

साहित्य का 2025का नोबेल पुरस्कार हंगरी के प्रसिद्ध लेखक लास्लो क्रासनाहॉर्कई को मिला है।
स्वीडिश एकेडमी ने उन्हें “ए कंप्लिंग एंड विजनरी ओवरी देट, इन दा मिडिटस्ट ऑफ अपेकलिप्टी टेरर रिफॉर्म्स दा पावर ऑफ आर्ट, अपोकैलिप्टिक भय के बीच कला की शक्ति की पुनर्पुष्टि करने वाली प्रेरक और दूरदर्शी रचनाएँ के लिए सम्मानित किया है।
क्रासनाहॉर्कई की यह उपलब्धि केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि विश्व साहित्य में एक नए युग की दस्तक है। ऐसा युग, जहाँ सामाजिक टूटन, निराशा और अस्तित्व की जटिलता, साहित्य की गहरी लौ के प्रतीक बनते हैं।
हंगरी के घुला में 1954 जन्मे क्रासनाहॉर्कई ने साम्यवादी युग की राजनीतिक कटुता और सामाजिक बेचैनी को बहुत गहराई से जिया। यही अनुभव उनके लेखन की आत्मा बना।
उनकी चर्चित कृतियों — स्टंटांगो (1985), दा मेलांचोली ऑफ रेजिस्टेंस (1989) और बारोंब वेंकहीम्स होमकमिंग (2016), में समाज की गिरावट, समय की नश्वरता और मानवीय जिजीविषा का दार्शनिक चित्रण मिलता है।
उनकी भाषा लंबी, लहराती और गहन है , एक ही वाक्य कई पृष्ठों तक फैल जाता है। यह शैली पाठक को कथानक से उठाकर विचार, अनुभूति और समय के बवंडर में खींच ले जाती है।
वे स्वयं कहते हैं कि प्रारंभिक दौर में वे लोगों की भीड़ में लम्बे वाक्य याद कर लेते थे और लिखने बैठते समय वे और भी लम्बे वाक्यों में बदल जाते थे । यही उनकी विशिष्ट शैली बन गई।
उनके लेखन में काफ्का और थॉमस बर्नहार्ड की परंपरा की झलक है , गंभीर, अस्तित्ववादी और दार्शनिक।
फिर भी उसमें एक ऐसी सूक्ष्म रोशनी है, जो निराशा को केवल अंधकार नहीं बनने देती , बल्कि कला की झिलमिलाहट में बदल देती है।
यह पुरस्कार हंगरी के लिए दूसरा नोबेल है ,2002 में इमेरे केर्तेज़ को यह सम्मान मिला था।
इस घोषणा के साथ स्वीडिश एकेडमी ने यह संकेत भी दिया है कि आने वाला साहित्य सामाजिक संकटों और भयावह परिवर्तनों के बीच भी कला की मानवीय भूमिका को पुनः परिभाषित करेगा।
क्रासनाहॉर्कई के कुछ उपन्यासों पर बनी फ़िल्में — जैसे स्टंटांगो और वर्कमीस्टर हार्मोन्स उनकी रचनाओं की दृश्यात्मकता और गहराई दोनों को सामने लाती हैं।
उनकी यात्राएँ — चीन, जापान और अन्य संस्कृतियों तक — उनके दृष्टिकोण को विश्वसनीय और वैश्विक बनाती हैं, जहाँ “पूर्व और पश्चिम” की साहित्यिक छायाएँ एक नयी संवेदना में मिलती हैं।
क्रासनाहॉर्कई के लेखन की आलोचना तब भी हुई जब वे प्रसिद्ध नहीं थे।
उनकी लंबी, जटिल और धीमी गति वाली शैली को “पाठक-विरोधी” कहा गया।
परन्तु जब वही जटिलता प्रसिद्धि का प्रतीक बन गई, तब आलोचकों ने उसी को उनकी “शैली” मान लिया।
यही साहित्य की विडंबना है — जब कोई नया लेखक अलग राह चुनता है, तो आलोचना उसका पीछा करती है, यह लेखक की अपनी दृढ़ता का प्रतीक है कि वो अपने लिखे या अपनी प्रयोगधर्मिता की आलोचनाओं के बाद अपने प्रयोग पर डटा रहता है । तभी वो उसकी शैली में रूपांतरित हो जाता है ।
नवीनता इसी कारण धीमी गति से आती है , क्योंकि आलोचक प्रयोग को प्रोत्साहन देने के बजाय परंपरा के भीतर ही सुविधा तलाशते हैं।पहले से स्थापित भी लिखने वाले भी उसी नज़र से देखते हैं । उसी परंपरा को स्थापित करते हैं जो उन्होंने देखी है या जिससे सीखा है ।
जबकि सृजन का अर्थ है जोखिम उठाना, नयी भाषा गढ़ना और सीमाओं को तोड़ना।
क्रासनाहॉर्कई का लेखन इस साहस का उदाहरण है , वह दिखाता है कि साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि अस्तित्व की प्रयोगशाला है।
उनका नोबेल पुरस्कार एक गहरा संदेश देता है ,
कि साहित्य को समझने से पहले महसूस करने की आवश्यकता है।
भारत को अपने रचनाकारों के लिए ऐसी दृष्टि विकसित करनी होगी,
जहाँ प्रयोगों को सराहा जाए और आलोचना से भय न हो।
तभी शायद भविष्य में कोई भारतीय लेखक फिर से उस ऊँचाई तक पहुँच सकेगा,
जिसे एक सदी पहले रवींद्रनाथ ठाकुर ने अर्जित किया था।
क्रासनाहॉर्कई हमें याद दिलाते हैं —
भय कभी पूर्ण नहीं होता,
कला उस भय के अंधकार में भी
मानवता की लौ को जलाए रखती है।