(दिव्यराष्ट्र के लिए सुनील कुमार शर्मा)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत यूँ तो जुलाई 1941 में अजमेर में हुई थी, जहाँ डोडा धर्मशाला के पास नियमित शाखा लगती थी। राजस्थान आए पहले प्रचारक विश्वनाथ लिमथे ने यह विधिवत शुरुआत की। यद्यपि 1941 से पूर्व भी शाखा लगती थी, पर वह न तो व्यवस्थित थी और न ही औपचारिक।
सन् 1938–39 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय रेल विभाग की भी अपनी सेना बनी थी। उसमें दीघे नामक एक स्वयंसेवक थे, जो नागपुर से आए थे। उन्होंने ही अजमेर में पहली बार शाखा लगाई। उस समय अजमेर और नागपुर, उत्तर भारत के डाक विभाग के बड़े केंद्र थे, जहाँ पोस्ट मास्टर जनरल बैठते थे और टेलीग्राम विभाग भी डाक विभाग का अंग था। यहाँ नागपुर से स्थानांतरित होकर आने वाले कर्मचारी और अधिकारी, जो स्वयंसेवक थे, जब तक अजमेर में सेवा करते शाखा लगाते रहते और उनके चले जाने पर शाखा बंद हो जाती। 1940 से पहले बाबा साहब और दादाराव परमार्थ भी अजमेर आए थे।
विश्वनाथ लिमथे ने पाँच स्वयंसेवकों के साथ जुलाई 1941 में अजमेर में पहली व्यवस्थित शाखा स्थापित की। उसमें शिवसेवक अवस्थी पहले मुख्य शिक्षक बने। स्वयंसेवक उन्हें प्रेम से ‘शिवाजी’ पुकारते थे। अन्य स्वयंसेवकों में देवनारायण मेहरा, द्वारिका भार्गव, उदयराम आर्य और काका रामसिंह शामिल थे। ये सभी उन दिनों आर्य समाज के अखाड़े में व्यायाम भी करते थे। इसी कारण लिमथे आर्य समाज के अध्यक्ष जियालाल के पास ठहरे। कुछ समय बाद, शासन की अनुमति न रहने के कारण शाखा चंद्रकुंड (कुत्ता खाना) परिसर में लगने लगी। यह स्थान शहर के आवारा और पागल कुत्तों की बाड़ेबंदी के कारण ‘कुत्ता खाना’ कहलाता था।
अक्टूबर 1941 में कमलाकर और कृष्णचंद्र भार्गव (भैयाजी) को स्वयंसेवक बनाया गया। ये दोनों साथ में क्रिकेट खेलते थे। किशन भैयाजी 1946 में 19 वर्ष की आयु में प्रचारक बने। इससे पहले भी कुछ प्रचारक निकले थे, पर वे अल्प अवधि के लिए थे। किशन भैयाजी के साथ प्रचारक बनने वालों में सुंदर सिंह भंडारी, रामराज व्यास, कमलाकर लिमथे, शिवनारायण मेहरा, भंवरसिंह और जयदेव पाठक प्रमुख थे।
उस समय राजस्थान अलग प्रांत नहीं था, बल्कि दिल्ली प्रांत का भाग माना जाता था। प्रचारकों की पहली टोली में सुंदर सिंह भंडारी को जोधपुर विभाग, रामराज व्यास को अजमेर जिला, कमलाकर लिमथे को मेवाड़, शिवनारायण सिंह सेहरा को सांभर, भगवान सिंह को शेखावाटी-चूरू और कृष्ण भैयाजी को बीकानेर का दायित्व मिला। जब ये सभी स्वयंसेवक प्रचारक बनकर निकले, तब सुंदर सिंह भंडारी एक विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे और कानपुर से वकालत कर चुके थे। रामराज व्यास अध्यापक थे और कृष्ण भैयाजी रेलवे वर्कशॉप में प्रशिक्षु थे।
सन् 1942 में जयपुर, जोधपुर, अलवर, बीकानेर, डीडवाना, उदयपुर, चित्तौड़ और कोटा में संघ कार्य का आरंभ हुआ। रोचक तथ्य यह है कि अजमेर को छोड़कर इन सभी स्थानों पर शाखाएँ ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ नाम से नहीं लगती थीं। कई जगह स्वयंसेवकों को प्रणाम हाथ जोड़कर ही करना पड़ता था। यद्यपि संघ का कोई खुला विरोध नहीं था, पर रियासतें संघ की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखती थीं।
1942 में जयपुर में पहली शाखा पान का दरीबा क्षेत्र में रामेश्वर शर्मा ने लगाई। इसी प्रकार 1942–43 में जोधपुर में अपने मामा के यहाँ पढ़ने आए गोविंद फडणवीस ने शाखा शुरू की। उन दिनों संघ शिक्षा वर्ग मेरठ में लगता था। 1943 में दिल्ली प्रांत का प्रथम शिक्षा वर्ग मेरठ में आयोजित हुआ, जिसमें राजस्थान से 32 स्वयंसेवकों ने भाग लिया।
1949 में पंडित लेखराज शर्मा राजस्थान के पहले प्रांत प्रचारक बने। इसी समय राजस्थान को दिल्ली प्रांत से अलग कर स्वतंत्र प्रांत बनाया गया। संख्या कम होने के कारण शुरुआती वर्षों में शिक्षा वर्ग दिल्ली प्रांत के साथ संयुक्त रूप से लगाए जाते थे। 1961 में पहली बार केवल राजस्थान के स्वयंसेवकों का शिक्षा वर्ग अजमेर में आयोजित हुआ, जिसमें 169 स्वयंसेवकों ने भाग लिया।
1947 में भारत विभाजन की त्रासदी के दौरान संघ ने जनसेवा और राष्ट्रभक्ति का अदम्य परिचय दिया, जिससे जनता में संघ के प्रति अत्यधिक सम्मान बढ़ा। 1947 के शिक्षा वर्ग के बाद राजस्थान को एक साथ 80 प्रचारक मिले, जिससे कार्य में तेजी आई और जनमानस में संघ की सकारात्मक छवि फैलने लगी। परंतु उसी वर्ष गांधीजी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस कारण 60–65 प्रचारक अपने घर लौट गए और केवल 10–12 प्रचारक ही सक्रिय रहे, जिनमें लालकृष्ण आडवाणी और ठाकुरदास टंडन प्रमुख थे। संघ पर से प्रतिबंध हटाने के लिए स्वयंसेवकों ने बड़ा सत्याग्रह किया, जिसमें लगभग 80 हजार व्यक्ति जेल गए—यह अपने आप में एक कीर्तिमान था।
पुराने प्रचारक बताते हैं कि उन दिनों प्रचारक अधिकांशतः पैदल ही प्रवास करते थे। उनकी पहचान कम होने से भोजन की भी बड़ी कठिनाई रहती थी। 1943 से 1946 तक राजस्थान के प्रभारी रहे हंसराज व्यास अक्सर सड़कों पर हलवाइयों के तख्तों पर सोते थे। उनका कहना था कि 1958 में जब ब्रह्मदेव प्रांत प्रचारक बने, तभी से संघ कार्य को अभूतपूर्व गति मिली। वर्तमान में राजस्थान क्षेत्र का पुनर्गठन कर तीन प्रांत—जयपुर, जोधपुर और चित्तौड़—बनाए गए हैं।