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गन्धर्वपुरी की सप्ततीर्थी सात प्राचीन प्रतिमाएँ

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(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर)

मध्यप्रदेश के देवास जिलान्तर्गत सोनकच्छ के निकट छोटे से गाँव गन्धर्वपुरी में प्रभूत पुरातत्त्व प्राप्त हुआ है। यहाँ तीन सौ से अधिक प्राचीन प्रतिमाएँ और प्रस्तर प्राप्त हुए हैं। यहां बहुतीर्थी तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी बहु संख्या में हैं। उनमें से सात सप्ततीर्थी तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। उनका परिचय इस प्रकार है-

प्रथम सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा—
सप्ततीर्थी अर्थात् एक ही शिलाफलक में एक साथ सात तीर्थंकरों का शिल्पांकन। अधिकतर बहुतीर्थी प्रतिमाओं में एक मुख्य मूर्ति होती है और उसके परिकर में अन्य तीर्थंकरों को उत्कीर्णित किया जाता है। बलुआ पाषाण की आदमकद इस प्रतिमा का पादपीठ उपलब्ध नहीं है। मूलनायक प्रतिमा के चरणों के समानान्तर चॅवरवाहक द्विभंगासन में खड़े हैं। उनके उपरान्त समानान्तर में ही दोेनों ओर यक्ष-यक्षी हैं। यक्ष बाईं ओर तथा यक्षी दाहिनी ओर उत्कीर्णित है। जबकि यक्ष को दाहिनी ओर और यक्षी को तीर्थंकर के बाम भाग में दर्शाये जाने का विधान है। दोनों चार-चार भुजाओं युक्त पर्यंकासन में हैं। खण्डित होने के कारण इनके आयुध स्पष्ट नहीं हैं, दोनों के आभरण एवं यक्षी के एक हाथ में फल स्पष्ट होता है। फल चौबीस तीर्थंकरों में से 10-11 की यक्षियों के है, इस कारण केवल फल आयुध के आधार पर यह निर्णीत होना कठिन है कि यह किस तीर्थंकर की यक्षी है। अतः तीर्थंकर निर्णीत नहीं हो पा रहे हैं। यक्ष-यक्षी के पीछे को एक-एक स्वतंत्र आकृति है, बायीं ओर स्त्री आकृति और दाएं तरफ पुरुष छवि है। यक्ष-यक्षी के ऊपर के स्थान पर छोटी-छोटी स्वतंत्र चरणचौकियों पर दोनों ओर एक-एक कायोत्सर्ग लघुजिन उत्कीर्णित हैं। उनके ऊपर के भाग में स्तंभ जैसी साज-सज्जा है। इन स्तंभों के ऊपरी भागों में मानस्तंभ की भांति देवकुलिका हैं उनमें एक-एक पद्मासन जिन हैं। इस शिलाकृति के वितान अर्थात् शीर्ष भाग मेें भी दोनों ओर देवकुलिका में ही एक-एक पद्मासन जिन उत्कीर्णित हैं। इस तरह परिकर में छह लघुजिन मूर्तियां हैं।

मुख्य मूर्ति का लिंग व टेहुनी से नीचे दोनों भुजाएं खण्डित हैं। उदर के नीचे त्रिवली है, वक्ष पर श्रीवत्स के किंचित् निशान अवशेष हैं, ग्रीवा-त्रिवली भी है। उष्णीष सहित कुंचित केश हैं। प्रभावल सुन्दर है, प्रभावल के बाह्य परिधि में मोटी कलात्मक बेल जैसी दर्शाई गई है, जिसके दोनों छोर मुख्य प्रतिमा के स्कंधों केे पीछे से निकले हुए मकर-मुखों में समाहित हैं। शिर पर भग्न त्रिछत्र, दुंदुभिवादक, गंधर्व, पुष्पवर्षक देव उत्कीर्णित हैं, जो प्रायः खण्डित हो गये हैं। इस प्रतिमाशिल्प मेें दोनों किनारों पर नीचे से ऊपर तक अतिरिक्त अंकन महत्वपूर्ण है। बायें तरफ सुन्दर आभरण भूषित, उच्च केश-सज्जा युक्त एक स्त्री बैठी हुई दर्शाई गई है। उससे ऊपर के स्थान में एक स्त्री कुछ कम सज्जित खड़ी हुई अंकित है, जो कायोत्सर्ग लघुजिन के समानान्तर है, वहिर्मुख शार्दूल उत्कीर्णित है, पश्चात् एक आराधिका खड़ी हुई है, जो स्तंभ की उपरिम कुलिका में पद्मासनस्थ लघुजिन के समानान्तर है। उपरान्त सबसे ऊपर माल्यधारी देव हैं। इसी तरह की संयोजना दाईं ओर है। अंतर यह है कि इस ओर पुरुष छवियां हैं। इस तरह यह सप्ततीर्थी प्रतिमा खण्डित होने पर भी मनोरम है। इसमें यक्ष-यक्षी का नियम विरुद्ध पार्श्वों में उत्कीर्णन भी इसकी विशेषता है।

द्वितीय सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा—
पाषाणशिला-खण्ड में ही यह प्रतिमा प्रथम सप्ततीर्थी के ही समान है। इसमें अन्तर यह है कि इसके यक्ष-यक्षी नियमानुसार बायें यक्षी और दाहिने यक्ष अंकित है, ये दोनों भी चतुर्भुज हैं। यक्षी के पार्श्व में भी एक यक्षी ही प्रतीत होती है, क्योंकि वह भी पर्यंकासन में और फल लिये हुए दर्शाई गई है। स्तंभ के उपरिम देवकुलिका के लघु जिन के पार्श्व में यहाँ अंजलिबद्ध आराधिका बैठी है। जो जिनाभिमुख है। इस मुख्य प्रतिमा की भुजाएं कुछ अधिक भग्न हैं। शिर पूरी तरह खण्डित है।

तृतीय सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा—
यह प्रतिमा भी प्रथम सप्ततीर्थी के ही समान है। इसका नीचे का भाग टूटा है या जमीन में धँसा हुआ है, इस कारण चरण व यक्ष-यक्षी आदि अदृष्ट हैं। शिर भग्न है, हाथ लगभग प्रथम प्रतिमा के समान टूटे हुए हैं। त्रिछत्र किंचित् भग्न होने से स्पष्ट है।

चतुर्थ सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा- बलुआ* पाषाणशिलाखण्ड में निर्मित यह प्रतिमा तृतीय प्रतिमा के समान है। इसका अधो व ऊर्ध्व भाग खण्डित है। मस्तक तथा दाहिनी ओर का भाग भी भग्न है। शेष संरचना उपरोक्त प्रतिमाओं की भांति ही है।

पंचम सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा—
बलुआ पाषाण में निर्मित कायोत्सर्गस्थ इस प्रतिमा का घुटनों से नीचे का शिला-भाग खण्डित व अनुपलब्ध है। इस कारण पादपीठ और यक्ष-यक्षी की स्थिति बताई नहीं जा सकती है। इसके परिकर में सभी कायोत्सर्गस्थ लघु जिन हैं। बाम पार्श्व में तीन लघु जिन हैं, दायें तरफ भी कम से कम तीन लघु जिन अवश्य होंगे, क्योंकि नीचे की शिला खंडित होने से दो ही लघु जिन दृष्ट हैं। मुख्य मूर्ति की भुजाएं भग्न हैं, वक्ष पर बड़ा सा श्रीवत्स है, केश कुंचित हैं, उष्णीष नहीं है। प्रभावल सामान्य कलात्मक है। इसके प्रभावल के बाह्य भाग में अतिरिक्त अंकन नहीं है। शिरोभाग के दोनों पार्श्वों में माल्यधारी विद्याधर सपत्नीक दर्शाये गये हैं। त्रिछत्र के ऊपर मृदंगवादक और उसके दोनों ओर एक-एक नर्तकी नृत्यमग्न उत्कीर्णित है। इस वितान भाग में दोनों ओर एक-एक गजलक्ष्मी का गज सवारयुक्त उत्कीर्णित है जो भग्न हैं।

षष्ठ सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा—
बलुआ पाषाण में ही उत्कीर्णित यह मूर्ति पद्मासनस्थ है। पादपीठ में सिंहासन के विरुद्धाभिमुख दो सिंह हैं, मध्य में अर्धचन्द्र जैसा प्रतीत हो रहा है। प्रतिमा खुले आकाश में बीसों वर्षों से होने के कारण क्षरित हो गई है, इस कारण निर्मिति की सूक्ष्मता खत्म हो गई है। इस पादपीठ पर दाहिनी ओर यक्ष तथा बाईं ओर यक्षी उत्कीर्णित है। दोनों द्विभुज हैं। सिंहासन पर एक वृत्ताकार चरणचौकी है, उस पर मुख्य तीर्थंकर पद्मासन में आसीन हैं। वृत्ताकार आसन पर पद्मासन मूर्ति की मुड़े हुए पैरों के घुटनों का भाग बाहर निकला रहता है, ऐसे में मूर्तिभंजकों ने दोनों घुटने आसानी से तोड़ दिये होंगे। वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न अभी भी है, शिर पर उष्णीष युक्त कुंचित (घुंघराले) केश दर्शित हैं। कलात्मक प्रभावल के दो बाह्य परिधियां भी कलात्मक हैं। मुख्य प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में स्वतन्त्र आसन पर एक-एक कायोत्सर्ग मुद्रा में लघुजिन हैं, उनके बाह्य में एक एक परिचारक है। बाईं ओर के जिन के पार्श्व में सम्भवतः परिचारिका है। इन दोनों लघु जिनों का मस्तक सर्पफणों से अच्छादित है। मुख्य मूर्ति के शिर के दोनों ओर माल्यधारी देव सपत्नीक दर्शाये गये हैं, उनके समकक्ष कायोत्सर्गासन में एक-एक लघुजिन हैं। इनके उष्णीष युक्त कुंचित केश हैं, सर्पफणाटोप नहीं है। माल्यधारकों के ऊपर के भाग में एक-एक पद्मासन लघु जिन हैं। वितान में पूर्ण मृदंगवादक और उसके दोनों ओर एक-एक नर्तकी नृत्यमग्न उत्कीर्णित है। इस वितान भाग में दोनों ओर एक-एक गजलक्ष्मी का गज अभिषेकातुर उत्कीर्णित है। इसके भी परिकर में छह लघु तीर्थंकर और एक मुख्य मूर्ति होने से सप्ततीर्थी प्रतिमा है।

सप्तम सप्ततीर्थी तीर्थंकर प्रतिमा —
उपरिवर्णित छहों प्रतिमाएँ गंधर्वपुरी के स्थानीय राजकीय संग्रहालय के अधीनस्थ एक खुले वाड़े में परिधिकृत संरक्षित हैं और प्रस्तुत प्रतिमा गंधर्वपुरी के स्थानीय दिगम्बर जैन मंदिर में स्थित है, जिसकी जैन श्रद्धालुओं द्वारा प्रतिदिन आराधना दर्शन किये जाते हैं। यह काले पाषाण में सपरिकर प्रतिमा है। इसके पादपीठ की स्थिति स्पष्ट नहीं है। चामरधारी असाधारण से कुछ पीछे को झुके हुए मानों मूलनायक को ऊपर की ओर देखते हुए चवॅर ढुरा रहे हों। मूलनायक के समानान्तर और चामरवाहकों के बाद एक-एक कायोत्सर्ग लघु तीर्थंकर उत्कीर्णित हैं। इनके पार्श्वों में भी चामरवाहक हैं। इन कायोत्सर्ग जिन के ऊपर के स्थान में एक-एक पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा है और उनके ऊपर भी एक-एक पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा है। इस तरह परिकर में दोनों ओर तीन-तीन प्रतिमाएँ हैं। परिकर की ऊपर की दोनों ओर की लघु प्रतिमाओं के शिर पर सर्पफणावलियाँ हैं। मुख्य मूर्ति के मस्तक के दोनों ओर एक-एक माल्यधारी उड्डीयमान देव है। वितान में त्रिछत्र, तदोपरि दुंदुभिवादक उत्कीर्णित किया गया है। इसमें यक्ष-यक्षी नहीं दर्शाये गये हैं।

इस तरह गंधर्वपुरी में बहुतीर्थी प्रतिमाओं में सात ऐसीं प्रतिमाएँ हैं जिनके परिकर में अन्य छह लघु तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी हैं। इनमें अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं- 1. परिकर में दोनों ओर स्तंभ या मानसतंभ के समान अंकन किया जाना, जिसमें अधोभाग में यक्ष अथवा यक्षी, मध्य भाग में कायोत्सर्ग तीर्थंकर और उपरिम भाग में देवकुलिका में पद्मासन तीर्थंकर का निरूपण। 2. एक साथ दो-दो यक्ष-यक्षी का अंकन और 3. नियम व परंपरा के विरुद्ध तीर्थंकर के दायें तरफ यक्षी तथा बायें तरफ यक्षी का दर्शाया जाना।

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