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अंबेडकर जयंती पर विशेष- सामाजिक न्याय और राष्ट्रीयता के पूरक डॉ. आंबेडकर

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(दिव्यराष्ट्र के लिए लेखाराम बिश्नोई)

डॉ. भीमराव आंबेडकर का जीवन सहजता की सरल राह नहीं हैं। यह बार-बार तिरस्कार और निरादर की आग की लपटों में जलता हुआ और जगह-जगह प्रशंसा के छींटों से धीर-गंभीर और सौम्य होता ऐसा विराटतम व्यक्तित्व है, जिनका संकल्प विपरीत अनुभूति को सहते-समझते हुए कदम दर कदम बढ़ता जाता है। आंबेडकर को यह दृढ़ता उस समय की परिस्थितियों ने दी है। उनसे घृणा करने वालों ने दी है। स्वयं उस समाज ने दी है जिनका हिस्सा बाबा साहब थे। इस संकल्प का यह अद्भुत पक्ष है की बाबा साहब चोट खाते और हर चोट के साथ सामाजिक एकता के काम में और अधिक जोश से जुट जाते।
डॉ. बाबासाहेब आबेडकर का उल्लेख सामाजिक न्याय के महान योद्धा के रूप में किया जा सकता है। वैसे उनके नाम के साथ अनेक विशेषण लगते हैं। जैसे भारतीय संविधान के शिल्पकार, समता के प्रवर्तक, अस्पृश्यता रूढ़ि के नाशक, धम्मप्रवर्तक आदि। ये सारे विशेषण उनके जीवन के विराट व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करते हैं। बाबा साहब के व्यक्तित्व और कृतित्व के सारे विशेषण के भाव सामाजिक न्याय शब्द में समाहित हैं। अस्पृश्यता की
रुढ़ि अन्याय कारक है। वह समाप्त हो जानी चाहिए। समता के लिए संवैधानिक और सामाजिक व्यवस्था होनी चाहिए। जातिभेद अस्पृश्यता के पीछे धर्म मान्यता खड़ी करना अधर्म है। उसे समाप्त करना चाहिए। ऐसे सारे विषय सामाजिक न्याय शब्द में निहित है। सामाजिक न्याय और राष्ट्रीयता एक दूसरे के पूरक है। इसलिए पूज्य बाबा साहब आंबेडकर आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता के शिल्पकार के रूप में हैं। बाबा साहब मानते थे। कि एक राष्ट्र को खड़ा होने के लिए संस्कृति के साथ-साथ सांस्कृतिक एकता और सामाजिक एकता का भी बहुत बड़ा महत्व है। अगर हम डॉक्टर बाबा साहब के राष्ट्र चिंतन का विश्लेषण करें, तो हिंन्दू समाज पर विचार करना आवश्यक है। इतना ही नहीं हिन्दू समाज में अगर सुधार नहीं हो पाया और आवश्यक परिवर्तन समाज में नहीं हुआ, तो देश कमजोर बना रहेगा। बाबासाहेब को इसका ख्याल था। इसलिए बाबासाहेब हिन्दू समाज में सुधार के लिए निरंतर प्रयास कर रहे थे। आंबेडकर का बृहद चिंतन संविधान में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिलाने के साथ साथ महिलाओं की बराबरी के अधिकारों की वकालत ही करता है। जिसके लिए उन्होंने सन 1951 में संसद में हिन्दू कोड बिल पेश किया। हालाकि जिस दृढ़ता से इस बिल को आंबेडकर ने बतौर कानून मंत्री के रूप में पेश किया। उतनी ही शिद्दत से इसका विरोध भी हुआ। यह बिल पास नहीं हो सका। जिसके कारण डॉक्टर आंबेडकर ने त्यागपत्र दे दिया।
संविधान में हिन्दू को व्याख्या करते समय उन्होंने जो परिभाषा दी है। उसमें वैदिक मत, शैव, वैष्णव, जैन इत्यादि को सम्मिलित कर हिन्दू समाज की व्यापकता का संदेश दिया। बाबासाहेब अखंड भारत के समर्थक थे। उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण का पुरजोर विरोध किया। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक शब्दों के भ्रम को दूर कर सटीक शब्दावली स्थापित करना चाहते थे। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को विदेशी धर्मावलमियों ने अपनी और आकर्षित करने का भरपूर प्रयास किया। परंतु बाबासाहेब का मत था। कि भारतीय मूल से उत्पत्र पंथ और मत में ही रहेंगे। जिन मत और पंथ की आस्था विदेशी धरती के केंद्र हैं। उनमें शामिल होकर मेरी आस्था मां भारती के प्रति कमजोर नहीं करुगा। हिन्दू धर्म की कुरीतियों के विरुद्ध उन्होंने आवाज उठा कर समाज का ध्यानाकर्षण उन कुरीतियों की ओर किया और 6 दिसंबर 1956 को भगवान बुद्ध की शरण में गए।

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