पंच परिवर्तन से राष्ट्रीय पुनरुत्थान
लेखाराम बिश्नोई, लेखक, विचारक व सामाजिक कार्यकर्ता
किसी भी राष्ट्र के निर्माण में कुछ तत्वों का महत्वपूर्ण स्थान रहता है। ये तत्व उस राष्ट्र की संस्कृति का परिचायक भी होते हैं। राष्ट्र की चिरस्थाई यात्रा इन्हीं तत्वों से बनती है। सांस्कृतिक विरासत के महत्वपूर्ण तत्वों से राष्ट्र की पहचान भी होती है, और ये तत्व राष्ट्र और देश के अंतर को भी अंकित करते हैं। भारत की वर्तमान स्थिति में सुधार लाने और देश को प्रगति और विकास के मार्ग पर मजबूत करने के लिए, प्राचीन समृद्ध भारत, विश्व गुरु भारत और सोने की चिड़िया भारत के पांच आधारभूत तत्व सामाजिक समरसता, स्वदेशी भाव, पर्यावरण संरक्षण, परिवार प्रबोधन, और नागरिक कर्तव्य जैसे तत्वों की वर्तमान समय में भी भूमिका महत्वपूर्ण है।
सामाजिक समरसता
सनातन परंपरा, संस्कृति समाज में मनुष्ण एक ही ईश्वर की संतान है, और उनमें एक ही चैतन्य का अस्तित्व है। इस बात को वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृतियां सभी मानते हैं। आदिकाल से सनातन संस्कृति में कभी भी किसी के साथ में किसी तरह का भेदभाव स्वीकार नहीं किया गया। समाज रूपी परिवार में समरसता का उदाहरण श्रीराम के वनवास के दौरान उत्तर से दक्षिण तक विभित्र जातियों और वर्गों के मध्य परस्पर प्रेम व विश्वास का संचार किया गया। निषाद राज गुह के यहां रुककर और उन्हें गले लगाकर, शबरी के झूठे बेर भोजन में ग्रहण कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने सामाजिक समरसता का संदेश और मर्यादा का यह संदेश दिया।
भारत का प्राचीन इतिहास संघर्षों का रहा है। अनेक बर्बर जातियों शक, हुण, मंगोल, मुगल के आक्रमणों को हमने झेला है। इस संघर्ष के कालखंड में हमने गुलामी को कभी स्वीकार नहीं किया। भारतवर्ष के संपूर्ण भूभाग को कोई आक्रमणकारी एक साथ विजय नहीं कर सका। इस संघर्ष के काल में आक्रमणकारियों ने हमारे धार्मिक ग्रंथों में कुछ मिथ्या बातें जोड़ दी। जिससे कुछ विसंगतियां आ गई। जिसके कारण भ्रम की स्थिति पैदा हो गई। इस कालखंड में भी हमारे ऋषि मुनियों, संतो ने भक्ति आंदोलन में समय-समय पर एक समरस समाज की स्थापना का प्रयास किया गया। इस पुनीत कार्य के कारण आदि शंकराचार्य, रामानुज, गुरु नानक देव, बाबा रामदेव,नामदेव, गुरु जंभेश्वर आदि जन-जन के आराध्य बन गए। सामाजिक समरसता एक व्यवहार का विषय है और इसे परस्पर व्यवहार के आचरण द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है। यही प्रेम और अपनत्व का भाव ही सामाजिक समरसता है।
19वीं और 20वीं सदी में भी स्वामी विवेकानंद दयानंद सरस्वती, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी, बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर, डॉ केशवराव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरुजी माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर, द्वारा जीवन का क्षण क्षण सामाजिक समरसता को समर्पित रहा। बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का मत था, कि यदि देश के संत महात्मा मिलकर यह घोषित कर दे कि हिन्दू धर्म शास्त्रों में छुआछूत का कोई स्थान नहीं है, तो इस अभिशाप को समाप्त किया जा सकता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए 13-14 दिसंबर 1969 के उडुपी धर्म संसद में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गुरुजी के विशेष प्रयासों के परिणाम स्वरूप भारत के प्रमुख संतो ने एक स्वर में “हिन्दवः सोदरा सर्वे ना हिन्दू पतितो भवेत् मंम दीक्षा हिन्दू रक्षा मंम मंत्र समानता” के उद्घोष के साथ सामाजिक समरसता का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया।
सुष्टि के किसी भी कालखंड में समाज अपने परम वैभव पर पहुंचा है। तो वह समरसता के बलबूते पर पहुंचा है, और वर्तमान समय की महती आवश्यकता सामाजिक समरसता है। सामाजिक समरसता के अभाव में समाज में विभाजन और टकराव जैसे तत्व राष्ट्र की प्रगति में बाधक बनते हैं। समरसता के माध्यम से समान अवसर, सामाजिक न्याय और बंधुत्व की भावना को बढ़ावा मिलता है। जिससे देश की आंतरिक शांति और स्थिरता विकास में सहायक होती है। सामाजिक समरसता और भारतीय ऋषि मुनियों के व्यक्तिगत व्यवहार, आचरण के कारण भारत विश्व गुरु बना और मानव जाति को वृष्टि से समटि तक की यात्रा तय की।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के अभाव में न तो चैन, सुखपूर्वक वह रह सकता है। न वह प्रगति कर सकता है। यही कारण है कि मनुष्य अपने समाज समुदाय और परिवार के प्रति भावात्मक रूप से बंधा रहता है। परिवार, जाति, धार्मिक संप्रदाय सभी में सदस्यों के मध्य भावामक एकता होती है, जो समाज को एकता के रूप में पिरोकर रखती है। कोई भी समाज समूह या समुदाय अधिक दिनों तक भावात्मक एकता के बिना जीवित नहीं रह सकता, और यह भावात्मक एकता किसी राष्ट्र के अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है, इसे दूसरे शब्दों में राष्ट्रीय एकता कहा जाता है। समाज के प्रबुद्ध वर्ग का यह दायित्व है, कि वे समाज में समरसता का विमर्श खड़ा करें और इसे व्यक्तिगत जीवन में व्यवहार के रूप में स्थापित करें। यही सच्ची समाज सेवा है।
स्वदेशी का जागरण – भारत के संदर्भ में
भारत एक महान संस्कृति की धरोहर अपने अंदर संजोए हुए हैं। जिसने वैदिक काल से आत्मा और आत्म जागरण को महत्व दिया है। “स्वदेशी भाव का जागरण”यानी आत्म बोध एक आध्यात्मिक पद्धति है। जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने मान बिन्दुओं, आस्था केन्द्रों, अपने पूर्वजों से जुड़कर, अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है। अपने वास्तविक अस्तित्व मूल स्वभाव और जीवन के उद्देश्य को समझता है। भारतीय दर्शन में, धर्म, योग और दर्शन के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक दिव्य शक्ति होती है। जिसे जानना और अनुभव करना स्व जागरण कहलाता है। यह प्रक्रिया न केवल व्यक्तिगत जीवन के विकास का समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करती है। बल्कि समाज और राष्ट्र के उत्थान में सहायक होती है।
वैदिक और उपनिषदिक काल से स्व जागरण को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य माना गया। आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या, ध्यान, साधना, तपस्या और योग मार्ग सूझाए गए।
आधुनिक भारत में भी स्व का जागरण और आत्म बोध की महत्वपूर्ण परंपरा रही है। रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, श्री अरविंद और अन्य संतों ने भी भारतीय समाज में स्व-जागरण के महत्व को बताया। महात्मा गांधी ने स्व-जागरण को “स्वराज” के साथ जोड़ा जो आत्मनिर्भरता और स्व से जुड़ने की भावना है।
“स्व भाषा” स्व भाषा व्यक्ति को सांस्कृतिक धरोहर, परंपरा और जीवन मूल्यों से जोड़ती है। भारत में संस्कृत, हिंदी, तमिल, बंगाली, मराठी और अन्य भारतीय भाषाएं इस संदर्भ में “स्व भाषा” का प्रतीक है। इसके साथ ही प्राकृत, पाली, तमिल, तेलुगू जैसी भाषाओं ने भी साहित्य, विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में “स्व भाषा” का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। राष्ट्रीयता की सच्ची भावना मातृभाषा में प्रकट होती है। इस कारण स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में साहित्य रचा गया। जिसने जनजागृति और स्वराज की भावना को प्रोत्साहित किया। आज के आधुनिक समय में वैश्वीकरण और अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के बीच मातृभाषा का जागरण और अधिक प्रासंगिक हो गया है।
“स्व वेशभूषा” भारतीय वेशभूषा केवल परिधान मात्र नहीं है। यह हमारी वैदिक संस्कृति, इतिहास, परंपरा और जीवनशैली का संवाहक रही है। भारतीय समाज जीवन में वेशभुषा न केवल सौंदर्य और आकर्षक का हिस्सा है, बल्कि इसका सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व भी है। यहां की वेशभूषा की एक बड़ी विशिष्टता, आर्थिक रूप से हथकरघा उद्योग और वस्त्र उद्योग के रूप में विश्व विख्यात रही है। हर राज्य की अपनी विशेष वेशभूषा है, जो उसके गौरव और पहचान का हिस्सा है। जो हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। जिसे संजोए रखना हमारी जिम्मेदारी है।
“स्वराज” एक राष्ट्र समाज की अपनी शासन व्यवस्था होनी चाहिए। भारत में स्वराज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रही है। वैदिक काल से जनपद और गणराज्य जैसी व्यवस्थाएं थी। जहां जनता को शासन चुनने और शासन में भागीदारी निभाने का अवसर था। यह शासन व्यवस्था लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित थी। गांधी जी के स्वराज में भी विकेंद्रीकृत शासन व्यवस्था, ग्राम स्वराज की महत्वपूर्ण भूमिका थी। स्वराज केवल राजनीतिक अवधारणा नहीं है, बल्कि आत्मनिर्भरता, समानता और जन भागीदारी का प्रतीक है। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली ने स्वराज को वास्तविकता में बदलने का प्रयास किया है। इस यात्रा में शिक्षा, जागरूकता और विकेंद्रीकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। जिससे भारत एक सशक्त आत्मनिर्भर और समग्र राष्ट्र के रूप में उभर सकेगा।
“स्वदेशी” भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वदेशी की अवधारणा एक प्रमुख सिद्धांत के रूप में उभरी। जिसका उद्देश्य विदेशी वस्त्रों और वस्तुओं का बहिष्कार कर भारतीय उत्पादों का समर्थन करना था। स्वदेशी का अर्थ है, स्थानीय आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना। परंतु स्वदेशी केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता तक सीमित नहीं है। यह हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर की संवाहक भी है। स्वदेशी और स्व जागरण अपने आप में स्वभाषा, स्व संस्कृति, स्व वेशभूषा, और स्वराज आदि महान ऋषि परंपरा की धरोहर है। जो व्यक्तिगत आचरण द्वारा समाज जीवन के व्यवहार से एक राष्ट्र के समृद्ध जीवन का धोतक होती है। यही स्व जागरण का भाव है। इसी स्व जागरण के भाव ने भारतीय संस्कृति को चिर स्थाई रखा है।
पर्यावरण संरक्षण
हमारा पर्यावरण प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों का मिलाजुला स्वरूप है। जिसके अंतर्गत पर्यावरण की गुणवत्ता की संरक्षण की बात की जाती है। वातावरण में घुले घातक रसायनों की अधिकता को कम करना और पारिस्थितिकीय तंत्र को प्रदूषण से बचाना है। पर्यावरण में जितना महत्व मनुष्यों का है, उतना ही अन्य जीव जंतुओं का भी। औद्योगिकरण, बढ़ते विकास कार्य, और वैज्ञानिक गतिविधियों के कारण वनों की कटाई होती है। जिससे वन्य जीव जंतु के प्रजनन और आवास भी प्रभावित होते हैं।
पर्यावरण, पारिस्थितिकीय तंत्र का संतुलन बिगड़ने में हम सब की भूमिका रही है अतः इसके संरक्षण में प्रत्येक व्यक्ति का योगदान होना चाहिए। हमारे समाज में बहुत से महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण के लिए मिसाल पेश की है। अनेक ऐसे सामाजिक संगठन भी है जो पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करते हैं। पिछले कुछ समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा “पर्यावरण संरक्षण गतिविधि”के माध्यम द्वारा देश भर में प्रत्येक जिले में एक लाख पौधे लगाने के लक्ष्य से पर्यावरण संरक्षण-संवर्धन का महा अभियान “एक पेड़ देश के नाम” चला।
वैदिक काल से ही भारतीय संस्कृति में प्रकृति संरक्षण को धार्मिक और आध्यात्मिक भावना से जोड़कर देखने की परंपरा है। गोचर और ओरण क्षेत्र, बावड़ी,तालाब,नाडी, नदी, और वृक्षों के पूजन और संरक्षण के साथ परिक्रमा की परंपरा पीढीयों से रही है। संघ की पर्यावरण संरक्षण गतिविधि ने इन वैदिक काल से चली आ रही परंपराओं को पुनर्जीवित करने के लिए जन सहयोग से वातावरण तैयार किया है।
पर्यावरण संरक्षण में प्लास्टिक मुक्त घर और समाज का वातावरण, वृक्षारोपण और जल संरक्षण, भूमिगत जल के स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयास, ग्राम विकास द्वारा शहर की ओर पलायन को रोकना महत्वपूर्ण कार्यक्रम है।
कुटुंब प्रबोधन
हिन्दू संस्कृति सनातन है। सनातन का अर्थ है शाश्वत । अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के अनेकों श्रेष्ठ कारण है। उनमें से एक है, हमारी आदर्श हिन्दू परिवार व्यवस्था। आदर्श हिन्दू घर-परिवार, हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति, जीवन्त संस्कृति बनी रहे, इसका प्रमुख श्रेय आदर्श हिन्दू परिवार पद्धति को हैं। हमारा परिवार देव संस्कृति का वाहक हैं। मानव जीवन के चार चरण (ब्रह्मचार्य गृहस्थ वानप्रस्थ सन्यास) में से गृहस्थ आश्रम को सबसे श्रेष्ठ माना गया हैं। हिन्दू परिवारों में पोते- पोतियों के साथ ज्ञान साझा करना और आदर्श जीवन के संस्कारों के माध्यम से उनका मार्गदर्शन करना तीसरे आश्रम का हिस्सा है। हर किसी से बड़ों के प्रति सम्मान दिखाने की अपेक्षा की जाती है। परंपरागत रूप से कई हिन्दू संयुक्त परिवारों में रहते हैं।
हिन्दू परिवार और हिन्दू दृष्टिकोण की विशेषता है। हर विषय के जड़ तक जाकर विश्लेषण करना हमारी पद्धति है। बाहर के चमक- दमक से ज्यादा सच्चाई को खोजने की दृष्टि है। इसलिए हिन्दू चिंतन सार्वकालिक और सार्वादेशिक है। ईश्वर एक है, नाम अनेक है। प्रकृति मनुष्य की आवश्यकताओं को पूर्ण कर सकती है, लालसा को नहीं। संसार केवल मनुष्य के लिए नहीं है, अपितु सब 84 लाख जीवजंतु के लिए भी हैं। ऐसे सैकड़ों शाश्वत सत्य हिन्दू चिंतन के फल हो गए हैं। हजारों वर्षों से इस समाज की संपत्ति बन गए हैं। इन सत्यों के अनुरूप जिन्होंने अपना जीवन जीया ऐसे संस्कारों और चिंतन को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित किया। इस तरह जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है। वहीं संस्कृति बन जाती है। इस देश में भले ही व्यक्ति अनपढ़ हो, परंतु वह सुसंस्कारित रहा, उसमें संस्कृति का जड़ जम गया था। नतीजा ऐसा हुआ, कि उसका व्यवहार अनुकरणीय रहा बच्चों के लिए बुजुर्ग आदर्श हो गये। परिवार में बुजुर्गों के चिंतन और व्यवहार ही पारिवारिक संस्कार बन गये। इन संस्कारों का परिणाम व्यक्ति-व्यक्ति का जीवन चमकने लगा। “प्राण जाय पर वचन न जाय” अर्थात प्राण जाय मगर धर्म न छोड़े ऐसी दृढ़ता बालकों में भी प्रकट होने लगी।
अपनी हिन्दू संस्कृति में समाज, परिवार एवं व्यक्ति का विकास आपस में पूरक है। अच्छे व्यक्ति से अच्छा परिवार तथा अच्छे परिवारों से ही अच्छा समाज बनता है। परिवार प्रबोधन का अर्थ है परिवार के सदस्य शिक्षा, नैतिकता और पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति सजग हो। परिवार मूल्यवान अनुशासित और आत्मनिर्भर कैसे बने। परिवार राष्ट्र और समाज के विकास में सहभागी बने। इनको सशक्त बनाने के लिए कई व्यवस्थाओं का विकास हुआ है। जिनमें चार पुरुषार्थ, चार आश्रम, सोलह संस्कार प्राचीन काल से हिन्दू संस्कृति का पालन पोषण करते आये हैं। ऐसा लगता है, कि भोगवाद के आज के दिनों में इनका उपयोग कम होता जा रहा है। फिर भी अपने समाज को सुस्थिति में रखने के लिए परिवारों की आवश्यकता है। किंतु आधुनिकता की आंधी में जैसे अन्य समाजों में शिथिलता आयीं हैं। हमारा समाज भी अपवाद नहीं रहा है। इसमें भी कमजोरियां घुस रही है। फिर भी आपसी संबंध और विश्वास सुदृढ़ रहने से आज की अवस्था में भी सिर्फ परिवार समाज के सजीव नस बन सकते हैं। इसके लिए परिवार के सभी सदस्य सप्ताह में एक बार सामूहिक पूजा पाठ, सामूहिक पूजन, तत्कालीन विषयों पर सामूहिक चर्चा करें। यही इतिहास का बोध है। जिसे सजीव रूप से जीना चाहिए।
नागरिक कर्तव्य
विश्व समुदाय में जब मनुष्य और मानव सभ्यता, अपने मनुष्यता और पशुता के मध्य कोई अंतर नहीं कर पा रही थी। मानव सभ्यता के उस कालखंड में भी प्राचीन सनातन भारतीय समाज में कर्तव्य का बहुत महत्व था। सभी संबंधों में कर्तव्य पालन की भावना में महत्ती रही। परिवार से लेकर समाज तक कर्त्तव्यपरायणता यानी पुत्र का पिता के प्रति कर्तव्य, भाई के प्रति कर्तव्य, माता के प्रति कर्तव्य और परिवार के सभी संबंधों के प्रति कर्तव्य। तदुपरांत समाज और सृष्टि के प्रति कृतज्ञता की भावना और उनका विशेष रूप से पालन करना। इसी कर्तव्य पालन की भावना से प्रकृति पूजा निकला है। कर्तव्य पालन की भावना सनातन समाज में प्रत्येक व्यक्ति को बाल्यकाल से परिवार और फिर गुरुकुल में दी जाती थी। प्राचीन सनातन भारतीय समाज में कर्तव्य पालन की गहरी सामाजिक और धार्मिक भावना के कारण ही शायद भारतीय संविधान सभा के सदस्यों ने मूल भारतीय संविधान में नागरिक कर्तव्य को स्थान नहीं दिया होगा। परंतु भारतीय समाज ने वर्षों तक परकीय आक्रमण से सामना किया है। परकीय आक्रमण के इस संघर्ष काल में भारतीय समाज अपनी अनेक मूल विशेषताओं को भूल गया।
वर्तमान समय में देश में नागरिकों के व्यवहार में कर्तव्य पालन की कमी यदा-कदा देखने को मिलती है। आजकल कुछ शरारती तत्व देश में अराजकता का माहौल बनाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। कुछ विदेशी तत्व भी भारतीय समाज को बदनाम करने के उद्देश्य से इसमें लगे हुए हैं। भारतीय नागरिकों का कर्तव्य है कि वे सजग रहे हैं। हमें नैतिक मूल्य और अच्छे संस्कारों को अपनाना चाहिए। नागरिक कर्तव्य एक सामाजिक जिम्मेदारी भी है। समाज में नैतिकता अनुशासन कानून का पालन दुनिया भर के प्रतिष्ठित देशों में भारत अपनी एक अलग पहचान रखता है। भारतीय नागरिक होने के नाते सभी भारतीयों को नागरिक कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी संस्कृति, इतिहास, संघर्ष व अन्य प्रमुख बातों को हृदय में संजोए रखना चाहिए।
भारत की वर्तमान स्थिति को सुधारने और देश की विकास यात्रा तीव्र गति से दीर्घकाल तक चले उसके लिए इन पांच तत्वों का परिष्कृत रूप से उपयोग करना आवश्यक है। सामाजिक समरसता से देश में सहयोग, बंधुत्व की भावना और एकता बनेगी। स्वदेशी भाव जागरण से देश आर्थिक रूप से सशक्त बनेगा, पर्यावरण संरक्षण और संवर्धन से हमारे आने वाले पीढ़ियों का भविष्य सुनहरा और सुरक्षित रहेगा। परिवार प्रबोधन से परिवार इकाई और समाज मजबूत होगा और नागरिक कर्तव्य का पालन एक समर्थ और सशक्त राष्ट्र के निर्माण में सहायक होगा।