(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ अतुल कोठारी, राष्ट्रीय सचिव,शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास)
भारत में कुंभ मेले की प्राचीन परम्परा रही है। कुंभ मेला का आयोजन कब से प्रारम्भ हुआ यह कहना थोड़ा कठिन है,लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसकी एक सुदीर्घ और समृद्ध परंपरा रही है।वर्तमान में, प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ विश्व का सबसे बड़ा आध्यात्मिक मेला है, जिसमें लगभग पचास करोड़ लोगों के आने की संभावना है।जब आधुनिक संचार माध्यम जैसे टीवी., रेडियो, समाचार-पत्र, इंटरनेट आदि माध्यमों का कोई अस्तित्व भी नहीं था ,तब भी निश्चित वर्ष और तिथि पर देशभर से लाखों लोग कुंभ में सहभागी होने पहुंचते थे। यह भारतीय जन- समाज की धार्मिक श्रद्धा आध्यात्मिक दृष्टि एवं राष्ट्रीय एकात्मता का परिचायक है। कुंभ में जाकर स्नान करना, साधु-संतों का दर्शन करके आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन प्राप्त करना यह सहज प्रवृत्ति अपने देश में रही है। परंतु, आदि शंकराचार्य जी ने दृष्टि दी कि कुंभ जैसे धर्मिक, आध्यात्मिक आयोजनों में ज्ञान पर चर्चा व विचार-विमर्श होना चाहिए। इस प्रकार के आयोजनों में साधु – संत, महात्मा इकठ्ठे होकर विचार-मंथन करते हुए देश के नागरिकों को धर्मिक, आध्यात्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से मार्गदर्शन करते थे और समाज के चरित्र व नैतिक मूल्यों को सुदृढ़ करने हेतु पथ – प्रदर्शित करते थे।कुंभ मेला सिर्फ एक आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से एकत्रीकरण मात्र नहीं था,अपितु प्रत्येक बारह वर्षों के उपरांत समाज और राष्ट्र की प्रगति को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए नियमों – संहिताओं के पुनर्गठन और पुनर्विचार कर युगानुरूप नूतन नियमन का एक सामूहिक आयोजन भी होता था और यहां ज्ञान – विमर्श से नवीन ज्ञान का सृजन भी होता था।
इसी प्रकार ,ज्ञान महाकुंभ में देश के शिक्षा – जगत के लोग एकत्रित होकर भारतीय ज्ञान परम्परा को आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप भारतीय शिक्षा की पुर्नस्थापना हेतु देश के शिक्षा- क्षेत्र को दिशा देने का कार्य कर सकते हैं? इसी लक्ष्य को लेकर ज्ञान महाकुंभ का आयोजन शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के द्वारा किया जा रहा है। जिस प्रकार देश के चार पवित्र स्थानों (हरिद्वार,प्रयाग,उज्जैन और नासिक )पर कुंभ का आयोजन होता है, उसी प्रारूप पर ज्ञान महाकुंभ के पूर्व देश की चारों दिशाओं हरिद्वार, नालंदा, पुडुचेरी एवं कर्णावती(अहमदाबाद) में ज्ञानकुंभ का सफल आयोजन किया गया। भारत में शिक्षा अर्थात ज्ञान प्राप्ति को कभी व्यापार, व्यवसाय नहीं माना गया बल्कि सेवा भाव से ज्ञान देने का माध्यम माना गया। इस ज्ञान महाकुंभ में शिक्षा से प्रत्यक्ष जुड़े सैकड़ों लोगों ने तन, मन एवं धन का
योगदान करके इस ज्ञान महाकुंभ को सफल बनाने में अपना योगदान किया है। दुर्भाग्य से, स्वतंत्र भारत में शिक्षा में सुधार और परिवर्तन यह विषय कुछ अपवादों को छोड़कर मात्र भाषण या बौद्धिक – विमर्श का विषय बना। किसी भी क्षेत्र में परिवर्तन की आकांक्षा और अपेक्षा रखने वालों को इसकी शुरूआत स्वयं से करनी चाहिए होती है ,यही भारतीय परम्परा रही है, तभी वास्तविक परिवर्तन की दिशा में कदम आगे बढ़ाए जा सकते है। महात्मा गांधी, पंडित मदनमोहन मालवीय, गिजुभाई आदि ने शिक्षा में परिवर्तन के इसी प्रकार प्रयास किए थे। उन महापुरूषों से प्रेरणा पाकर इस विषय को सबसे पहले शिक्षा क्षेत्र के लोगों में एवं आगे जाकर जन – सामान्य का यह एक आन्दोलन बने , यह ज्ञान महाकुंभ की आधारभूत संकल्पना है।
यह आनंद की बात है कि आज देश ने सूचना – प्रौद्योगिकी, स्पेस टेक्नोलॉजी आदि अनेक क्षेत्रों में भौतिक प्रगति की ओर प्रयास करते हुए विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बना है। परंतु, विकास का यह एक आयाम है। परंतु पर्यावरण, नैतिक मूल्यों व चारित्रिक संकट आदि से आज भी हम जूझ रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप देश में जातिवाद, भाषावाद, महिला-पुरुष, छुआछात आदि के भेद के साथ-साथ महिला उत्पीड़न, हिंसा, साम्प्रदायिक तनाव आदि समस्याओं की भी चुनौती हमारे सामने है, जिस पर विजय प्राप्त करना शेष है। अर्थात ,भौतिक विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास, दोनों के संतुलित समन्वय से ही उपरोक्त समस्याओं के समाधन एवं विश्व गुरु की दिशा में कदम बढ़ाए जा सकते हैं। इस प्रकार से देश के संतुलित एवं समग्र विकास का आधार ज्ञान प्राप्ति से ही संभव हो सकता है। ज्ञान प्राप्ति का सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा है। शिक्षा किसी भी देश के विकास की नींव होती है।
प्रयागराज महाकुंभ में आयोजित ‘ज्ञान महाकुंभ’ इसी दिशा की एक पहल है। भगवद्गीता में कहा गया है कि ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान कोई पवित्र चीज नहीं है।
इस दिशा में कदम बढ़ाने का छोटा स्वरूप कुंभ है। कुंभ में देश और दुनिया के लाखों-करोड़ों लोग एक साथ स्नान करते हैं। साधु-संतों और सामाजिक संस्थाओं के शिविरों में एक साथ प्रसाद,भोजन इत्यादि ग्रहण करते हैं ,तब सतह पर दिखाई देने वाली देश की समस्याओं का वहां अस्तित्व नहीं दिखाई देता। यही व्यवहारिक आध्यात्मिकता का परिचायक है। साथ ही, कुंभ के कारण उस क्षेत्र में तथा वहां के लोगों का आर्थिक विकास भी होता हुआ दिखाई देता है। प्रयागराज के त्रिवेणी संगम पर आयोजित महाकुंभ में इस भौतिकता व आध्यात्मिकता का समन्वय हम साक्षात देख सकते हैं व अनुभव कर सकते हैं। ज्ञान महाकुंभ के आयोजन से भारतीयता की पुनर्स्थापना के द्वारा देश के समन्वित एवं समग्र विकास का माध्यम और क्या हो सकता है? इस दृष्टि को लेकर करोड़ों लोग गंगा में डुबकी लगाकर पवित्र- स्नान करने के साथ-साथ शिक्षा जगत के लोग ज्ञान महाकुंभ में सम्मिलित होकर ज्ञान की गंगा में डुबकी लगाकर देश की शिक्षा के पुनरुत्थान का संकल्प करके अपने-अपने शैक्षिक संस्थाओं में सब मिलकर स्थानीय से लेकर राष्ट्रव्यापी अभियान को आगे बढ़ाएं, यही ज्ञान महाकुंभ के आयोजन की भविष्य की दिशा है।