
(दिव्यराष्ट्र के लिए रेणु जुनेजा)
नीरेज घोषवान निर्देशित फ़िल्म ‘होमबाउंड’ एक साधारण सी यात्रा-कथा होकर भी असाधारण संवेदनाओं को जगाती है। फ़िल्म शुरु बेरोजगारी , सरकारी नौकरी के लिए ललायित युवकों की यात्रा से शुरु होती है । बेरोजगारी की वजह से ग़रीबी पिता की बीमारी को दिखाते हुए मिल मज़दूर बनने की युवकों की मजबूरी के साथ जाति गत भेद को इंगित करती फ़िल्म महामारी कोरोना को दर्शाते हुए महामारी के दौर में घर लौटने की कोशिश में लगे दो युवकों की कहानी, समाज के उन चेहरों को उजागर करती है जिन्हें हम अकसर देख कर भी अनदेखा कर देते हैं।
फ़िल्म की कथा दो दोस्तों रवि (विशाल जठवा) और अमन (इशान खट्टर) के इर्द-गिर्द घूमती है, जो महानगर में रोज़गार खोने के बाद सैकड़ों किलोमीटर पैदल अपने गाँव की ओर निकल पड़ते हैं। रास्ते में भूख, पुलिस की लाठियाँ, सामाजिक भेदभाव और इंसानियत की चमक सब कुछ एक साथ सामने आता है।
नीरेज घोषवान का निर्देशन बेहद नियंत्रित और संवेदनशील है। वे कैमरे को पात्रों की आँखों की भाषा बनाते हैं । हर शॉट, हर सन्नाटा अपनी कहानी कहता है। फ़िल्म के संवाद कम हैं, लेकिन मौन ज़्यादा बोलता है।
विशाल जेठवा ने अपनी भूमिका में अद्भुत सादगी और पीड़ा का संतुलन रखा है। इशान खट्टर का अभिनय नपा-तुला और आत्मीय है। दोनों की आपसी केमिस्ट्री फ़िल्म की रीढ़ है।
छायांकन और दृश्य-संयोजन उत्कृष्ट हैं। सड़कें, धूल, और खालीपन मिलकर भारत के “अनदेखे भूगोल” को जीवंत बना देते हैं। संगीत का प्रयोग संयमित है जितना चाहिए, उतना ही।
‘होमबाउंड’ जाति, धर्म और वर्ग की सीमाओं से ऊपर उठकर “मानवता” की बात करती है। लॉकडाउन और पलायन की त्रासदी केवल पृष्ठभूमि है। असल में यह फ़िल्म इंसान के भीतर “घर” खोजने की कोशिश है।
घोषवान ने कोई भाषण नहीं दिया, केवल एक सच्चाई दिखाई है । कि देश की सबसे लंबी यात्राएँ पैरों से नहीं, दिलों के बीच तय होती हैं।
कुछ दृश्यों में गति धीमी लगती है, विशेषकर मध्य भाग में। क्लाइमेक्स है, जो दर्र्शकों सोचने का अवसर देता है ।
‘होमबाउंड’ किसी तड़क-भड़क वाले मनोरंजन की फ़िल्म नहीं है। यह उन चुप कहानियों में से है जो आपको भीतर तक छूती हैं। इसे देखना आसान नहीं, पर भूल पाना भी मुश्किल है।
एक ऐसी फ़िल्म जो हमें याद दिलाती है कि “घर” केवल एक जगह नहीं, एक एहसास है , जो हर सफ़र के अंत में हमारे भीतर बसता है।
ग़रीबी , अभाव , अशिक्षा , बेरोजगारी , सरकारी नौकरी की चाहत , ज़ात -पात , ऊँच – नीच का फर्क जो समाज में जो हम नित देख रहें हैं ।
सब दिखाते हुए हाल से बाहर आने पर विचार करने को मजबूर करती फिल्म !!