(शीला रजक संस्थापिका ,रेप्युटेशन क्राफ्टर्स जनसंपर्क एजेंसी )
आज की दुनिया में जब हम ‘टेक्नोलॉजी’ शब्द सुनते हैं, तो सबसे पहले कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) का ख्याल आता है। मशीनें जो सोचती हैं, निर्णय लेती हैं, यहाँ तक कि कला रचती हैं – यह सब आधुनिक विज्ञान की चमत्कारी उपलब्धियाँ मानी जाती हैं। परंतु एक गहरे स्तर पर विचार करें, तो क्या यह सब वास्तव में नई तकनीक है? क्या यह वास्तव में “बुद्धिमत्ता” है? या फिर यह केवल पुरानी, गहरी, और सार्थक मानव बुद्धिमत्ता की छाया मात्र है?
वास्तविक तकनीक वह है, जो मनुष्य को जीवन के गूढ़ रहस्यों से जोड़ती है। हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता में ऐसी ही तकनीकों का भंडार था – जिनमें योग, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, खगोल विद्या, और ध्यान जैसे गूढ़ विज्ञान शामिल थे हमारे प्राचीन ग्रंथों, योगशास्त्रों और विज्ञान परंपराओं में यह बुद्धिमत्ता हजारों वर्षों से निहित है – और यही प्राचीन बुद्धिमत्ता ही वास्तव में तकनीक है।
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् – जहां सम्पूर्ण ब्रह्मांड एक कुटुंब की भांति हो।
यह सोच केवल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से नहीं आ सकती। इसके लिए भावनाओं, करुणा, ध्यान और आत्म-चिंतन की आवश्यकता है। प्राचीन बुद्धिमत्ता यही सिखाती है – तकनीक केवल यंत्र नहीं, एक दर्शन है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बनाम प्राचीन ज्ञान*
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का आधार है डेटा – जो कुछ भी हम उसे “सिखाते” हैं, वह उसी के आधार पर निर्णय लेता है। परंतु भारत की प्राचीन विद्या – जैसे वेद, आयुर्वेद, वास्तुशास्त्र, योग और ध्यान – अनुभव और अंतर्ज्ञान पर आधारित है। ये ज्ञान परंपराएँ केवल गणनाओं और एल्गोरिद्म की मोहताज नहीं थीं; इनमें आत्म-ज्ञान, ब्रह्मांड के नियमों की समझ और चेतना के स्तरों का वैज्ञानिक विश्लेषण था।
उदाहरण के लिए, आज का न्यूरोसाइंस ध्यान और प्राणायाम के प्रभावों को सिद्ध कर रहा है, पर हमारे ऋषियों ने यह सहस्त्रों वर्ष पहले अनुभव और साधना के बल पर जाना था। क्या यह किसी मशीन से उत्पन्न किया गया “ज्ञान” हो सकता है? नहीं। यह उस गहन मानव चेतना की उपज है, जिसे हम आज भूल चुके हैं।
वास्तविक कहानी – डॉ. जगदीश चंद्र बसु की खोज
1901 की बात है। जब पश्चिमी दुनिया में विज्ञान अभी भी यह मानती थी कि पौधों में कोई संवेदना नहीं होती, उस समय भारत के वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधे भी दर्द महसूस करते हैं, प्रतिक्रियाएँ देते हैं और चेतन होते हैं।
डॉ. बसु ने एक उपकरण “क्रेस्कोग्राफ” का निर्माण किया, जो पौधों की प्रतिक्रियाओं को माप सकता था। उन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि पौधे आवाज़, स्पर्श, प्रकाश और रसायनों पर प्रतिक्रिया देते हैं – ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य या जानवर।
पश्चिमी वैज्ञानिक इस बात को स्वीकारने में हिचक रहे थे, क्योंकि यह उनकी सीमित वैज्ञानिक परिभाषाओं से परे था। परंतु भारत की परंपरा में, वनस्पति को सजीव और पूजनीय माना गया है – तुलसी, पीपल, वटवृक्ष का पूजन यही दर्शाता है।
डॉ. बसु की यह खोज केवल एक वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि एक सेतु थी – आधुनिक विज्ञान और प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण के बीच।
प्राचीन ज्ञान* भविष्य का मार्गदर्शन
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उद्देश्य है – गति, सुविधा, और निर्णय की क्षमता को बढ़ाना। परंतु इसका बड़ा जोखिम यह है कि यह मानवता से उसकी भावनात्मक और आध्यात्मिक जड़ों को दूर कर रहा है। हम हर चीज़ के लिए मशीनों पर निर्भर होते जा रहे हैं – सोचने से लेकर निर्णय लेने तक।इसके विपरीत, प्राचीन भारतीय तकनीक मनुष्य को स्वतंत्र बनाती थी। योग से लेकर आयुर्वेद तक, हर तकनीक आत्मनिर्भरता और चेतना की गहराई को केंद्र में रखती थी। यह तकनीक भीतर की ओर यात्रा कराने वाली थी – बाहर की ओर भागने वाली नहीं।
योग*: शरीर और मस्तिष्क को संतुलित कर जीवन की ऊर्जा को नियंत्रित करने की कला।
अस्तांग आयुर्वेद*: केवल शरीर नहीं, मन और आत्मा की चिकित्सा।
ज्योतिष: केवल भविष्यवाणी नहीं, बल्कि ग्रहों और उनके ऊर्जा प्रभावों को समझने की विद्या।
इन सभी को यदि सही दृष्टिकोण और विज्ञान सम्मत ढंग से समझा जाए, तो एआई के युग में भी वे कहीं अधिक गहराई और स्थायित्व प्रदान कर सकते हैं।