भारतीय संस्कृति की आत्मा है संस्कार

0

 

(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ गोविन्द पारीक अतिरिक्त निदेशक जनसंपर्क सेनि)

भारतीय संस्कृति की आत्मा में यदि किसी तत्व की प्रमुख भूमिका है, तो वह है “संस्कार”। संस्कार न केवल धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान हैं, बल्कि वे व्यक्ति के जीवन की आंतरिक शुद्धि, मानसिक उन्नति और आत्मिक जागरण के माध्यम हैं। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति में सकारात्मक गुणों का विकास होता है, और उसे एक श्रेष्ठ नागरिक तथा संवेदनशील मनुष्य के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किया जाता है।

संस्कार का शाब्दिक अर्थ है: शुद्ध करना, पवित्र करना। यह शुद्धि केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी होती है। संस्कारों के द्वारा व्यक्ति के भीतर छिपी मानवीय गरिमा को जाग्रत किया जाता है। ईमानदारी, सहानुभूति, नम्रता, और कर्तव्यपरायणता जैसे गुण संस्कारों के माध्यम से ही पुष्पित-पल्लवित होते हैं।

सामाजिक और आध्यात्मिक आधार

संस्कार व्यक्ति और समाज के बीच सेतु का कार्य करते हैं। वे व्यक्ति को सामाजिक जीवन में सामंजस्य, अनुशासन और मर्यादा के साथ जीने की प्रेरणा देते हैं। साथ ही, वे आत्मा के विकास की दिशा में भी मार्गदर्शन करते हैं। जीवन की प्रत्येक अवस्था में संस्कारों की उपस्थिति व्यक्ति को एक संतुलित दृष्टिकोण प्रदान करती है।

संस्कारों की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में गर्भाधान, विवाह, और अंत्येष्टि जैसे संस्कारों का वर्णन मिलता है। धर्मशास्त्रों और स्मृतियों में इनके विविध प्रकारों का उल्लेख हुआ है। गौतम धर्मसूत्र संस्कारों की संख्या 40 बताता है, जबकि मनु और याज्ञवल्क्य ने 13 प्रमुख संस्कारों का उल्लेख किया है। आज स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित सोलह संस्कार प्रचलित माने जाते हैं।

अन्तर्गर्भ संस्कार: जीवन की शुरुआत की पवित्रता

गर्भधारण से पहले और गर्भकाल के दौरान किए गए संस्कार—गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन—”अन्तर्गर्भ संस्कार” कहलाते हैं। इनका उद्देश्य शारीरिक और मानसिक शुद्धि के साथ-साथ भावी संतान के व्यक्तित्व की नींव रखना है। गर्भाधान पूर्व शुचिता से लेकर पुंसवन में मानसिक विकास तक और सीमन्तोन्नयन में गर्भिणी की सुरक्षा तक—ये सभी संस्कार भावी पीढ़ी को श्रेष्ठ गुणों से युक्त बनाने का माध्यम हैं।

बहिर्गर्भ संस्कार: नवजीवन की दिशा

शिशु के जन्म के बाद उसके जीवन में संस्कारों की एक शृंखला प्रारंभ होती है: जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म और विद्यारंभ। इन संस्कारों का उद्देश्य न केवल शरीर और मन की देखभाल है, बल्कि चेतना को सामाजिक वातावरण से जोड़ना भी है। जैसे निष्क्रमण में सूर्य-चंद्रमा का दर्शन कराना, या अन्नप्राशन में प्रथम अन्न का पवित्रता से ग्रहण, ये सभी एक गहरी सांस्कृतिक संवेदना से ओत-प्रोत हैं।

ज्ञान संस्कार: शिक्षा और विवेक की दिशा

कर्णवेध, यज्ञोपवीत, केशांत और समावर्तन जैसे संस्कार बालक के बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख करते हैं। यज्ञोपवीत संस्कार द्वारा बालक को द्विज बनने का अवसर मिलता है—वह दूसरा जन्म जिसे ज्ञान और अनुशासन से प्राप्त किया जाता है। समावर्तन संस्कार, शिक्षा की पूर्णता का प्रतीक है, जिसमें शिष्य गुरुकुल से विद्या लेकर सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है।

विवाह और जीवन की पूर्णता

विवाह संस्कार मानव जीवन का अत्यंत महत्वपूर्ण मोड़ होता है, जहाँ दो व्यक्तियों का मिलन केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक, सामाजिक और धार्मिक दायित्वों से जुड़ जाता है। वैदिक साहित्य में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख है, जिनमें ब्रह्म विवाह को सर्वोत्तम माना गया है। विवाह व्यक्ति को परिवार और समाज के प्रति उत्तरदायित्व की भावना से जोड़ता है। यह केवल एक सामाजिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि समाज को सुसंस्कृत, संगठित और नैतिक रूप से समृद्ध करने का उपक्रम है।

अंत्येष्टि: जीवन चक्र की पूर्णता

अंत्येष्टि संस्कार मृत्यु के पश्चात आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से किया जाने वाला पवित्र कृत्य है। इसे आत्मा के अंतिम संस्कार के रूप में देखा जाता है, जिसमें मृतक की वासनाओं को शांत करने और जीवित जनों को पुनः सांसारिक जीवन में लौटने की प्रेरणा दी जाती है। यह संस्कार मृत्यु को भी एक पवित्र यात्रा के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

आधुनिक जीवन में संस्कारों की प्रासंगिकता

आज जबकि भौतिकतावाद और आत्मकेन्द्रित सोच का बोलबाला है, संस्कार हमें आत्मविश्लेषण, सामाजिक उत्तरदायित्व और नैतिकता की याद दिलाते हैं। ये केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि आत्मा के साथ संवाद करने की प्रक्रिया हैं। संस्कार व्यक्ति को समाज की मर्यादा में रहकर, आत्मविकास की राह पर ले जाते हैं।

संस्कार जीवन की नैतिक संरचना का आधार हैं। ये व्यक्ति को केवल सामाजिक व्यवस्था में ढालते ही नहीं, बल्कि आत्मबोध, कर्तव्य और धर्म की चेतना से युक्त करते हैं। व्यक्ति का जीवन जब संस्कारों से आलोकित होता है, तब वह स्वयं के साथ-साथ समाज के लिए भी आदर्श बनता है। भारतीय संस्कृति की निरंतरता और समृद्धि का रहस्य भी इन्हीं संस्कारों में छिपा है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने जीवन के प्रत्येक चरण के लिए संस्कार निर्धारित किए, ताकि मनुष्य अपने अस्तित्व को केवल जीवित रखने की नहीं, बल्कि सार्थक बनाने की दिशा में अग्रसर हो।

*(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ गोविन्द पारीक
अतिरिक्त निदेशक जनसंपर्क सेनि)**

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Exit mobile version