(दिव्यराष्ट्र के लिए सुनील शर्मा, जयपुर)
ऋग्वेद के सबसे प्राचीन हिस्सों में इसके दूसरे मंडल का शुमार होता है, जिसके दृष्टा ऋषि गृहत्समद शौनक और उनके परिवारजन हैं। इस मंडल के तेईसवें सूक्त के पहले मंत्र: “ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।” को हम हर पूजा, अनुष्ठान या यज्ञ में सुनते हैं। हमारी लगभग हर पूजा चार हज़ार साल पुराने इसी मंत्र से शुरू होती है। मगर क्या आप जानते हैं कि इस मंत्र के देवता, यानी जिनकी उपासना में यह लिखा गया है, वो गणेश नहीं बल्कि “ब्रह्मणस्पति” हैं? अगर आपको यकीन न हो तो इस मंत्र सहित इसी सूक्त के शेष सोलह मंत्रों को पढ़कर देख लीजिए।
यास्क (सातवीं ईसापूर्व), जिनके द्वारा रचित निरुक्त के कारण हम उन्हें वर्तमान में उपलब्ध वेदों के प्रथम शब्दव्याख्याकार कह सकते हैं, इस मंत्र और सूक्त के देवता ब्रह्मणस्पति की व्यत्पुत्ति ‘ब्रह्मणस् + पति:’ करते हैं। यानी ‘ब्रह्मणस्’ (मंत्र, स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ) का पति (स्वामी)। वे इसका अर्थ न तो गणेश करते हैं, न ही गजानन की ओर कोई संकेत करते हैं। जाहिर है, यास्क के युग तक वक्रतुण्ड विनायक एक स्वतंत्र देवता के रूप में स्थापित नहीं हुए थे। किंतु महाभारत का रचनाकाल आते-आते गणेश भारतीय देवमंडल में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लेते है।
अब प्रश्न यह है कि वैदिक ब्रह्मणस्पति, जो ज्ञान, बुद्धि, मंत्र, यज्ञ, प्रार्थना और गण यानी समूह का अधिष्ठाता देवता था, वह पौराणिक युग आते-आते कैसे गणेश-विनायक-विघ्नहर्ता-वक्रतुंड-एकदंत-गजानन बन गए? साथ ही, जो गणेश प्रारंभिक कथाओं में विघ्नकर्ता थे, वे कैसे विघ्नहर्ता बन गए? देवमण्डल का यह क्रमिक विकास हिंदू धर्म के विकास की दिलचस्प कहानी है।
दसराज्ञ युद्ध के पश्चात सुदास के नेतृत्व में विजेता भरतों ने एक अद्भुत परम्परा शुरू की। इस ख़ूबसूरत भारतीय परंपरा की विशेषता इस बात में निहित थी कि विजेता, पराजित जनों के देवमंडल को भी अपने देवमण्डल में स्थान दे दिया करते थे। शायद कॉन्फ्लिक्ट रेजोल्यूशन का इससे बेहतर कोई परमानेंट तरीका हो भी नहीं सकता था। यह शेष दुनिया से बिल्कुल मुख़्तलिफ़ था, जहाँ पराजित को विजेता का धर्म स्वीकारने के लिए ताक़त से मज़बूर किया जाता था; जो आज तक ‘क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन’ की बुनियाद बना हुआ है। दूसरी ओर, भारत में जब पराजित और सांस्कृतिक प्रभाव में आए जनों के देवमंडल और लोकदेवताओं को विजेताओं के देवमण्डल में शामिल किया गया, उनकी पूजा पद्धतियों को भी स्वीकार कर लिया गया तो इन नवागत देवताओं और उनसे संबद्ध पूजा प्रणालियों, कथानकों को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए नई शैली के धर्मग्रंथों का प्रणयन किया गया। यह विशद साहित्य आज हमें पुराणों के रूप में मिलता है।
इसी भारतीय परम्परा के चलते वैदिक देवमंडल लगातार परिवर्तित होते हुए पौराणिक युग आते-आते इतना परिवर्तित हो गया कि वेदों में उल्लिखित अधिकांश देवता नेपथ्य में चले गए और पुराणों में हमें एक विशाल देवमंडल और नई पूजा पद्धतियों के दर्शन होते हैं, जो पुराने वैदिक देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किए जाने वाले यज्ञों से बिल्कुल भिन्न है।
हर नई देवी या देवता को किसी न किसी पुराने वैदिक देवता से जोड़ दिया गया, ये जुड़ाव अवतार, पिता, पुत्र, पति या पत्नी किसी भी संबंध द्वारा स्थापित किया गया। यहाँ तक कि वैदिक सूक्तों का संबंध भी इन नए देवताओं से स्थापित कर, उनके लिए वेद प्रमाण्य साक्ष्य उपलब्ध करा, वैधानिकता प्रदान की गई।
अब चलिए एक बार पुनः गणपति या गणेश की ओर चलते हैं, जिन्हें प्रारंभ में शिव (जिन्हें स्वयं वैदिक रुद्र से जोड़कर पौराणिक देवमण्डल में सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया गया था) के पुत्र के रूप में जोड़ा गया। कालांतर में, गणेश को भी सर्वोच्च शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए मुद्गल पुराण और गणेश पुराण की रचना की गई। इसी दौर में गाणपत्य संप्रदाय भी अस्तित्व में आया, जो सम्भवतया शुरू में शैवों से ही निकलकर बना था, किंतु धीरे-धीरे शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों परंपराओं में गणेश पूज्य होकर ईसा की पहली सदी आते-आते प्रथम आराध्य बन चुके थे। ४१० ईस्वी में निर्मित उदयगिरी की छठीं गुफा, पाँचवीं सदी के भूमरा के गुप्तकालीन मंदिर का गणेश पैनल और अफ़गानिस्तान में गदरेज़ के गणेश जी आघुनिक गणेश जी की आइक्नोग्राफ़ी, जिसमें उनका सिर हाथी का दिखता जाता है, के शुरुआती नमूने है। गुप्तकाल की तो हजारों गणेश विग्रह आज दुनियाभर के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। कालांतर में गणेश इंडोनेशिया, कंबोडिया, चीन और जापान तक जा पहुँचे।
गणेश का प्रभाव अब वेदव्याख्याकारों पर भी पड़ने लगा। तभी तो आठवीं सदी के स्कंधस्वामी अपनी प्रसिद्ध ऋग्वेदार्थदीपिका में ब्रह्मणस्पति यानी बृहस्पति को ही गणपति या गणेश बताते हैं। स्पष्ट है, इस युग के आगमन तक गणेश भारतीय देवमंडल में पूर्णतया स्थापित हो चुके थे और वेद मंत्रों से उनका संबंध स्थापित करके, उन्हें धार्मिक वैधता भी प्रदान की जाने लगी थी। चौदहवीं सदी के वेद व्याख्याकार सायनाचार्य का अभिमत भी इस विषय में वही है, जो स्कंधस्वामी का है।
सच पूछा जाए तो ब्रह्मणस्पति से गणेश तक का सफर हिंदू धर्म की गतिशीलता, लचीलेपन और सहनशीलता का जीवंत दस्तावेज है। यह एक ऐसी सनातन परंपरा की कहानी है जो नवीनता से भयभीत नहीं होती, बल्कि उसे आत्मसात कर लेती है। यह परंपरा विरोधाभासों में सामंजस्य बिठाती है – विघ्नकर्ता को विघ्नहर्ता बना देती है, वैदिक अमूर्तता को पौराणिक मूर्त रूप देती है, और लोक मान्यताओं को वैदिक प्रतिष्ठा प्रदान करती है।
आज जब हम ‘ॐ गणानां त्वा…’ मंत्र का उच्चारण करते हैं, तो हम केवल गणेश की ही नहीं, बल्कि पाँच हज़ार वर्षों के एक सतत, जीवंत सांस्कृतिक विकास की ध्वनि सुनते हैं। यह मंत्र अब केवल एक स्तुति नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता की उस अद्भुत क्षमता का मंत्र है जो विविधताओं को एक सूत्र में पिरोकर एक नया, सार्थक और सुंदर रूप दे देती है। ब्रह्मणस्पति का ज्ञान और गणेश की लोकप्रियता इसी एक सूत्र के दो छोर हैं, जो इस परंपरा की महानता को प्रमाणित करते हैं।