होलिकोत्सव मनाने के वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक कारण:- एक विश्लेषण

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(दिव्यराष्ट्र के लिए सरोज दाधीच अकोला महाराष्ट्र)

वैदिक काल में होली पर्व को नवात्रेष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होला उत्सव और कालांतर में होलिकोत्सव हो गया। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है।
होली के त्यौहार के समय मौसम में परिवर्तन होता है और वसंत में नया जीवन भी उत्पन्न होता है। पतझड़ में अधिकांश पेड़ पौधे अपनी पत्तियों को त्याग देते हैं। नए पेड़-पौधे खेतों में उगते हैं। अब ऐसे में कचरे और सूखी पत्तियों आदि को जलाने की जरूरत होती है ताकि नए सिरे से काम शुरू किया जा सके।
आयुर्वेद के अनुसार दो ऋतुओं के संक्रमण काल में मानव शरीर रोगों और बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। शिशिर ऋतु में शीत के प्रभाव से शरीर में कफ की अधिकता हो जाती है और बसंत ऋतु में तापमान बढने पर यह कफ शरीर से बाहर निकलने की क्रिया में कफ दोष पैदा होता है, जिसके कारण सर्दी, खांसी, सांस की बीमारियों के साथ ही गंभीर रोग जैसे खसरा, चेचक आदि होते हैं। होलिका पूजन एवं होली की आग सेकना होली की राख को शरीर पर लगाने से इन रोगों से छुटकारा मिलता है। अरण्ड के पेड़ व गाय के गोबर की यह राख यानी भस्म एंटीबैक्टीरियल एंटीफंगल और एंटीवायरल होती है। *यह राख मानव शरीर के समस्त चर्म रोगों को समाप्त करने की शक्ति रखती है। और मानव शरीर के चमड़ी में होने वाले रंध्र (सूक्ष्म छेद) को खोल देती है। इन्हीं रन्ध्रों से हमारी चमड़ी बाहर के ताप और हवामान को ग्रहण करता है और पसीना निकालने के लिए का उपयोग करता है। वर्ष में एक बार इस भस्म को हमारे शरीर में अच्छे से लगा लेने से शरीर के अंदर की नकारात्मक उर्जा भी समाप्त होती है।
पुराने जमाने में जिन चीजों से रंगों को बनाया जाता था जैसे बेल, हल्दी, नीम, चुकंदर, पलाश आदि ये सब शरीर को कूलिंग और हीलिंग इफेक्ट देते हैं और इसलिए भी होली के त्यौहार को एक क्लींजिंग रिचुअल के तौर पर देखा जाता है और ये फैक्ट्स सार्वजनिक हैं। वाकई होली के त्यौहार का साइंटिफिक सेंस देखा जा सकता है।

यह तो हुआ होली मनाने का वैज्ञानिक कारण अब कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों पर भी चिंतन कर लेते हैं।

 

होली हिंदुस्तान की गहरी प्रज्ञा से उपजा हुआ त्योहार है। उसमें पुराण कथा एक आवरण है, जिसमें लपेटकर मनोविज्ञान की घुट्टी पिलाई गई है। सभ्य मनुष्य के मन पर नैतिकता का इतना बोझ होता है कि उसका रेचन (बाहर निकालना) करना जरूरी है, अन्यथा वह पागल हो जाएगा। इसी को ध्यान में रखते हुए होली के नाम पर रेचन की सहूलियत दी गई है।
आज भी महाराष्ट्र, कर्नाटक व गोवा आदि प्रांतों में होली जिसे शिमगा भी कहते हैं। होली की रात में गाँव के लोगो का नाम लेकर गाली बकने का रिवाज है जिसे बोम मारना कहते है।
गाँव के कुछ लोग रात में निकलकर प्रत्येक व्यक्ति के घर के बाहर आकर उसके नाम की बोम मारते है। जो एक तरह गाली ही होती है। सुनने वाला इसे होली का त्यौहार मानकर सह लेता है। इससे उसे भी पता चल जाता है उसकी कौन सी बात समाज को ठीक नहीं लगती जिसे वह सुधारने का प्रयास करता है।
पुराणों में इसके बारे में जो कहानी है, उसकी कई गहरी परतें हैं।
हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद की पुराण कथा में जिस तरफ इशारा है, वह एक तरह से आस्तिक और नास्तिक का संघर्ष-है और वह हमारे दैनंदिन जीवन में रोज होता है, प्रतिपल होता है।
पुराण केवल इतिहास नहीं है, वह मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित सत्य है। इसमें आस्तिकता और नास्तिकता का संघर्ष है, पिता और पुत्र का, कल और आज का, शुभ और अशुभ का संघर्ष है।
होली की कहानी का प्रतीक देखें तो हिरण्यकश्यपु पिता है। पिता बीज है, पुत्र उसी का अंकुर है। हिरण्यकश्यपु जैसी दुष्टात्मा को पता नहीं कि मेरे घर आस्तिक पैदा होगा, मेरे प्राणों से आस्तिकता जन्मेगी। इसका विरोधाभास देखें। इधर नास्तिकता के घर आस्तिकता प्रकट हुई और हिरण्यकश्यपु घबरा गया। जीवन की मान्यताएं, जीवन की धारणाएं दांव पर लग गईं। ओशो ने इस कहानी में छिपे हुए प्रतीक को सुंदरता से खोला है, ‘हर बाप बेटे से लड़ता है। हर बेटा बाप के खिलाफ बगावत करता है। और ऐसा बाप और बेटे का ही सवाल नहीं है – हर ‘आज’ ‘बीते कल’ के खिलाफ बगावत है। वर्तमान अतीत से छुटकारे की चेष्टा करता है।
अतीत पिता है, वर्तमान पुत्र है। हिरण्यकश्यपु राक्षस बाहर नहीं है, न ही प्रहलाद बाहर है। हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद दो नहीं हैं – प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटने वाली दो घटनाएं हैं।
जब तक मन में संदेह है, हिरण्यकश्यपु मौजूद है। तब तक अपने भीतर उठते श्रद्धा के अंकुरों को तुम पहाड़ों से गिराओगे, पत्थरों से दबाओगे, पानी में डुबाओगे, आग में जलाओगे- लेकिन तुम जला न पाओगे। जहां संदेह के राजपथ हैं; वहां भीड़ साथ है। जहां श्रद्धा की पगडंडियां हैं; वहां तुम एकदम अकेले हो जाते हो, एकाकी। संदेह की क्षमता सिर्फ विध्वंस की है, सृजन की नहीं है।
संदेह मिटा सकता है, बना नहीं सकता। संदेह के पास सृजनात्मक ऊर्जा नहीं है।
आस्तिकता और श्रद्धा कितनी ही छोटी क्यों न हो, शक्तिशाली होती है।
प्रह्लाद के भक्ति गीत हिरण्यकश्यपु को बहुत बेचैन करने लगे होंगे। उसे एक बारगी वही सूझा जो सूझता है- नकार, मिटा देने की इच्छा। नास्तिकता विध्वंसात्मक है, उसकी सहोदर है आग।
इसलिए हिरण्यकश्यपु की बहन है अग्नि, होलिका। लेकिन अग्नि सिर्फ अशुभ को जला सकती है, शुद्ध तो उसमें से कुंदन की तरह निखरकर बाहर आता है। इसीलिए आग की गोद में बैठा प्रह्लाद अनजला बच जाता है।
उस परम विजय के दिन को हमने अपनी जीवन शैली में उत्सव की तरह शामिल कर लिया। फिर जन सामान्य ने उसमें रंगों की बौछार जोड़ दी। बड़ा सतरंगी उत्सव है। पहले अग्नि में मन का कचरा जलाओ, उसके बाद प्रेम रंग की बरसात करो। यह होली का मूल स्वरूप था। इसके पीछे मनोविज्ञान है अचेतन मन की सफाई करना।

इस सफाई को पाश्चात्य मनोविज्ञान में कैथार्सिस या रेचन कहते हैं। साइको थेरेपी का अनिवार्य हिस्सा होता है मन में छिपी गंदगी की सफाई। उसके बाद ही भीतर प्रवेश हो सकता है।
जापान में कई कम्पनियों में मजदूरों को स्वस्थ रखने के लिए एक अनोखी विधि का प्रयोग किया जाता है। जिसमे मजदूरों के लिए एक अलग से कमरा बना होता है और उसमे उनके बॉस का पुतला (साफ्ट टॉयज) होता है वहां एक ब्लेक बोर्ड व चाक भी होता है सप्ताह में एक दिन प्रत्येक मजदूर वहां जाकर अपने मन की भड़ास बोर्ड पर लिखकर या उस बॉस के खिलौने को अपना जूता मारकर निकालता है।

होली जैसे वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक पर्व का हम थोड़ी बुद्धिमानी से उपयोग कर सकें तो इस एक दिन में बरसों की सफाई हो सकती है।

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