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……और माटी, माटी ही हो गई

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✍️नवीन कुमार आनन्दकर

गाड़ी स्टार्ट की ही थी कि फोन घनघना उठा, उठाया तो 1 किलो सेब, थोड़े मिट्टी के दीये लाने का हुकुम था। भाव जंचाकर लेने की हिदायत के साथ। 9 से 6 ऑफिस में दिमाग खपाने के बाद यह गोधूलि बेला का समय सच में मोक्ष-सा लगता है। सब आजाद हो जाते हैं। जबसे पगडंडी बड़ी होकर सड़क बनी फिर डामर से पक्की हुई, तब से गोधूलि केवल बेला ही रह गई है। हां गौवंश जरूर बैठा मिलता है, बीचों-बीच सड़क पर बेफिक्र, जिसे निकलना है खुद बचकर निकले। अब ये सब सोचते चल रहा था कि फोन और हिदायत दोनों ध्यान आ गई। भला हुआ, वरना उल्टे पांव दो किलोमीटर भागना पड़ता। गाड़ी आगे वाले नुक्कड़ से दाएं घुमाते ही दोनों किनारों पर बैठे सब्जी-फल वाले नजर आ गए। ठेला दर ठेला खुद को ठेलते सेब वाले के पास पहुंचा। ग्राहक काफी थे, सब सौदा जंचा रहे थे। ठेले वाले के बाएं हाथ पर मटमैले कट्टों को नीचे बिछाकर मिट्टी के दीयों का छोटा ढेर लगा था। पास में ही तीन-चार मटके, धूपेड़े पड़े थे। और इन सब के पास संन्यासन-सी बैठी थी एक बुजुर्ग, लोग आते भाव करते, आगे बढ़ते। दीये तो मुझे भी लेने हैं, चलो यह ही काम कर लेते हैं। हां अम्मा दीये कैसे दिए। सौ के चौबीस बाबू। अम्मां ज्यादा है, सही-सही कर लो, आगे वाला साठ में ही दे रहा है। इतने में सेब वाला आकर बोला ताई खुल्ले हैं क्या। लाला देख ले, कहकर माई ने टाट सरका दिया। सेव वाले ने बंधे रूपए रखे, खुद ही गिनकर ले गया।*

माई वो कैसे दिया। क्या बाबू अरे वो, मटका रखा है न, कौनसा, अरे वो जो पीछे पड़ा है। हां बड़ा सवा सौ, छोटा निब्बे। इतने में एक को बाकी पैसे टटोल-टटोल कर देते माई ने कहा बाबू देख लेना बीस का ही है न, हां माई, बीस का ही है, कहकर वो चला। मैंने आवाज दी अम्मां, कुछ कहने के पहले ही बोली हां छांट लो बाबू। मैं खुश होकर चौबीस दीये छांटकर साठ रुपए पकड़ा सेब वाले के पास पहुंच गया। यूं ही बात चलने लगी, तो पूछ लिया तुम्हारी ताई है। शायद दिखता न है। हां साहब, मेरी वैसे तो कुछ न है पर ताई बोल देता हूं। अच्छा, न दिखता है तो फिर इस सबकी क्या जरूरत? मजबूरी और हरि इच्छा साहब। क्या मतलब? साब ताई का एक लड़का था, ठेला भी चला लेता था, मजदूरी भी कर लेता था। हम सब उसे घसीटा कहते थे। ताई कहा करती थी, उसे गुलाम….जोरु का। पर सच कहूं, तो उसकी बहू ताई की मन से सेवा करती थी। हां तो फिर ताई यहां क्यों। अरे ये राक्षस कोरोना कितनों को निगला है, आपको तो ध्यान है न। अ…हां…..हां किसे हुआ था। साब ताई के बेटे को, खूब चाकरी की उसकी पत्नी ने, पर बच न सका। हे प्रभु! और उसकी पत्नी? वो सेवा करती चपेट में आ गई और स्वर्ग सिधार गई। अब एक पोता, एक पोती है ताई के भरोसे और ताई राम भरोसे। इतने में एक 12-13 साल का छोटा बच्चा आकर दीये समेटने लगा। मुझे लगा ताई को दिखता न है जानकर उठा रहा होगा। मैं डांटते हुए बोला, क्यों परेशान कर रहा है रे डोकरी को। इतने में ताई बोल पड़ी, अरे न….न ये पोता है। अब जाने का समय हो गया तो समेटने आया है सामान को। मैं तो ठहरी सूरदास। इतने में सेब तौल दिए गए, पैसे देकर मैं भी घर आ गया। फिर दीवाली की साफ-सफाई में और कुछ घूमने-घामने निकल गए उधर जाना न हुआ। मेरा भी ट्रांसफर दूसरे शहर हो गया। अब रविवार को ही घर आना होता था, वो भी आराम करने में निकल जाता था। थोड़ी जुगाड़ बैठाई, कुछेक जगह से सिफारिश लगा कर वापस ट्रांसफर करवाया। वैसे बुजुर्ग सही कह गए हैं पहला सुख स्वदेश में वासा।

एक दिन अचानक ही, वहीं नुक्कड़ पर पहुंच गया। फल वाला देखते ही पहचान गया। दूर से ही आवाज लगा दी, अरे भईया जी, बड़े दिन बाद। कहां थे? आओ, बढ़िया सेब आए हैं, सही लगा देंगे। वहां पहुंचकर उससे दो-चार बात करते हुए अचानक वो दीये वाली अम्मां याद आ गई। उससे पूछ लिया भाई वो अम्मां कहां हैं। कौन भईया जी। अरे वो दीये वाली। अच्छा, माटी ताई। उनका नाम माटी है! अब पहले तो ऐसे ही नाम होते थे साब, और ताई भी अब थी हो चुकी। मतलब क्या भाई। अरे साहब ताई का मोक्ष हो गया। ओह! मेरे मुंह से निकल पड़ा। हां यहीं धनिए की गांठ बेच रही थी उस दिन, अचानक से ही लुढ़क पड़ी थी। हम कुछ समझते, उससे पहले ताई तो जा चुकी थी। अब कोई था ही नहीं ताई का, चंदा करके क्रियाकर्म कर दिया।* *आजकल लकड़ी भी बहुत महंगी है साहब, टायर लगाने पड़े थे। मैंने चौंककर कहा, क्या! अच्छा वो ताई के पोता-पोती उनका क्या हुआ फिर? साहब गरीब के घर विपदा लाइन से आती है, इसके पहले की बात है, ताई का पोता आ रहा था शाम को रोज की तरह सामान समेटने। एक नवाबजादे की कार की चपेट में आ गया। अरे फिर वो कारवाला पकड़ा गया कि नहीं। अरे साहब हमारी कौन सुनता है। वो आगे प्याज बेच रहा जगदीश है न, उसकी साइकिल चोरी हो गई थी। गया था थाने रपट लिखाने, चार गालियों और एक लात के साथ बैरंग आ गया। हां वो हादसे वाले रोज पुलिस आई थी, तोड़-बट्टा हो गया। कुछ पुलिस वाले खा गए, ताई के हाथ मैं दस हजार रख गए, और छोरे का चाल-चलन का इंतजाम कर दिया। बस मामला खत्म। अच्छा पोती तो है न भाई, मैंने पूछा। अब है कि नहीं पता नहीं। थोड़े दिन तो बस्ती में दिखी, लोग खाना-वाना दे देते थे। अब महीनेभर से ऊपर हो गया है। 15-16 बरस की थी शायद, किसी की नजर पड़ गई होगी या कहीं….। अरे छी! क्या कह रहे हो। कुछ पता तो लगाते। देखो साहब ये जो मजबूर होते हैं न उनके जिंदगी बड़े मजे लेती है। ये थाना, कोर्ट, कचहरी हम गरीबों के लिए नहीं है। और लड़की जात का कौन कितने दिन ध्यान रखता। जी तो मेरा भी हुआ था कि मेरे घर का ही कामकाज कर लेगी, काट लेगी जिंदगी। अब मेरे घर में ही दो छोरे हैं, मुस्टंडों से पड़े रहते है। अब क्या-क्या हाल कहूं। कल को कुछ अच्छी-बुरी हो जाती, तो क्या मुंह दिखाता। देखो साहब अफसोस जताने वाले बहुत मिलते हैं, मदद करने वाला कोई नहीं होता, आपको क्या लगा ताई की कहानी मैं पहली बार सुना रहा हूं। लोग आते हैं, पूछते हैं, मैं भी बताता हूं, वो अफसोस जताते हैं, चले जाते हैं। किसी का क्या लगा, कुछ नहीं। उस दिन आपको ताई ने सौ के चौबीस बताए थे। आपने दीये थे क्या ? चालीस बचा कर निकले थे या नहीं। यहां सबको पैसे से प्यार है साहब। सब गरीब की गर्दन पर पैर रखते हैं। ये मॉल में जाकर देखा है किसी को भाव-ताव करते। इतने मैं दूसरा ग्राहक आ गया, और वो व्यस्त हो गया।

घर पहुंचते ही मुझे लगा कि मेरे ऊपर मानो बोझ किसी ने रख दिया है। वो चालीस रुपए 4 करोड़ से होकर मेरे कानों में गूंजने लगे। अनमना-सा मैं घर में घुसा ही था कि आवाज आई सुनो आज तुम्हारी फेवरेट गट्टे की सब्जी…. पूरा सुने बिना ही अं….हा ठीक है, कहकर मैं सोफे पर पसर गया। एसी चल रहा था, फिर भी मैं पसीने से तरबतर था। अचानक मैंने पूछा वो दीवाली के दीये कहां हैं। जवाब आया, क्यों ? कुछ तो टूट गए थे, 12-15 ऊपर छत पर ही पड़े हैं, बच्चे पेंटिंग कर लेंगे। सुनते ही मैं छत पर दौड़ा। दीये की थैली को नीचे लाकर बोला। सुनो, कल सुबह पुष्कर चलेंगे। मैं रातभर सोने की कोशिश में ही लगा रहा, पर ताई का चेहरा आंखों में घूमता रहा।

सुबह 6 बजे हम निकल पड़े। गौ-घाट पर चालीस रुपए रख, लाल कपडे़ मैं बंधे दीये खोले, और हाथ जोड़कर जल में विसर्जित कर दिए। अब तक श्रीमतीजी मुझे कौतुक दृष्टि से देख रही थी, बोल पड़ी, ये सब क्या ? मेरे मुंह से बरबस निकल पड़ा ’’माटी थी, माटी हो गई’’।

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