Home Blog प्रतिकूलता में भी साधु साधना की अनुकूलता खोज लेता है..आचार्य जिनमणिप्रभसूरि

प्रतिकूलता में भी साधु साधना की अनुकूलता खोज लेता है..आचार्य जिनमणिप्रभसूरि

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सुख की चाह साधु और सांसारिक दौनों को है किंतु मार्ग अलग-अलग है दिशा विपरीत है…….

सांगली, दिव्यराष्ट्र*/! साधु और सांसारिक मनुष्य दोनों ही जीवन में सुख पाने पुरूषार्थ करते है किन्तु दोनों के मार्ग अलग-अलग हैं। साधु जप-तप-साधना और आध्यात्म के माध्यम से जीवन लक्ष्य आत्मकल्याण-परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर चलता है तो सांसारिक मनुष्य भौतिक सुखदायी साधनों के संचय में सुख की अनुभूति के भ्रम में पालकर पाप मार्ग का अनुकरण करता है। सच्चा सुख क्या है ? इसे जाने बिना उसे पाने का लक्ष्य और तदानुरूप मार्ग का चयन किए बिना उसे नहीं पाया जा सकता है। साधु धन, मोह, माया आदि का त्यागकर आध्यात्म मार्ग का अनुगामी बनकर आत्मकल्याण के लिए गुरूजनों के निर्देश में साधना करता है वहीं सांसारिक मनुष्य भौतिक सुखों को ही यथार्थ मानकर धन के प्रति आसक्ति में ही सुखों की खोज करता है। उक्त उद्गार आचार्यश्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी ने व्यक्त किए।
आचार्यश्री ने कहा कि हमंे प्रतिदिन हर परिस्थिति में प्रसन्न रहने के संकल्प के साथ जीवन जीना चाहिए। सांसारिक परिस्थितियों, शारीरिक दशाओं में बदलाव में भी मनःस्थिति न बदलने का प्रयास हमें लक्ष्य प्राप्ति के लिए किए जा रहे पुरूषार्थ को सबल ऊर्जावान बनाने में सहायक होता है। साधु और सांसारिक मनुष्य अलग-अलग पुरूषार्थ मार्ग से सुख खोजते हैं। साधु जहाँ परमात्मा प्राप्ति के लिए जप-तप-साध्ना मार्ग पर चलकर सुखों की अनुभूति करता है वहीं सांसारिक मनुष्य मोह, माया के चक्कर में भौतिक सुखों की प्राप्ति के पापमार्ग का चयन कर सुख से निरन्तर दूर होता जाता है। संसार में पूरी तरह से सुखी कोई नहीं है। हर कोई किसी न किसी कारण से दुखी है। साधु प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवन लक्ष्य आत्मकल्याण को नहीं भूलता वहीं सांसारिक मनुष्य क्षणिक सुखदायी साधनों में जीवन लक्ष्य से भ्रमित हो जाता है। संसार मोह, माया और ममत्व का घर है। इसमें जितना अधिक लगाव सुख होगा उससे उतना ही अधिक वियोग दुःख होगा। इसे हम भूल जाते हैं। दूसरी ओर परमात्मा से लगाव और उसकी प्राप्ति के बाद वियोग की संभावना ही समाप्त हो जाती है। जीवन का लक्ष्य और सच्चा सुख परमात्मा की करूणा, दया, कृपा पाकर आत्मा और परमात्मा से मिलन में निहित है। साधु इसी लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन जीता है और प्रतिकूलता में भी साधना के लिए अनुकूलता खोज लेती है।
आचार्यश्री ने कहा कि संसार में जो हमें संयोग से प्राप्त होता है उससे वियोग सुनिश्चित है। संयोग से प्राप्त हुई वस्तुओं और साधनों से हम जितना प्रेम करेंगे, जितनी सुखानुभूति करेंगे, वियोग की दशा में हमें उतनी ही दुःखानुभूति होगी। सांसारिक प्रेम में प्रेम प्राप्ति का सौदा भाव निहित है किन्तु परमात्मा के प्रति प्रेम में कोई सौदा नहीं होता। यह एकांगी समर्पण है। सांसारिक प्रेम क्षणिक है जिसका अन्त निश्चित है किन्तु परमात्मा से प्रेम अनन्त एवं अपूर्व आनन्ददायी है। प्रवचनों में बरसते परमात्मा की वाणी के अमृत को हमें प्रभु कृपा करूणा, दया और उपकार मानकर अपनी हृदय के घड़े को आत्मज्ञान से भरकर सच्चे सुखों की प्राप्ति के लिए समर्पित होना चाहिए। हमें सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि सांसारिक संयोग अल्पकालीन सुखदायी होता है और वियोग दीर्घकालिक तथा उतना ही अधिक दुःखदायी होता है।
आज आचार्यश्री के सांगली पधारने पर श्री संघ द्वारा उनका भव्य सामैया किया गया। प्रवचन के पश्चात् गुरुपूजन का लाभ मल्हार पेट निवासी संघवी भीखचंद धनराज देसाई ने तथा कामली का लाभ महावीर भंसाली ने लिया। पूज्यश्री के साथ गणि मयंकप्रभसागर, विरक्तप्रभसागर मुकुन्दप्रभसागर व महर्षिप्रभसागर थे। प्रवचन के पश्चात् स्थानीय सांसद संजय काका पाटिल आचार्यश्री के साथ दर्शनाथ पधारे।

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