Home Blog राजी …….. : दर्द में उजास

राजी …….. : दर्द में उजास

78 views
0
Google search engine

✍️नवीन कुमार आनन्दकर

दिनभर कूदती- फांदती, मुंडेरों पर बैठकर तारे गिनती। गुड्डे-गुड़ियों की कहानी बुनती, चंदा में मामा को ढूंढती। कुल जमा अव्वल दर्जे की मस्तीखोर। वो मोहल्ला भी ऐसा था कि घर से घर सटे हुए थे। एक से दूसरे में जाने के लिए दीवार ही फलांगती थी। नाम किसी का मालूम रखने की जरूरत ही न थी। कोई काका का घर था। कोई मौसी का। कोई भूरा भैया का। एक तबेला भी था गुड्डन चाची का। थोड़ी दूर पर खेत थे। उन पर लगा ट्यूबवेल और गाय-भैंस के पानी पीने के लिए बनी हौदी हमारा स्विमिंग पूल थी। नीटू, रानी, सायरा, छीतर, लच्छू, साजिद और भी बहुत, खूब धमा चौकड़ी मचती थी। उस वक्त सर्कस भी खूब लगा करते थे। उनमें तब शेर, हाथी, भालू के करतब भी दिखाए जाते थे। तब भी सर्कस ही आया हुआ था। लाउडस्पीकर पर रिक्शा जोर-जोर से बता रहा था। जापानी कलाकारों के कारनामे, बंदर का साइकिल चलाना। सब बच्चे चाहते थे सर्कस देखना, अब मैं भी बच्ची ही तो थी। मां की मनुहार करने लगी तो मां ने बाबा के आने पर बताने को कहा। थोड़ा उदास थी, दालान में जाकर बैठ गई। और सच कहूं तो थोड़ी देर में सब भूल भी चुकी थी। फिर खेलने में मस्त हो गई। एक 11 साल की बच्ची कितनी देर एक जिद पर टिकी रहती है। भैय्या इस नकुल को देख रहे हो मेरा बेटा है 9 साल का, ये हर आधे घंटे में कोई नई फरमाइश लाता है, फिर भूल जाता है।

देखो क्या बता रही थी कहां पहुंच गई। सच कहूं तो नकुल के बाद से ही बीते घावों की चुभन भूल पाई हूं। हां तो खेलते हुए बच्चों के बीच ही वो आया था, मुझसे पूछा-लाली सर्कस देखेगी। अब मैं जिस परिवेश में पली-बड़ी सबको अपना ही पाया था। वो आदमी भी तो अक्सर दिखता था गांव में, सुनते थे ट्रेक्टर किराए पर और नगद उधार पर देता है। हां तो बाल स्वभाववश मैंने भी हां कर दी और निकल पड़ी उसके साथ। वही ट्यूबवेल की हौद के आगे की तरफ खड्ड-सा था। मुझे किसी चिड़िया-सा उसने दबोच रखा था। पहले-पहल तो कुछ समझ न आया, सच कहूं तो डर के मारे रो रही थी। इसके बाद एक भयानक सा दर्द उभरा और….और फिर मुझे कुछ भी याद नहीं।

उधर मोहल्ले में किसी को कुछ पता ही न था। मां तो वैसे भी आदी थी, मेरे घंटों गायब रहने की। उसने सोचा खेल रही होगी। मां को क्या पता था कि मेरी किस्मत मेरे साथ क्या खेल रही थी। वो रूक्मा दीदी ने मां से मेरे बारे में न पूछा होता, तो शाम तक मेरी खोज-खबर ही न होती, और शायद मैं भी अब न होती। खैर सारी जगह पूछताछ के बाद भी मेरा ठिकाना न पाकर मां ने हल्ला किया, तो गांव वाले इधर-उधर दौड़े। मैं दिखी रघु को, वो भी कुछ खास बड़ा न था। बेचारा बदहवास-सा भागता घर पंहुचा। तब तक बाबा घर आ चुके थे। वो दालान में ही काकी….काकी कहता हांफ रहा था कि बाबा ने हाथ पोंछते हुए रघु से पूछ लिया। क्या हुआ रे तेरी धौंकनी तो रेलगाड़ी-सी भाग रही है, कोई प्रेत देख लिया क्या। रघु के गले से अटके से शब्द निकले .. काकी वो खड्ड में छोरी…। क्या! मां उधर दौड़ी, मां के पीछे गांव दौड़ा। इसके बाद मेरी आंख खुली तो अस्पताल में थी। दर्द था, पर उससे कहीं ज्यादा डर था। मुझे घेरे खड़े थे सब, इनमें तीन लोग अजनबी थे। एक सफेद कपड़े पहने डाक्टर, एक नर्स और एक खाकी वर्दी में पुलिस कांस्टेबल, जो मुझे ध्यान से देख रही था। मां तो बस रो रही थी। बाबा चुप थे, आंखें लाल-लाल सुजी हुई सी, जैसे किसी को ढूंढ कर मार देना चाह रहे हो। फिर चार-पांच दिन बाद बयान हुए, मेरे, मां और आस-पास के लोगों के। इन्हीं से पता पड़ा था कि मेरी पसंदीदा गुलाबी नेट वाली फ्राक फट चुकी है। अच्छा बयान में क्या…. ये सुनकर चुप्पी-सी छा गई। मानो उसके जेहन में कोई फ्लेशबैक-सा आ गया। वो नाखून चबाने लगी।
मैंने कुछ सहज करने के लिए बात का रूख बदलते हुए कहा, अच्छा भगवान को मानती हो। उसने तपाक से कहा, मत पूछिए मैं भगवान, खुदा, मसीह किसको मानती हूं। ये बता दूंगी तो मेरी कहानी लोग हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई की बेटी की नजर से पढेंगे। आप बयान की पूछ रहे थे, तो वो वही थे कि चिड़िया का कौनसा पंख सबसे पहले नोचा गया। उस वक्त तो….तो… कुछ पता था नहीं तो, फर्क नहीं पड़ा। आज ये वैसा ही था, जैसा कुत्ता काटने से हुए घाव के भीतर डालकर इंजेक्शन लगा देना। अच्छा मैं कह भी दूंगी पर आप सुन न पाओगे। भूल पर पछताते हुए अअ…अच्छा अच्छा रहने दो मैंने कहा।

वो कहने लगी कि कोई दो-चार महीने बाद मैं ठीक हो गई। और फिर आंगन में जाने लगी, पर मुझे क्या पता था कि सब-कुछ बदल गया है। कोई मेरे साथ खेलने नहीं आता था। वो जो मेरी पक्की सहेली थी, उसकी मां उसे रोक लेती थी। एक दिन मुझसे बात करते क्या देखा, बेचारी को बहुत मारा। मैं भी खूब रोई। पहले नवरात्रि आते थे, तो गली की सभी लड़कियों के साथ मैं भी घर-घर जाती थी। बड़ा मजा आता था। पांव भी धुलवाओ, फिर खाना खाकर पैसे, फल और गिफ्ट भी लो। ईद पर साजिद के अब्बू से ईदी लेकर रहती और कोने पर जो गुरूद्वारा था, उसमें लंगर भी, ये जो बड़ा दिन आता है न, हम भी मायरा के साथ मोमबती जलाते थे। पर फि….र सबको बुलाया जाता, मुझे नहीं।
पहले जन्माष्टमी की झांकी में मैं भी बैठती थी। मुझे राधा बनना भाता था पर कोई बनाता न था, वो नंदनी का रंग गोरा और बाल लम्बे थे न! तो मेरे हिस्से में गोपी का कैरेक्टर ही आता था। हादसे के बाद वो भी बंद हो गया। एक फर्क बाबा में भी आया था। वो कहते कुछ न थे। बस जल्दी उम्रदराज दिखने लगे थे। बोलते पहले भी ज्यादा न थे, पर अब चिड़चिड़े से हो गए।
मां मेरे आसपास ही रहा करती थी हरदम जैसे वीआईपी के साथ एनएसजी कमांडो। मैं उकता जाती थी। कुछ समय बीता तो मैंने जिद पकड़ ली कि मुझे स्कूल जाना है। मां मना कर दी, तो खूब रोई खाना-पीना बंद कर अनशन पर बैठ गई। अब बाप का हृदय तो कोमल ही होता है। औलाद के लिए वो कहीं भी टकरा जाए, कहीं भी झुक जाए। मैं स्कूल पहुंची, बड़े अनमने ढंग से, प्रिंसिपल ने मुझे एडमिशन दिया। क्लास में गई तो कोई पास न बैठा। मैं पगली अपने कपड़ों को सूंघ रही थी कि क्या मुझमें गोबर की बास तो नहीं आ रही। खैर चलने लगा। बाकी टीचर तो मुझे सहानुभूति से देखते, पर एक गायत्री मैडम थी, उनका मुझ पर कुछ विशेष स्नेह था। एक बार जब मैं दोस्तों की बेरुखी और चिढ़ाने से रोने लगी तो उन्होंने मुझे गले लगा लिया और साथ स्टाफ रूम में ले जाकर बोली कि देख दुनिया दुरंगी है, इससे लड़ना और आगे बढ़ना हमें ही सीखना है। कुछ भरभराई-सी आवाज में वो बुदबुदा रही थी कि ’’मेरे साथ भी, मेरे अपने….’’ बस और चुप हो गई। उनका ये प्यार ये सर पर हाथ फेरना। बस ऐसा लगा कि हां अब आगे बढ़ना है। फिर पढ़ने लगी, बैडमिंटन की स्टेट प्लेयर बन गई। दोस्त भी बन गए। मोहल्ले का माहौल बहुत न बदला, बस अब लोग थोड़ा-बहुत बोलने लगे थे। कॉलेज गई तो वहां भी थोड़ा-बहुत। ओह! ये बात जाने दो, ये दुनिया ऐसी ही है। क्योंकि कोई इसे बदलना नहीं चाहता न। मैं भी बदल गई थी। लोग मेरी उपेक्षा करें, उससे पहले तो मैं ही अनदेखा कर देती थी।

मेरी उम्र बढ़ी तो नई समस्या खड़ी हो गई। मेरी शादी की धुन घरवालों को सवार हो गई। शकुंतला ताई वो जो रघु था न उसकी दादी, रिश्ता लाई थी। कोई 48 बरस के नौजवान का। मां ने कुछ कहा तो बोली लुटी तिजोरी और कौन लेगा रे। मां तो चुप रही, मैं बोल पड़ी दादी मुझे नौकरी करनी है, शादी गई चूल्हे में। दादी गई तो मां ने बहुत डांटा, पर पापा के मौन को उनकी स्वीकृति मान में लग गई तैयारी करनेl एसएससी ग्रेजुएट लेवल की और सलेक्ट भी हो गई। अपनी मेहनत के दम पर। बता दूं ऐसी त्रासदी से गुजरी लड़कियों के लिए नौकरियों में कोई विशेष कोटा नहीं होता है। खैर नौकरी मिली, कई रिश्ते भी आए पर पुरानी खबर नए चटकारों के साथ लोगों तक पहुंच जाती और बात आई-गई।
मां-पापा इस पर घुमा-फिरा कर पूछे सवालों से बचते थे। पर एक दिन तो मैं लड़के के घरवालों के सामने ही बोल पड़ी, जी आपने सही सुना है बचपन मैं मेरा ही बलात्कार हुआ था, कब-कैसे-कहां-किसने, पुलिस के रेकार्ड में दर्ज है, जाकर पता कर लो। लड़के की मां कुछ मुस्कुरा उठी थी। मुझे क्या पता था, ये ही बात मेरी मायके से विदाई का कारण बन जाएगी। सगाई से पहले इनने मुझे फोन किया था, मेरा मन जानने को, तब मैंने पूछ लिया था कि क्यों शादी करना चाहते हो मुझसे। इनका जवाब था .. देखो मैं प्राइवेट नौकर हूं और तुम सरकारी अफसर मेरा भविष्य सुरक्षित हो जाएगा। मुझे साफगोई पसंद आई, ये जानकर अच्छा लगा कि बंदा मुझ पर तरस नहीं खा रहा है। मुझे तो बाद में पता पड़ा कि जनाब नामी-गिरामी कंपनी में इंजीनियर है लाखों के पैकेज पर। इसके बाद फिर बारात, तोरण, फेरे, नकुल, इन बाप-बेटे का खाना-नहलाना-उठाना-सुलाना और दफ्तर बस जिंदगी दौड़ रही है और मैं इसकी रफ्तार में खुश हूं।

अच्छा इस कहानी में तुम्हारा नाम बदल दूंगा। ये सुनते ही वो कहने लगी कि आपने सुना क्या कि कूनो नेशनल पार्क में चीते छोड़े गए थे नामीबिया से लाकर। अगर इन चीतों का नाम गीदड़ रख दिया जाए तो आपको क्या लगता है इनकी सुरक्षा अच्छे से हो जाएगी। शिकारी तो शिकारी रहेगा गर्व से झूमता, चीता छुपता फिरेगा गीदड़ बना। अब मैं इस बात के मायने समझता कि खिलखिलाकर वो बोला भाईसाहब मेरी श्रीमती जी की कहानी के लिए पहली शर्त ये ही थी कि आप उसका ओरिजनल नाम ही लिखें। वैसे ये सही भी तो न है कि गुनहगार तो छाती तान के घूमे और पीड़ित नाम छुपाता रहे। इस पर मैं कुछ कहता कि वो बोल पड़ी कि अब भी कई दफा बैचेन हो जाती हूं। नींद में जाग पड़ती हूं। मां से कहा था कि अब भी कई बार अजीब सा लगता है, मां कहती है कि पुरानी बातें भूल जा। अब आप ही बताओ बात पुरानी कहां है, ये जो हाथरस, पश्चिम बंगाल, और रोज की खबरों मे पढ़ रही हूं, उनमें भी क्या मैं नहीं हूं। मैं लड़की हूं, वो भी लडकियां है, यह पहचान हमें साझा करती है कि नहीं। मैं निरूत्तर था। उठ खड़ा हुआ। चाय अच्छी थी कहते हुए बरबस मेरा हाथ आशीश देने के लिए उसके सिर पर चला गया। फिर आइएगा डिनर पर, मैं पनीर कोरमा लाजवाब बनाती हूं, वादा कर मैं बाहर रोड पर आकर मुड़ा तो नेम प्लेट की तरफ नजर पड़ी, जिस पर सुनहरे हर्फ में बड़े अक्षरों में लिखा था ’’ राजी……’’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here