विध्वंस किये गए स्मारक के गौरव की हो पुनर्स्थापना
(डॉ गोविन्द पारीक)
प्राचीन संस्कृत महाविद्यालय व सरस्वती मंदिर और जैन मंदिरों का विध्वंस कर उनके खंडहर पर खड़ा अढाई दिन का झोंपड़ा स्वयं अपनी दुर्दशा से व्यथित प्रतीत हो रहा है। मूल रूप से इस स्थल पर ज्ञान और बुद्धि की देवी सरस्वती को समर्पित विशालकाय संस्कृत सरस्वती महाविद्यालय में संस्कृत में सभी विषय पढ़ाए जाते थे।
महाराजा विग्रहराज चतुर्थ एवं बीसलदेव द्वारा बनाये गये इस भवन के पश्चिम दिशा में माँ सरस्वती का मंदिर था। विशेषज्ञों का मानना है कि मूल भवन का निर्माण 1153 के आसपास हुआ था। हालाँकि, कुछ स्थानीय जैन किंवदंतियों का कहना है कि इसे सेठ वीरमदेव द्वारा 660 ई में एक जैन तीर्थ के रूप में बनाया गया था और पंच कल्याणक माना जाता था। इस स्थल में जैन और हिंदू दोनों स्थापत्य कला के तत्व मौजूद हैं।
मुहम्मद गोरी ने 1192 ई. में महाराजा पृथ्वीराज चौहान को हराकर अजमेर पर अधिकार करने के बाद अपने गुलाम कुतुब-उद-दीन-ऐबक को शहर में मंदिरों को नष्ट करने का आदेश दिया। ऐबक ने आदेशानुसार 60 घंटे में मंदिर स्थल पर एक नमाज स्थल का निर्माण कर दिया, अतः इसे अढाई दिन का झोंपड़ा कहा जाता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार सीता राम गोयल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू टेंपल: व्हाट हैपन्ड टू देम’ में उल्लेख किया कि अढाई दिन का झोंपड़ा, हिंदू मंदिरों की सामग्री का उपयोग करके बनाया गया था।
कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “एनल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान में राजस्थान के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं का उल्लेख किया है। इसमें उन्होंने “ढाई दिन का झोंपड़ा” के बारे में भी चर्चा की है। कर्नल टॉड ने इसे एक अद्वितीय और महत्वपूर्ण स्थापत्य नमूना बताया। उन्होंने लिखा कि यह स्थान मूल रूप से एक हिंदू मंदिर था जिसे बाद में मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने मस्जिद में परिवर्तित किया। किंवदंतियों के अनुसार इसे “अढ़ाई दिन का झोंपड़ा” इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसे बनाने या परिवर्तित करने का काम महज ढाई दिन में पूरा किया गया था।
कर्नल टॉड ने इसकी वास्तुकला की भव्यता और हिंदू व मुस्लिम शैली के समावेश की प्रशंसा की। उन्होंने इसे भारतीय स्थापत्य कला और इस्लामी वास्तुकला का मेल बताते हुए राजस्थान के ऐतिहासिक धरोहरों में महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने लिखा कि इमारत में हिंदू एवं जैन मंदिर के अनेक प्रमाण मौजूद है। उनके अनुसार इसके निर्माण में लगभग 25-30 हिंदू एवं जैन मंदिरों के खंडहरों का इस्तेमाल किया गया।
कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ आए साहित्यकारों और इतिहासकारों ने अजमेर के “ढाई दिन के झोंपड़े” के बारे में अपने दृष्टिकोण से विवरण लिखा है।कुतुबुद्दीन ऐबक के दरबार के इतिहासकार हसन निजामी ने अपनी पुस्तक “ताज-उल-मआसिर” में अजमेर की विजय और इस संरचना के निर्माण का उल्लेख किया है।उन्होंने इसे हिंदू मंदिर के स्थान पर बनाई गई एक मस्जिद बताया और लिखा कि यह स्थल इस्लामी वास्तुकला का प्रतीक बन गया। निजामी ने लिखा कि इस स्थल को “जामा मस्जिद” का स्वरूप दिया गया और इसे इस्लामी आधिपत्य का प्रतीक बनाया गया।
इसी प्रकार मिन्हाज-उस-सिराज ने अपनी पुस्तक “तबकात-ए-नासिरी” में “अढ़ाई दिन का झोंपड़ा” का उल्लेख किया है।उन्होंने इसे एक हिंदू मंदिर के स्थान पर बनाई गई संरचना के रूप में वर्णित किया। उनके अनुसार इसे महज ढाई दिनों में मस्जिद के रूप में परिवर्तित किया गया।
इस्लामी लेखकों ने इसे इस्लामी विजय का प्रतीक और धार्मिक रूपांतरण का एक उदाहरण बताया।इन लेखकों ने मंदिर की पूर्व की हिंदू-जैन वास्तुकला के आधार पर इसकी सुंदरता और जटिल नक्काशी की भी प्रशंसा की।
इस खंडहरनुमा इमारत में 7 मेहराब एवं 70 खंबे बने हैं। इनके साथ ही छत पर भी शानदार कारीगिरी की गई है। स्थानीय नागरिकों के अनुसार 1990 के दशक तक इस स्थल पर अनेक प्राचीन मूर्तियाँ बिखरी हुई थीं। एएसआई ने उन्हें संरक्षित करने के लिए एक सुरक्षित स्थान पर शिफ्ट कर दिया। दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्राचीन संस्कृत महाविद्यालय और हिंदू एवं जैन मंदिर होना स्पष्ट होने के बावजूद साइट पर लगे एएसआई बोर्ड पर इसे कुतुबदीन द्वारा निर्मित मस्जिद और अजमेर का सबसे पुराना स्मारक बताया गया है।
पुरातत्व विभाग द्वारा इस ऐतिहासिक स्मारक की दुर्दशा को गंभीरता से लेकर इसे सरंक्षित करने के प्रयासों की सख्त आवश्यकता है। टिकिट लगाकर यहां नियमित रूप से जमा होने वाली अनावश्यक भीड़ को नियंत्रित करने की महती आवश्यकता है। इसके साथ ही क्षेत्र को अतिक्रमण से मुक्त करवाकर प्राचीन भारतीय संस्कृति के विध्वंस किये गए इस स्मारक के गौरव की पुनर्स्थापना की जा सकती है।