(दिव्यराष्ट्र के लिए अजय कुमार,लखनऊ)
झारखंड की धरती का वो सूरज, जिसने आदिवासी समाज को शोषण, सूदखोरी और अन्याय के अंधेरे से निकालकर स्वाभिमान और सम्मान की रोशनी दिखाई, आज सदा के लिए अस्त हो गया। दिशोम गुरु शिबू सोरेन, जिन्हें झारखंड का पथ प्रदर्शक कहा जाता था, ने 4 अगस्त 2025 को सुबह दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में अंतिम सांस ली। 81 वर्ष की आयु में उनके निधन ने न केवल झारखंड, बल्कि पूरे देश को एक ऐसी शख्सियत से वंचित कर दिया, जिसने जंगलों से लेकर संसद तक आदिवासियों के हक की लड़ाई लड़ी। शिबू सोरेन एक नेता से कहीं अधिक थे वे एक क्रांति थे, जिन्होंने महाजनों, जमींदारों और शोषक व्यवस्था के खिलाफ उलगुलान की हुंकार भरी। उनकी मशाल ने लाखों आदिवासियों को नई राह दिखाई, और उनकी डुगडुगी की गूंज आज भी झारखंड की माटी में गूंजती है।
11 जनवरी 1944 को रामगढ़ जिले के नेमरा गांव में एक साधारण आदिवासी परिवार में जन्मे शिबू सोरेन का जीवन संघर्ष और समर्पण की गाथा है। उनके पिता सोबरन सोरेन एक शिक्षक और गांधीवादी विचारों के व्यक्ति थे, जो उस दौर में महाजनों के आतंक के खिलाफ आवाज उठाते थे। उस समय झारखंड में आदिवासियों को कर्ज के जाल में फंसाकर उनकी जमीनें हड़प ली जाती थीं। मेहनत का फल महाजन छीन लेते थे, और आदिवासी समाज गरीबी और शोषण का शिकार था। 27 नवंबर 1957 को सोबरन सोरेन की हत्या ने शिबू के जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। पढ़ाई छोड़कर उन्होंने शोषण के खिलाफ बगावत का रास्ता चुना। युवा शिबू ने आदिवासी युवाओं को संगठित करना शुरू किया, और यहीं से दिशोम गुरु की यात्रा शुरू हुई, जिसने झारखंड के इतिहास को नया मोड़ दिया।
1970 के दशक में शिबू सोरेन ने धनकटनी आंदोलन की शुरुआत की, जो झारखंड के आदिवासी आंदोलन का स्वर्णिम अध्याय बन गया। इस आंदोलन में आदिवासी युवा तीर-कमान लेकर खेतों की रखवाली करते, और महिलाएं हंसिया लेकर महाजनों की फसल काट लेती थीं। मांदर की थाप पर मुनादी के साथ यह आंदोलन रामगढ़, बोकारो, हजारीबाग, गिरिडीह, दुमका, टुंडी, पलमा, तोपचांची और बेरमो जैसे इलाकों में फैल गया। शिबू ने एक नैतिक मर्यादा तय की यह लड़ाई केवल खेतों तक सीमित रहेगी, न महाजनों की महिलाओं को निशाना बनाया जाएगा, न उनकी अन्य संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाएगा। इस अनुशासन ने उनके आंदोलन को न केवल मजबूती दी, बल्कि आदिवासियों में आत्मविश्वास और एकता का संचार किया। धनकटनी आंदोलन ने शिबू सोरेन को आदिवासियों का नायक बना दिया, जो शोषण और सूदखोरी से मुक्ति का प्रतीक बन गए।
4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन ने बिनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की स्थापना की। यह संगठन बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी से प्रेरित था, जिसने 1971 में स्वतंत्रता हासिल की थी। झामुमो का लक्ष्य था झारखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाना और आदिवासी समाज को सामाजिक-आर्थिक न्याय प्रदान करना। इस संगठन ने न केवल आदिवासियों को एकजुट किया, बल्कि उनकी आवाज को राष्ट्रीय पटल पर बुलंद किया। शिबू की अगुवाई में झामुमो ने झारखंड आंदोलन को नई दिशा दी, और 2000 में झारखंड के गठन में इसकी ऐतिहासिक भूमिका रही। आज झामुमो झारखंड की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है, जो शिबू के सपनों को जीवित रखती है।
शिबू सोरेन का जीवन आसान नहीं था। पारसनाथ के घने जंगलों में भटकते हुए, पुलिस की गोलियों से बचते हुए, उन्होंने रातें पेड़ों की छांव में गुजारीं। 1975 में आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया। धनबाद के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर केबी सक्सेना ने उन्हें सरेंडर के लिए राजी किया। 1976 में धनबाद जेल में बंद शिबू ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय दिया। एक महिला कैदी के छठ गीत सुनकर वे भावुक हो गए और जेल में छठ पूजा का आयोजन करवाया। कैदियों ने एक समय का भोजन त्यागकर इसका खर्च जुटाया, और महिला ने पारंपरिक आस्था के साथ पूजा की। यह घटना उनकी मानवीयता और नेतृत्व क्षमता का प्रतीक है।एक अन्य घटना में, पलमा के जंगल में रात के समय पुलिस ने उन्हें घेर लिया। डुगडुगी की आवाज पर आदिवासियों का हुजूम इकट्ठा हो गया, और पुलिस को पीछे हटना पड़ा। यह था शिबू सोरेन का जनता के साथ अटूट रिश्ता। उनकी डुगडुगी एक संकेत थी, जो आदिवासियों को एकजुट करने की ताकत रखती थी।
शिबू सोरेन सामाजिक न्याय और महिला सम्मान के प्रति बेहद सजग थे। एक बार दुमका से धनबाद लौटते वक्त, छेड़खानी के एक मामले को सुनकर उन्होंने रास्ते में गाड़ी रुकवाई और गांव में कचहरी लगाकर त्वरित न्याय सुनिश्चित किया। शराब के खिलाफ उनकी सख्ती भी उल्लेखनीय थी। एक बार अपने चाचा के शराब पीने पर वे इतने नाराज हुए कि उन्हें पीटने पर उतारू हो गए। उनकी यह नैतिकता और अनुशासन उन्हें एक अलग पहचान देता था। वे न केवल आदिवासियों के नेता थे, बल्कि सामाजिक मूल्यों के रक्षक भी थे।
शिबू सोरेन का राजनीतिक सफर उतार-चढ़ाव से भरा रहा। 1980 में वे पहली बार दुमका से लोकसभा सांसद बने। 1989, 1991 और 1996 में भी वे लोकसभा पहुंचे। 2002 में वे राज्यसभा सांसद बने, और उसी साल दुमका से लोकसभा उपचुनाव जीता। वे तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे 2005 में 10 दिन के लिए, 2008-09 और 2009-10 में। केंद्र में कोयला मंत्री के रूप में भी उन्होंने अपनी छाप छोड़ी। उनकी राजनीति विवादों से भी घिरी रही, लेकिन आदिवासियों के प्रति उनकी निष्ठा कभी कम नहीं हुई। उनकी विरासत उनके बेटे और वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने संभाली है, जिनके नेतृत्व में झामुमो झारखंड की सबसे बड़ी पार्टी बनी।
शिबू सोरेन के निधन की खबर ने पूरे देश को झकझोर दिया। उनके बेटे हेमंत सोरेन ने भावुक होकर कहा, “आज मैं शून्य हो गया हूँ। मेरे पिता दिशोम गुरु झारखंड के सपनों का प्रतीक थे।” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा, “शिबू सोरेन जी का निधन देश के लिए अपूरणीय क्षति है। उनका योगदान आदिवासी सशक्तिकरण और झारखंड आंदोलन में हमेशा याद रखा जाएगा।” कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, “दिशोम गुरु ने शोषितों की आवाज बुलंद की। उनकी कमी कभी पूरी नहीं होगी।” झारखंड के विभिन्न हिस्सों में लोग सड़कों पर उतरे, मांदर की थाप पर शोक गीत गाए गए, और उनके सम्मान में श्रद्धांजलि सभाएँ आयोजित की गईं। सोशल मीडिया पर आम जनता, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं ने उन्हें याद किया। एक यूजर ने लिखा, “शिबू सोरेन ने हमें सिखाया कि हिम्मत और एकता से कोई भी जंग जीती जा सकती है।”
शिबू सोरेन का निधन झारखंड के लिए एक युग का अंत है। लेकिन उनकी मशाल, जो उन्होंने आदिवासियों के हक के लिए जलाई, कभी नहीं बुझेगी। धनकटनी आंदोलन से लेकर झामुमो के गठन और अलग झारखंड के सपने को साकार करने तक, उनका हर कदम एक प्रेरणा है। उनकी डुगडुगी की गूंज और मांदर की थाप झारखंड की माटी में हमेशा गूंजती रहेगी। उनकी विरासत न केवल हेमंत सोरेन, बल्कि हर उस व्यक्ति में जीवित है, जो अन्याय के खिलाफ लड़ने का साहस रखता है।दिशोम गुरु की सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके सपनों का झारखंड शोषणमुक्त, सशक्त और समृद्ध साकार हो। शिबू सोरेन ने न केवल झारखंड को एक नई पहचान दी, बल्कि लाखों आदिवासियों को जीने का हौसला दिया। उनकी लड़ाई, उनका साहस और उनका समर्पण हमेशा प्रेरणा देता रहेगा।