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पुस्तक समीक्षा— छंदबद्ध काव्य पर आज का हस्ताक्षर- डॉ. वर्षा सिंह जनार्दन मिश्र

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(दिव्यराष्ट्र के लिए सीमा रंगा दिल्ली की प्रस्तुति)

मुक्तछंद कविताओं के इस दौर में छंदबद्ध कविताएँ लिखना कठिन काम है, क्योंकि छंदबद्ध कविताएँ लिखने के लिए कवि को छंदों का व्यापक ज्ञान होना चाहिए। छंदों से ही काव्य में रमणीयता; तरलता तथा प्रवाहमयता आती है। इससे काव्य गेय तथा संगीतात्मक भी बनता है। इस दौर की सुपरिचित कवचित्री डॉ. वर्षा सिंह ने अपने प्रथम काव्य-संग्रह ‘विजयपथ’ में इस परंपरा का निर्वाह किया है। इस संग्रह में दोहा छंद, चौपाई छंद, कुंडलियाँ छंद, हरिगीतिका छंद, प्लवंगम छंद, सुगत मात्रिक सवैया छंद, लवणी, तांटक छंद तथा लुप्त होती विधा ‘कह मुकरियाँ’ का प्रयोग किया गया है।

अधिकांश भक्त कवियों ने अपनी कविता की शुरुआत ‘सरस्वती वंदना’ से की हैं। उनका मानना है कि ऐसे में उनके बल, बुद्धि और विद्या में वृद्धि होती है। अनुक्रम की दृष्टि से इस संग्रह की पहली कविता का भी शीर्षक है ‘सरस्वती वंदना’। इस शीर्षक के एक पद्यांश पर गौर करें।

सर्वोपरी भारत हो अपना,
विमला की कृपा तले।
मैं देश का गौरव लिखूँ माँ,
साँस जब तक ये चले ।।
भटके नहीं बस पैर मेरे,
पथ गमन सच का करूँ।
अपनी कृपा करनी मुझ पर,
पाप करने से डरूँ।।

कवयित्री के मन में अपने देश के प्रति गहरा लगाव है। अपने देश भारत को सभी देशों का सिरमौर के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए वह देवी ‘विमला’ से प्रार्थना करती हैं कि उनके पैर सतपथ से कभी न भटके। वे सदा पाप करने से डरती हैं, क्योंकि कुत्सिक कर्म सद्मार्ग में अवरोधक बनते हैं।

‘विजयपथ’ अनुक्रम में इस संग्रह की दूसरी कविता है। जब आदमी दूसरों के समर्थन और प्रोत्साहन पर भरोसा करता है, तब उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी हो जाती है। विजयपथ पर चलना सबके वश की बात नहीं होती। विजयपथ पर केवल धर्म परायण, साहसी ही पाँव रखते हैं। जिंदगी की चुनौतियों का, सामना करने को जो तैयार रहता है, वही विजय पथ पर चल सकता है।
‘विजय पथ’ शीर्षक के एक पद्यांश पर मनन करें-
मेहनत, लगन और धैर्य का,
हाथ में हथियार हो।
इतना बुलंद कर हौसला कि,
हार की अब हार हो ।।

माँ के उत्सर्ग, बलिदान, अतिशय त्याग से अलंकृत अनेक कविताएँ हमें पढ़ने, सुनने को मिल जाएँगी। माँ ‘शीर्षक’ से अनेक कवि कवयित्रियों ने भावपूर्ण उत्कृष्ट कविताएँ लिखी हैं और लिखनी भी चाहिए। हमारी थोड़ी-सी पीड़ा से माँ विचलित हो जाती है। उसके पीछे कई आधार भूत कारण हैं, पर भारत में आर्थिक रूप से परिवार को चलाने वाला पिता ही होता है। संतान की परवरिश एवं मार्गदर्शन में पिता का अहम योगदान होता है। वह बाहरी दुनिया की कठोरता से अपने बच्चों को अवगत कराता है। ‘संकटमोचन पापा’ शीर्षक के अंतर्गत कवयित्री ने पापा (पिता) के अनेक गुण गिनाए हैं।
इस शीर्षक का पहला पद्यांश –

संघर्षों के सघन तिमिर में,
पापा धीर प्रकाश बने।
खोले पंख जहाँ इच्छाएँ,
पापा वो आकाश बने।।
संघर्षहीन जीवन की उपलब्धि टिकाऊ नहीं होती। संघर्षशील व्यक्ति को ही ज़मीन से जुड़ा व्यक्ति माना जाता है। जिनका जीवन संघर्षों की आँच में तपा होता है, वह बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना करने में क्षण भर के लिए भी विचलित नहीं होता। कवयित्री के शब्दों में पापा संघर्षों के सघन अँधेरे में भी प्रकाश बनकर अपनी संतानों के मार्गदर्शक बन जाते हैं। पापा का हृदय आकाश-सा असीमित होता है। वे अपनी संतान की सार्थक इच्छाओं का ‘दम’ नहीं घुटने देते।

संविधान सभा ने लंबी चर्चा के बाद 14 सितंबर सन्1949 को हिंदी को भारत को ‘राजभाषा’ के रूप में स्वीकार किया था। हिंदी के प्रति कवयित्री का गहरा लगाव है। वह जानी-मानी संस्था, ‘हिंदी की गूंज’ की सक्रिय सदस्य भी हैं। इस संग्रह के पृष्ठ 96 पर उनके एक दोहे की बानगी देखिए –

हिंदी के दु:ख दर्द सब, ऐसे होंगे दूर।
घर-घर में जब सब पढ़े, तुलसी, मीरा, सूर ।।
हिंदी के प्रचार-प्रसार में जो अपने को समर्पित कर देगा, उन्हीं की रचना में ऐसे भाव बोध प्रकट होंगे। हिंदी साहित्य में कबीर, रहीम, वृंद, बिहारी आदि ऐसे स्वनाम धन्य कवि हो गए हैं कि आज भी गाँव देहात के लोग उनके किसी दोहे को कहकर अपनी बातों की पुष्टि करते हैं।
दोहा अर्द्धसम मात्रिक छंद होता है। यह दो पंक्तियों का होता है। इसमें चार चरण होते हैं। ‘पहला प्यार: कोई नहीं भूल पाया’ शीर्षक के अंतर्गत कवयित्री द्वारा रचित इन दो दोहे पर गौर फरमाएँ –

पहली चाहत उम्र भर करती है बेचैन।
प्रथम प्रेम मीठी ख़लिश, चुभे मुझे दिन रैन ।।
प्यार छुपाने में रही, मैं बिलकुल नाकाम ।
मेरी आँखों में पढ़ा, सबने उसका नाम
।।

जिसने भी अपनी जिंदगी में प्यार किया है। उसे प्रथम दोहे को पढ़ते ही, उसके अंदर प्रथम प्रेम की मीठी ख़लिश (कसक) महसूस होगी। दूसरे दोहे को पढ़ते ही रहीम के चर्चित दोहे की याद आ गई।
खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान ।।

डॉ वर्षा सिंह ने चाय , बचपन को भी दोहों में बख़ूबी पिरोया है दोहों की बानगी देखिए

चाय संग चर्चा चले, चले खरा व्यापार । चाय चलती आजकल ,जग का कारोबार ॥

बचपन की हर याद को, कर लूँ मैं आबाद ।
करती बढ़ती उम्र का बचपन में अनुवाद ॥
पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता जताते हुए वर्षा सिंह लिखती हैं

नहीं सिर्फ इंसान का , भू-नभ पर अधिकार ।
पौधे ,पशु,जंगल, नदी ,सब हैं हिस्सेदार ॥

सम सामयिक दोहों में देखिए-
नहीं चलन में आजकल , छुरी और तलवार ।
लोगों को अब मारती , छल फरेब की धार ॥

कागज धीरजवान है, भू की तरह अपार ।
जो मन में आए लिखो ,सह ले सारे भार ॥

आज के दौर में कविता की विधा ‘मुकरी’ लुप्त होने के कगार पर है। ‘मुकरी’ विधा के मुख्य रचयिता ‘अमीर खुसरो’ एवं भारतेंदु हरिश्चंद’ का नाम कौन साहित्य प्रेमी नहीं जानता? वे हिंदी साहित्य के प्रकाश स्तंभ हैं। उनकी ‘मुकरियों’ में व्यावहारिक, सामाजिक एवं लोकजीवन का अद्भुत समावेश है।
इस संग्रह की एक ‘मुकरी’ पर गौर फरमाएं-

बिन पूछे मुझको छू जाए।
पकडूँ तो यह पकड़ न आए ॥
आवारा-सा इसका जीवन ।
ए सखि साजन ना सखि पवन ।।

लय, वर्ण अथवा मात्राओं के सुव्यवस्थित अनुपात से सुनियोजित काव्य ही अधिक प्रभावशाली, हृदयग्राही एवं स्थायी सिद्ध होता है। इस कसौटी पर वर्षा सिंह की कविताएँ खरी उतरती हैं। उनकी कविताओं में सामाजिक एवं लोकजीवन के अनेक पक्ष उभर कर आए हैं। मसलन – ‘कामकाजी महिलाओं की दशा, ‘गृहिणी की विशेषता’, ‘बहू-बेटी की समानता’ ‘पर्यावरण’, ‘बुढ़ापा’, ‘रीति-रिवाज,’ ‘नशा’, आदि विषयों पर कवयित्री की दृष्टि व्यापक है, इसलिए उन्होंने जीवन के अनेक पक्षों को अपनी कविता में स्थान दिया है, जिससे जीवन सुधरता एवं सँवरता है। इस संग्रह में छंदबद्ध काविताओं की सार्थक प्रस्तुति हुई है। समग्रता में कहना उचित होगा कि ‘विजयपथ’ की अनेक कविताएँ उल्लेखनीय हैं।

पुस्तक: विजयपथ (कविता-संग्रह)
कवयित्री:.. डॉ. वर्षा सिंह
प्रकाशक : मुम्बई भाषा परिषद
मुम्बई 400 004
पृष्ठ: 114 (पेपरबैक)
मूल्य : -199/-रुपये

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