षमा, करुणा और धर्म का मार्ग चुना। पिता पराशर ने वेदव्यास जैसे महापुरुष को जन्म दिया।

आज के युग में जब धर्म केवल कर्मकांड और विज्ञान केवल तकनीक तक सीमित हो चला है, ऐसे समय में महर्षि पराशर की बहुआयामी दृष्टि हमें समग्रता का बोध कराती है। वे भारतीय संस्कृति के ऐसे दीपस्तंभ हैं, जिनकी ज्योति युगों तक मानवता का पथ आलोकित करती रहेगी।

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