(डा.सीमा दाधीच) देश में 5सितंबर को भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डा.राधाकृष्णन के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप मे मनाया जाता है। हमारे देश में शिक्षक का स्थान सर्वोच्च सम्मानीय और पूजनीय माना गया है लेकिन समय के साथ साथ गुण दोषों के कारण शिक्षक के प्रति आदर के भाव में कुछ कमी आने लगी है जिसे समय रहते सुधारने की आवश्यकता है।हमारे देश में पौराणिक काल में आश्रम शिक्षा का प्रचलन था क्योंकि उस समय के शिक्षक जिन्हें ऋषि, मुनि, आचार्य के रूप मे जाना जाता था ईश्वर की तपस्या और हवन पूजा पाठ में अधिक समय व्यतीत करते थे इसलिए राजा महाराजा भी अपने बच्चों को शिक्षा के लिए आश्रम में ही भेजते थे ।श्री राम ,लक्ष्मण ,भरत, शत्रुघ्न ने भी आश्रम में रहकर ही शिक्षा अर्जित की । द्वापर युग में श्री कृष्ण ने उज्जैन के सांदीपनि आश्रम में अपनी शिक्षा को ग्रहण की उस समय शिक्षक (गुरू)व शिष्य का रिश्ता पिता पुत्र की भांति होता था जो ज्ञान के साथ सर्वांगीण विकास में सहायक होते थे। उस समय वर्ण वार शिक्षा का प्रचलन था द्रोणाचार्य ने इसके चलते ही एकलव्य को अपना शिष्य नहीं बनाया। शिक्षक की भूमिका में सावित्रीबाई फूले का नाम भी अग्रणी है जो उस समय के पिछड़े वर्ग में जन्म लेकर महिला शिक्षिका बन दलित वर्ग मे शिक्षा की ज्योति जगाई और महिला शिक्षा पर जोर दिया एवम कई जगह स्कूल बनवाएं । ऋषि परंपरा के समय गुरु वशिष्ट, गुरु विश्वामित्र, गौतम, भारद्वाज शिक्षक के रूप में विख्यात हुए उनके निर्देशन से राम ने भी मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि बनाई ।ऋषि शिक्षक के साथ गुरु के रूप में पूजे जाते थे उन्हें वेद ,शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र और देवताओं के वरदान से कई कलाओं में पपारंगत थे ,गुरु अपने परम प्रिय शिष्य को विशेष विद्या सीखाते थे ।
धीरे-धीरे विद्यालय व्यवस्था व शिक्षा पर सभी का अधिकार माना गया हमारे संविधान में भी शिक्षा का अधिकार मूलभूत अधिकार के रूप में लिया गया।
वर्तमान युग में शिक्षक भूमिका सीमित हो गई आजकल प्रत्येक क्षेत्र के पारंगत व्यक्ति शिक्षक की भूमिका निभाते हैं ।खेल जगत का प्रशिक्षण हो, पाक कला , चिकित्सा, आयुर्वेद, यूनानी, फैशन, अलग-अलग विषय वार शिक्षकों से ज्ञान प्राप्त होता है । अब शिक्षण कार्य मे व्यवसायिकता के प्रवेश से गुरू शब्द लुप्त होकर टीचर या सर होगया जो गुरु शिष्य के भाव से दूर होगया।
शिक्षक ऎसा होता है जैसे शीतल नीर,
प्यास बुझा दे ज्ञान की, हर ले सारी पीर।
वर्तमान समय में प्रत्येक क्षेत्र में कौशल पूर्ण व्यक्ति ही शिक्षक की भूमिका निभा रहे हैं परंतु आज के युग में जो डिजिटिलेशन का युग है इस युग में बच्चों को पौराणिक गुरुओं की तरह बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए प्रयासरत रहना चाहिए बालक इस युग में दिशा से भटक रहा है वह अवसाद जैसी अवस्था में आ जाता है हमारे अनुभवी शिक्षकों को कहीं ना कहीं पिता पुत्र और पिता पुत्री जैसे संबंधों को स्थापित कर उन्हें समझाने की आवश्यकता है । छोटी सी असफलता के बाद बच्चा आत्महत्या करने पर विवश हो रहा है उसे मजबूत बनाने का काम भी शिक्षक का ही है।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय,जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय*
आज के युग में बालिका शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है लेकिन चिंता का विषय यह है कि पिता समान शिक्षक ही उनके साथ घिनौना कृत्य कर जाते हैं ऐसी घटनाएं हमें कई जगह देखने को मिलती है आज भी पौराणिक गुरुओं से सीख लेते हुए हमारे आचरण से चरित्र को उत्तम बनाते हुए शिक्षक की भूमिका को निभाते हुए हमें देश के विकास में योगदान करना चाहिए तभी हम पूर्ण रूप से डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती के उपलक्ष्य में मनाना तभी हमारे लिए सार्थक होगा।
यह केवल पंक्ति नही बल्कि चरित्रार्थ करना अब शिक्षक के लिए चुनौती बनता जा रहा है ,”गुरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताय,”