भारत में रेस्पिरेटरी सिंसिशियल वायरस (आरएसवी) के प्रति जागरूकता और टीकाकरण की सख्त जरूरत
जयपुर, दिव्यराष्ट्र*/भारत के मेडिकल एक्सपर्ट्स के अनुसार छोटे बच्चों में तेजी से फैलने वाली एक गंभीर बीमारी- रेस्पिरेटरी सिंसिशियल वायरस (आरएसवी) पर ध्यान देने की सख्त जरूरत है। यह एक ऐसा वायरस है, जो पाँच साल से छोटे बच्चों और नवजातों के सीने में इन्फेक्शन करता है, और बहुत तेजी से फैलता है, यानि छोटे बच्चों के यह फेफड़ों में संक्रमण का बड़ा कारण बनता है।
आरएसवी को अक्सर लोग मामूली मौसमी सर्दी-खाँसी समझ बैठते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि हर साल दुनिया भर के पाँच साल से कम उम्र के करीब 36 लाख बच्चों को इसके कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है और करीब 1 लाख बच्चों की जान चली जाती है। भारत में हर साल लगभग 2.5 करोड़ बच्चों का जन्म होता है, जिससे इस बीमारी का बोझ हमारे देश पर भी काफी भारी पड़ता है। खासतौर पर, मानसून और सर्दी की शुरुआत में तो हालात और बिगड़ जाते हैं, जब नवजात शिशु आईसीयू (एनआईसीयू) में भर्ती होने वाले बच्चों की संख्या तेजी से बढ़ जाती है। चौंकाने वाली बात यह है कि आरएसवी का असर सिर्फ बीमार या कमजोर बच्चों पर नहीं होता, बल्कि कई बार बिल्कुल स्वस्थ और समय पर जन्मे बच्चों को भी ऑक्सीजन या वेंटिलेटर की जरूरत पड़ जाती है। इसलिए जरूरी है कि माता-पिता और डॉक्टर दोनों ही इस वायरस को लेकर सतर्क रहें और जो बचाव के तरीके उपलब्ध हैं, उनके बारे में जागरूक रहें, ताकि मासूम बच्चों की ज़िंदगी को इस खतरनाक वायरस से बचाया जा सके।
भारतीय पीडियाट्रिक्स एकेडमी (आईएपी) के मौजूदा नेशनल प्रेसिडेंट डॉ. वसंत एम. खलटकर ने कहा, “आरएसवी आज भी छोटे बच्चों की सेहत के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। हाथ धोने जैसे सफाई के उपाय जरूरी हैं, लेकिन एक साल से छोटे बच्चों के लिए सिर्फ ये ही काफी नहीं होते। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने जो लंबी अवधि तक असर करने वाले मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (एमएबी) को लेकर सिफारिश की है और भारत में अब ये उपाय उपलब्ध हो रहे हैं, तो हमारे पास अब नन्हें बच्चों को आरएसवी से बचाने के लिए बेहद जरूरी साधन मौजूद हैं। अब तक जिन बच्चों को संक्रमण का ज्यादा खतरा होता था (हाई-रिस्क शिशु), उन्हें पालिविज़ुमैब नाम की दवा दी जाती थी, जो आरएसवी सीज़न में एक ही बार दी जाती है और पूरे सीज़न तक असर करती है। लेकिन, अब नर्सेवीमैब नाम की नई दवा उपलब्ध है, जो सिर्फ एक बार देने से पूरे सीज़न तक बच्चों को आरएसवी से बचा सकती है। यह एक लम्बी असर करने वाली एंटीबॉडी है, जो इस क्षेत्र में एक बड़ी प्रगति मानी जा रही है। इसे बच्चे के जन्म के थोड़े समय बाद या फिर नियमित चेकअप के दौरान दिया जा सकता है। ऐसे बचाव के उपाय आरएसवी से जुड़ी अस्पताल में भर्ती होने की नौबत को काफी हद तक कम कर सकते हैं और बच्चों को ब्रोंकियोलाइटिस और निमोनिया जैसी गंभीर दिक्कतों से बचा सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि बचाव के उपायों को अपनाने के साथ-साथ समय पर जानकारी मिले और माता-पिता भी इसमें सक्रिय रूप से भाग लें, तभी हम भारत में आरएसवी के असर को कम कर सकेंगे।”
सैनोफी के इंटरनेशनल रीजन मेडिकल हेड डॉ. सीज़र मास्केरेनस ने कहा, “हम लंबे समय से ऐसे वैज्ञानिक उपायों पर काम कर रहे हैं, जो समय के साथ बदलती अंतर्राष्ट्रीय सिफारिशों- खासकर डब्ल्यूएचओ जैसी संस्थाओं की गाइडलाइंस के अनुरूप हों, ताकि बचाव से जुड़ी जरूरी खामियों को दूर किया जा सके। भारत में आरएसवी के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए उन्नत बचाव उपाय अपनाना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इसके लिए लोगों में जागरूकता बढ़ाना, सुरक्षा देने वाले उपायों को अधिक से अधिक लोगों की पहुँच में लाना और बच्चों को समय पर संक्रमण से बचाव के लिए टीके लगवाना बेहद जरूरी कदम हैं, ताकि आरएसवी के असर को कम किया जा सके और आने वाली पीढ़ियों की सेहत को सुरक्षित रखा जा सके।”
डॉ. रेड्डीज़ में मेडिकल अफेयर्स के प्रमुख, डॉ. भावेश कोटक ने कहा, “दुनियाभर में आरएसवी का जो प्रभाव है, उसमें भारत की हिस्सेदारी काफी ज्यादा है। जहाँ विकसित देशों में पहले से ही बेहतर रोकथाम और समय पर बचाव के उपाय मौजूद हैं, वहीं भारत में अभी-भी समय पर बीमारी की पहचान और बच्चों को सुरक्षित रखने में कई मुश्किलें बनी हुई हैं।