इस्कॉन के स्व घोषित गुरुओं को फैसले से लगा झटका

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इस्कॉन के हुए दो फाड़: सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

नई दिल्ली, दिव्यराष्ट्र/ (उमेन्द्र दाधीच)

देश की सर्वोच्च अदालत ने 25 साल पुराने विवाद पर 16मई 2025 कोअंतिम फैसला सुनाया जिससे इस्कॉन की कार्यप्रणाली और भविष्य में बहुत अधिक बदलाव होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने इस्कॉन बेंगलुरु को बेंगलुरु के प्रसिद्ध हरे कृष्ण मंदिर का स्वामित्व प्रदान कर इस्कॉन मुंबई के इस संपत्ति पर दावे को ख़ारिज कर दिया है। इस ऐतिहासिक फैसले पर इस्कॉन बेंगलुरु के अध्यक्ष और अक्षय पात्र फाउंडेशन के संस्थापक, मधु पंडित दास ने कहा कि, यह विवाद संपत्तियों के स्वामित्व का नहीं था, बल्कि हमारा संघर्ष उन स्व-घोषित गुरुओं के खिलाफ था, जिन्होंने श्रील प्रभुपाद की इच्छा का उल्लंघन किया और प्रभुपाद के लिखित आदेश के विरुद्ध ख़ुद को आध्यात्मिक गुरु घोषित कर दिया। पहले वे ‘ज़ोनल आचार्य’ बने फिर संस्था में पनपे विरोध के दबाव में उन्होंने दर्जनों गुरु बना डाले। इससे इस्कॉन के उद्देश्य और कार्यप्रणाली को धक्का लगा । इस फैसले को उन हजारों भक्तों की जीत हैमाना जारहा है जो श्रील प्रभुपाद को ही इस्कॉन का एकमात्र आचार्य मानते हैं। हम अपनी सारी संपत्तियां इस्कॉन मुंबई के हवाले करने को पहले दिन से तत्पर रहे हैं। हमारी केवल एक ही शर्त है कि इस्कॉन में केवल प्रभुपाद ही आचार्य माने जाएँ बाक़ी उनके आदेशानुसार ‘ऋत्विक’ की भूमिका निभाएँ।

1966 में न्यूयॉर्क में एक गौड़ीय वैष्णव संत श्रील प्रभुपाद द्वारा ‘इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्णा कॉन्शसनेस’ (इस्कॉन), की स्थापना की गई थी। जिसे आज पूरा विश्व ‘हरे कृष्ण आंदोलन’ के नाम से जानता है। इस्कॉन ने विश्व भर में भगवान कृष्ण की भक्ति और वैदिक संस्कृति को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

 

श्रील प्रभुपाद ने 9 जुलाई 1977 को एक लिखित निर्देश जारी किया था, जिसमें उन्होंने दीक्षा (शिष्य दीक्षा) के लिए एक ‘ऋत्विक’ प्रणाली की स्थापना की थी। इसके तहत, उनके द्वारा नियुक्त 11 वरिष्ठ शिष्य (‘ऋत्विक’) नए भक्तों को दीक्षा देने के लिए उनके प्रतिनिधि के रूप में कार्य करेंगे और सभी भावी भक्त केवल श्रील प्रभुपाद के ही शिष्य होंगे। श्रील प्रभुपाद ने स्पष्ट किया था कि वे इस्कॉन के एकमात्र आचार्य बने रहेंगे और उनके बाद कोई भी शिष्य स्वयं को आचार्य या गुरु घोषित नहीं करेगा।

1977 में वृन्दावन में श्रील प्रभुपाद की महासमाधि के बाद, उनके कुछ वरिष्ठ शिष्यों (मुख्य रूप से पश्चिमी) ने उनके निर्देशों की अवहेलना की और स्वयं को उत्तराधिकारी आचार्य घोषित कर लिया। उन्होंने स्वयं दीक्षा देना शुरू किया, भव्य जीवनशैली अपनाई और अपने लिए सम्मानजनक उपाधियाँ और गीत रचवाए, जो श्रील प्रभुपाद की सादगीपूर्ण जीवनशैली के विपरीत था। इस स्व-घोषित गुरु प्रणाली का विरोध करने वाले भक्तों को उत्पीड़न, मंदिरों से निष्कासन, और यहाँ तक कि हिंसा का सामना करना पड़ा। एक चरम मामले में, वर्जीनिया में एक भक्त सुलोचना दास की 1984 में हत्या कर दी गई। अंग्रेज़ी में छपी एक पुस्तक, ‘मंकी ऑन द स्टिक’ में इस हत्या में शामिल इस्कॉन के आज कुछ मशहूर नेतृत्व की ओर खुल कर लिखा गया है।

नवंबर 1998 में, इस्कॉन बेंगलुरु में देश-विदेश के अनेक वरिष्ठ भक्त जमा हुए और उन्होंने ‘इस्कॉन रिफार्म मूवमेंट’ की स्थापना की। जिसका लक्ष्य स्व-घोषित गुरु प्रणाली का विरोध करना था। इस समूह ने श्रील प्रभुपाद को इस्कॉन का एकमात्र आचार्य मानने और ‘ऋत्विक’ प्रणाली का पालन करने का संकल्प लिया। इस रुख के कारण, इस्कॉन मुंबई, जो स्व-घोषित गुरुओं द्वारा नियंत्रित थी, ने इस्कॉन बेंगलुरु के भक्तों को संगठन से निष्कासित करने और उनके मंदिर पर नियंत्रण करने का असफल प्रयास किया। बाद में ‘इस्कॉन रिफार्म मूवमेंट’ की बैठकें कुआलालम्पुर और फ्लोरिडा जैसे शहरों में भी हुई।

बेंगलुरु और मुंबई केंद्रों के बीच संपत्ति विवाद की शुरुआत 2000 में हुई, जब इस्कॉन मुंबई ने बेंगलुरु के हरे कृष्ण हिल मंदिर पर नियंत्रण का कानूनी दावा किया। इस्कॉन बेंगलुरु 1978 में कर्नाटक सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत एक स्वतंत्र संस्था के रूप में पंजीकृत थी, जबकि इस्कॉन मुंबई 1860 के सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट और 1950 के बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट एक्ट के तहत पंजीकृत थी। इस्कॉन मुंबई ने दावा किया कि बेंगलुरु केंद्र केवल उनकी शाखा है और मंदिर की संपत्ति पर उनका अधिकार है।

इस्कॉन की गुरु प्रणाली संगठन के इतिहास में एक विवादास्पद मुद्दा रही है। परंपरागत रूप से, गौड़ीय वैष्णव परंपरा में गुरु को परम आध्यात्मिक अधिकार प्राप्त होता है, जो शास्त्रों और पूर्ववर्ती आचार्यों के अनुसार शिक्षण देता है। भविष्य में अनाधिकृत और अयोग्य लोग स्वयं को गुरु बता कर इस्कॉन के भक्तों को गुमराह न कर सकें इसलिए श्रील प्रभुपाद ने इस्कॉन में ‘ऋत्विक’ प्रणाली लागू की थी ताकि उनकी मृत्यु के बाद भी वे एकमात्र दीक्षा गुरु बने रहें।

1977 के बाद, इस्कॉन की गवर्निंग बॉडी कमीशन (जीबीसी) ने नई गुरु प्रणाली शुरू की, जिसमें वरिष्ठ भक्तों को ‘दीक्षा गुरु’ नियुक्त किया गया। यह प्रणाली ईसाइयों के वेटिकन मॉडल की तरह सहमति और मतदान पर आधारित थी, जिसे उन्होंने ‘लोकतांत्रिक’ कहा। जबकि भारत की सनातन परंपरा में गुरु का पद भगवान के समान माना जाता है और ऐसा पद प्राप्त करने के लिए गहरी साधना और उस संप्रदाय की परंपरा के आचार्य का आदेश सर्वोपरि होता है। अपना प्रचार करके चुनाव में ज़्यादा वोट पा कर गुरु बनना सनातन धर्म के मूल सिद्धांत का भद्दा मज़ाक है। इस्कॉन के लाखों भक्तों को इस तथ्य का पता नहीं है इसलिए वे जीबीसी में होने वाले आंतरिक चुनाव को जीतने वाले लोगों को ही अपना गुरु माने बैठे हैं। उल्लेखनीय है कि इस्कॉन जीबीसी द्वारा बनाए गए ऐसे दर्जनों गुरुओं का पिछले वर्षों में नैतिक पतन हो चुका है और वे संन्यास लेने के बाद फिर से गृहस्थ बन गए हैं। ये भी सन्यास प्रणाली का विद्रूप स्वरूप है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस्कॉन बेंगलुरु के लिए केवल एक कानूनी जीत नहीं है, बल्कि यह श्रील प्रभुपाद की रित्विक प्रणाली और उनकी आध्यात्मिक विरासत को बनाए रखने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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