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जैन मुनि आचार्य गुप्तिनंदी महाराज बाल्यकाल से ही बैरागी

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जयपुर, दिव्यराष्ट्र/ आचार्यश्री गुप्तिनंदीजी गुरुदेव जन्म मध्यप्रदेश की राजधानी झीलों की नगरी भोपाल में 1 अगस्त 1972 को हुआ। माता त्रिवेणीदेवी और पिता कोमलचंद जैन के एक बालक का जन्म हुआ उनका बचपन का नाम राजेंद्र था। उनके गृहस्थ जीवन में बड़े और छोटे दो भाई और दो बहने थी। गुरुदेव के माता पिता बड़े ही धर्मात्मा थे, प्रतिदिन मंदिर जाते थे। सभी बच्चों को भी हर दिन मंदिर और पाठशाला में भेजते थे। उनके घर गुरुओं की सेवा, वैय्यवृत्ति, आहारदान आदि होता था।
गुरुदेव जब छोटे थे तब भोपाल में आचार्यश्री सन्मतिसागरजी क्षुल्लक अवस्था में आएं थे, घर पर क्षुल्लकजी आहार आहार हुआ था। गुरुदेव के बड़े भाई क्षुल्लकजी का कमंडल लेकर घर के बाहर खड़े थे। उनसे गुरुदेव ने बोला भैय्या आपने तो आहार दिया हैं, आप कमंडल मुझे दे दो। उन्होंने कमंडल देने से मना कर दिया। गुरुदेव ने कहा कोई बात नहीं आप कमंडल ले लो। मैं क्षुल्लकजी की पिच्छी ले लेता हूं। गुरुदेव ने ऐसा बोलकर खिड़की में रखी हुई पिच्छी को बाहर से उठा लिया और गली से बाहर आ गए।
क्षुल्लकजी का आहार हो गया, उनको पिच्छी देने का समय आया तो वहां पिच्छी नहीं दिखाई दी, सभी लोग अंदर ही अंदर पिच्छी ढूंढ रहे थे। बाहर से गुरुदेव के बड़े भाई ने आवाज दी। क्षुल्लकजी की पिच्छी तो राजेंद्र के पास हैं। तब बड़े मुश्किल से राजेंद्र को समझाकर पिच्छी ली और क्षुल्लकजी को दी गई। क्षुल्लकजी ने कहा ये आगे जाकर बहुत बड़ा संत बनेगा। उस समय गुरुदेव बारह साल के थे तब आप क्षुल्लकजी के साथ में बैरागढ़ तक गए थे। लेकिन गुरुदेव के पिता उनको समझा कर पुन: घर लेकर आ गए।
उसके बाद बाल्यावस्था से गुरुदेव भगवान का अभिषेक पूजा करने को जिन मंदिर जाने लगे, जिन भक्ति में आपकी विशेष रुचि प्रगट हुई। दशलक्षण पर्व के समय भजन कविता मंदिर में बोलते थे। हर कार्यक्रम में भाग लेते थे और पुरस्कार प्राप्त करते थे। साथ में एनसीसी ने सैनिक छात्र बनकर युद्धाभ्यास किया। गुरुदेव ने महाविद्यालयीन पढ़ाई की हैं। 17 साल की उम्र में आपको पुन: आचार्य कल्प विद्याभूषण श्री सन्मति सागरजी के दर्शन हुए।
उस वर्ष विद्याभूषण आचार्यश्री सन्मतिसागरजी का भोपाल में चातुर्मास संपन्न हुआ। पूरे चातुर्मास में आप एक बार भी उनके दर्शन करने नहीं गए। चातुर्मास के अंत में जब गुरुदेव के घर पर चौका लगा, तब गुरुदेव ने आचार्यश्री का पडगाहन किया। गुरुदेव प्रसन्न हुए। गुरुदेव ने भक्ति से चरण प्रक्षालन पूजन किया, आचार्यश्री का आहार शुरू हुआ। लेकिन किसी के हाथ में नेलपालिश देखकर आचार्यश्री ने अंतराय कर दिया। गुरुदेव को बहुत दुख हुआ। सभी घरवाले उस दिन बहुत दुखी हुए। उस दिन आप आचार्यश्री का कमंडल लेकर उन्हें छोड़ने गए तो फिर घर वापस नहीं आए। आपकी दृढ़ता देख माता पिता ने बड़े दु:खी मन से आपको विदाई दी। आपने गृह त्याग के साथ ही दो प्रतिमा के व्रत ग्रहण कर लिए। 5 माह तक आचार्यश्री के साथ ब्रह्मचारी बनकर विहार किया।
एक दिन आपकी पढ़ने की जिज्ञासा को देखते हुए विद्याभूषण आचार्यश्री सन्मतिसागरजी ने आपको गणधराचार्यश्री कुंथुसागरजी के संघ में भेज दिया। उनका आशीर्वाद लेकर गुरुदेव सोनागिर सिद्धक्षेत्र पर आचार्यश्री विमलसागरजी के दर्शन के लिए आए, उनसे आशीर्वाद मांगा। आचार्य भगवन् बोले मैं तुझे क्या आशीर्वाद दूं ? जा तेरी बहुत जल्दी दीक्षा होगी। उनका आशीर्वाद, उनकी वाणी को ध्यान में रखते हुए गुरुदेव आचार्यश्री कुंथुसागरजी गुरुदेव के पास चांदनी चौक दिल्ली में आएं। संघ का प्रेम वात्सल्य देखकर अति प्रसन्न हुए। गुरुदेव ने आचार्यश्री कनकनंदीजी गुरुदेव की बहुत सेवा की। उनकी प्रेरणा से हर दिन गणधराचार्य कुंथुसागरजी गुरुदेव को मुनि दीक्षा के लिए हरा श्रीफल चढ़ाते थे। गुरुदेव ने ब्रह्मचारी राजेंद्र को पूर्व परिचय पूछा, फिर ब्रह्मचारी राजेंद्र से कहा क्षुल्लक बन जाओ पहली बार ऐसा बोले। दूसरी बार ऐलक दीक्षा के लिए बोला, आपकी प्रबल भावना और विनय देखकर अंत में वे मुनि दीक्षा देने को तैयार हो गए। द्वय आचार्यों के आशीर्वाद से ब्रह्मचारी राजेंद्र को सात दिन के अंदर ही मुनि दीक्षा लेने का सौभाग्य प्राप्त हो गया।
रोहतक नगर हरियाणा में आचार्यश्री कुंथुसागरजी गुरुदेव के करकमलों से 22 जुलाई 1981 को मुनि दीक्षा प्राप्त हुई और ब्रह्मचारी राजेंद्र से मुनि गुप्तिनंदी बन गए। फिर विद्यार्जन हेतु मुनिराज को आचार्यश्री कनकनंदीजी गुरुदेव के पास आठ साल तक पढ़ते रहे।
गुरुदेव की प्रभावना को देखते हुए मुनिराज के दीक्षा गुरु ने 28 वर्ष की उम्र में आचार्य पद का पत्र 13 अक्टूबर 2000 को धनतेरस के शुभ मुहूर्त में भेज दिया। चतुर्विध संघ और पद्मश्री बाबूलाल पाटोदी आदि भक्तों के आग्रह पर 27 मई 2001 को श्रुतपँचमी रविपुष्यामृत योग के शुभ मुहूर्त में इंदौर के गोम्मटगिरी क्षेत्र पर दो आचार्यों आचार्यश्री सीमंधरसागरजी, आचार्यश्री शांतिसागरजी, उपाध्याय निजानंदसागरजी, मुनि कविंद्रनंदीजी, मुनि कुलपुत्रनंदीजी,आर्यिकाश्री क्षमाश्री, आर्यिका कुन्दश्री, आर्यिकाश्री आस्थाश्री आदि चतुर्विध संघ की उपस्थिति में आचार्य पदारोहण हुआ।आचार्य श्री ने अपने34वर्ष के संयमी जीवन में हजारों किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए हजारों युवाओं को निर्व्यसनी बनाया है।अहिंसा शाकाहार का प्रचार प्रसार किया है।अनेकों लोकप्रिय साहित्य का निर्माण कार्य है।हजारों गौवंश आदि मूक पशुओं की रक्षा की है।अनेकों तीर्थों मंदिरों का जीर्णोद्धार व नवनिर्माण कराया है और आज भी निरंतर प्राणी मात्र में जीवदया, देशभक्ति आदि की अलख जगा रहे हैं।वर्तमान में आपकी प्रेरणा से नासिक महाराष्ट्र में प्राचीन तीर्थ अंजनगिरी का जीर्णोद्धार व विशाल धर्मतीर्थ क्षेत्र का नवनिर्माण कार्य चल रहा है।जहाँ धर्मतीर्थ गौशाला में सैकड़ों गौवंश की रक्षा परिपालन हो रहा है।

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