फाग के गीत चंग की थाप से पुरुषों द्वारा नृत्य,खेत में लहराती पीली सरसों की चादर

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रंगों की मस्ती से भरा होली त्यौहार

(डॉ. सीमा दाधीच)

होली रंग बिरंगा त्योहार है,जिसे संपूर्ण भारत सहित दुनिया के कई देशों में उत्साह और आनन्द , उमंग के साथ मनाया जाता हैं। प्यार भरे रंगबिरंगे रंगों से सजा यह पर्व हर जाति , वर्ग और छोटे बड़े के भेद से मुक्त होकर एक दूसरे को रंगों से भरने का पर्व है। यह त्यौहार जाति के बंधन की खाई को भूल भाई-चारे का संदेश देता है। इस दिन लोग अपने पुराने गिले-शिकवे भूल कर फाग के गीतों का आनंद लेते हैं चंग की थाप पर फाल्गुन के गीत त्यौहार की खुशी में चार चांद लगाती है एक दूसरे को गुलाल , रंग लगाने की खुशी एक अलग ही उल्लास लाती है।। बच्चे और युवा वर्ग में रंगों से खेल का उत्साह दिखता हैं। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होली का मनाया जाता है। बसंत में खेतों में पीली चादर से प्रकृति का अनूठा संगम देखने को मिलता है। राजस्थान में होली कई जगहों पर अलग-अलग तरीकों से मनाई जाती है,जिनमें से कई जगह यह विभिन्न रूप में मनाई जाती हैं, जैसे बीकानेर की डोलची मार होली,पुष्कर की कपड़ा फाड़ होली,भरतपुर की लट्ठमार होली,और बाड़मेर,डूंगरपुर की पत्थरमार होली,
भीलवाड़ा की कोड़ामार होली,जैसलमेर में होली
फाग गीतों के साथ मनाई जाती है। पाली में चंग की थाप पर गैर नृत्य की परंपरा है। श्रीगंगानगर में होली के साथ-साथ पतंग उड़ाकर लोग खुशी मनाते है। जोधपुर में होली पर विशेष रूप से रावजी की गेर देखने को मिलती है जिसमें दूर दूर से लोग आते हैं इस गेर में नवविवाहित दूल्हे को राव बनाया जाता है, जो नाचने में भी माहिर हो यहां चंग की थाप पर पुरुषों का नृत्य देखने को मिलता है। होली के त्यौहार मैं अनूठा रूप भीलवाड़ा जिले के मांडल कस्बे में देखा जा सकता हैं। साथ ही रंग तेरस का दिन भी बेहद विशेष होता है। इस दिन यहॉं ‘नाहर नृत्य’ किया जाता है, जो पूरे वर्ष में एक बार ही होता है। तेरस वाले दिन कलाकार अपने पूरे शरीर पर 4 किलो रुई लपेट कर नाहर यानी शेर का स्वांग रचते हैं। सींग लगा कर पूरा नरसिंह अवतार धारण करते हैं जिसे देखने के लिए प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में लोग आते हैं। राजस्थान के सभी क्षेत्रों में होली के दिन होली उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन चित्तौड़गढ़ में यह पर्व होली के दिन नहीं मनाया जाता है मान्यता है कि चित्तौड़गढ़ के पूर्व शासकों में से एक का निधन धुलंडी के दिन हुआ था, इसलिए चित्तौड़गढ़ के लोग इस दिन रंग नहीं खेलते हैं। इसके बजाय यहां सप्तमी या “रंग तेरस” को रंग खेलते है होली दो दिवसीय त्यौहार है पहले दिन
होलिका दहन की परंपरा होती है दूसरे दिन धुलंडी के दिन रंगोत्सव होता है।भारत कृषि प्रधान देश है इसमें
फसल पकने की खुशी और रंग खेलने की परंपरा है। किसान जलती हुई होली में नई फसल का कुछ अंश अर्पित करते हैं पूर्वज जब भी कोई फसल आती है तो उसका कुछ भाग भगवान को या अग्नि देव को भोग के रूप में चढ़ाते थे यही परम्परा आज भी चल रही है।जलती होली में अनाज सेककर लोग आज भी इस परंपरा का निर्वाहन कररहे है। होली मनाने की पौराणिक वजह भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा से भी जुड़ी है, जो बुराई पर अच्छाई का संदेश देता है। हिरण्यकश्यप एक अत्याचारी राजा था, जिसने स्वयं को भगवान मान लिया था। उसने अपने राज्य में केवल उसी की पूजा करने का आदेश दिया था, लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। यह देखकर हिरण्यकश्यप को बहुत गुस्सा आया और उसने प्रह्लाद को मारने की कई कोशिशें कीं, लेकिन हर बार भगवान की कृपा से वह बच गया,अंत में हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को प्रह्लाद को जलाने का आदेश दिया। होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी, तो प्रह्लाद सुरक्षित रहे और होलिका जलकर भस्म हो गई। इसी घटना की स्मृति में होलिका दहन किया जाता है, जो बुराई पर विजय का प्रतीक है। दूसरे दिन सब लोग एक दूसरे को रंग लगाकर अपनी खुशी मनाते है ।
वहीं, भगवान श्रीकृष्ण और राधा की रास-लीला से प्रेरित होकर मथुरा और वृंदावन में इसे विशेष रूप से मनाया जाता है। कृष्ण राधा की होली में फूलों की होली, लट्ठमार होली भी खेली जाती हैं भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ मिलकर होली खेलना शुरू किया था इसलिए वृंदावन और बरसाना में प्रसिद्ध लट्ठमार होली इसी परंपरा का एक अनूठा रूप है। साथ ही कामदेव ने भगवान शिव की तपस्या भंग करने के लिए उन पर पुष्प बाण चलाए थे तपस्या भंग होने से वे क्रोधित हो गए और उन्होंने अपनी तीसरी आंख खोल दी जिससे आंख से निकली अग्नि ने कामदेव को जलाकर भस्म कर दिया
शिव ने जाना कि कामदेव निर्दोष हैं तब कामदेव को जीवित कर दिया और उसे नया नाम मनसिज दिया,भगवान शिव ने उनसे कहा कि अब तुम अशरीर ही रहोगे,उस दिन फागुन की पूर्णिमा थी उसी दिन
शिवजी ने माता पार्वती से विवाह की सहमति दी थी जिससे सभी देवी-देवताओं, शिवगणों में हर्षोल्लास फैल गया। उन्होंने एक-दूसरे पर रंग गुलाल उड़ाकर जोरदार उत्सव मनाया, जो आज होली के रूप में मनाया जाता है।

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