(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर)
श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र नैनागिरि (छतरपुर) म.प्र. में श्री सिद्धचक्र स्तवन की अप्रकाशित पाण्डुलिपि प्राप्त हुई है। जिसकी प्रति हमें क्षेत्र के यशस्वी अध्यक्ष सुरेश जैन (आईएएस) भोपाल ने उपलब्ध कराई है। 13 पृष्ठीय इस पाण्डुलिपि में काली और लाल स्याही का उपयोग किया गया है, प्रत्येक पृष्ठ में आठ पंक्तियाँ हैं, प्रतिपंक्ति 27 -34 अक्षर हैं। इसमें 38 संस्कृत श्लोक हैं, 22 स्रग्धरा छंद में, 11 शार्दूलविक्रीडित छंद, 2 मालिनी छंद 1 वसंततिलका और 1 श्लोक अनुष्टुप् छंद में है।
इस संस्कृत स्तवन का प्रथम पद्य मंगलाचरण और अंतिम पद्य पुष्पिका रूप है। इसके लेखक का उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। पाण्डुलिपि के प्रारंभ में लिखा गया है- ‘‘।।श्री जिनाय नमः।। ।। अथ सिद्धचक्र स्तवन प्रारंभ ।।’’ इसके अन्त में भी लिखा है- ‘‘।। इति श्री सिद्धचक्र स्तवन समाप्ता।। श्री वीतरागदेव जू।। ओं नमः सिद्धेभ्यः।। ।। ।।
प्रारंभिक पद्य इस प्रकार है-
देवं देवाधिदेवं परमपदगतं सृष्टनेनारमीशम्।
अव्यक्तमंतं गुणिनमतिगुनं बीजनं वायुबीजम्।।
विश्वाग्र्यं विश्वमूर्ति-शमविषमशमंकारणं कारणानाम्।
तन्नित्यं ध्यानगम्यं प्रणमितिऋषभं दिव्यरूपं स्वरूपम्।।1।।
अंतिम पद्य इस प्रकार है-
संग्रामसागकरींद्रभुजंगसिंहदुव्याधवह्निरिपुबंधन-संभवानि।
भूतग्रहभ्रमनिशांचरसाकनीनां नस्यंत पंचपरमेष्ठपदै भयानि।।37।।
पुष्पिका में कहा गया है कि ‘‘इस प्रति को शुद्ध करके पढ़ें, मैं इसका संशोधन करने का अभ्यस्त नहीं हूँ। यदि इसमें अक्षर, मात्रा कम रह कई हो या अधिक हो गई हो तो इसमें मेरा ही दोष है।’ पद्य इस प्रकार है-
प्रतशुद्धं पठतमिदं न सक्यते सोधयतुं ह्यनभ्यस्तम्।।
यद्धीनाधिक-मात्राक्षर-मिहतत्रास्ति मे दोषः।।38।।
इस सिद्धचक्र स्तवन में प्रारंभ में सिद्धों व ऋषभ जिन को नमस्कार किया गया है। इसके उपरान्त पद्य संख्या 2 से 7 तक ध्यान, ध्यान की विधि और ध्यान का महत्त्व बताया गया है। आष्टम एवं नवम पद्य में ध्यानमग्न वीतरागी योगी की परा स्थित निरूपित की गई है। 10वें श्लोक में शांतिक, पौष्टिक, वश्य कर्म से ऊपर परमपद को प्राप्त जैनशक्ति हम सब की रक्षा करे। पश्चात् ‘ऊर्ध्वाधोरयुतं सबिंदु..’ संस्कृत सिद्धपूजा से मिलता-जुलता 11वां पद्य है। फिर देवाराधना, देवाधिदेव व सिद्धिचक्र को नमन किया गया है। उपरान्त एक लाख श्वेत पुष्पों से मंत्र का जाप, सिद्धचक्र की महिमा, महत्वपूर्ण मंत्र, उनकी विधि और उनके लाभ बताये गये हैं।
ओं, ह्रें, ह्रः, यः, ह्रीं, क्षं, ठं, हं, क्लीं, ओं, अर्हं, झ्रं, संवौषट् आदि को हथेलियों में कहां कहां स्थापित करके जाप और उनके फल बताते हुए कहा गया है कि इससे संग्राम में विजय, गज, सिंह, सर्प, दुर्व्याधि, रिपु, अपहरणादि के बंधन नष्ट होते हैं, भूत पीड़ा, ग्रहपीड़ा, निशाचर आदि की पीड़ा नष्ट होती है।
हमें यह ग्रन्थ प्रकाशित या अप्रकाशित कहीं देखने में नहीं आया और न और लगभग 200 शास्त्रभण्डारों के सर्वेक्षण में कहीं सूचीबद्ध मिला है।