धर्म, संस्कृति व स्त्री शिक्षा के लिये समर्पित वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर

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300वीं जयन्ती (31 मई) पर विशेष

(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. विजय विप्लवी उदयपुर)

अहिल्याबाई होल्कर की तीन सौवीं का जयन्ती पूरे देश में उल्लास के साथ मनाई जा रही है। जीवन की तीन शताब्दियां व्यतीत होने बाद राष्ट्र या समाज जिस शासक को स्मृत रखे, निसंदेह वह विशेष है। ऐसे शासक कम ही है, जिनको इतने वर्षों पश्चात भी देश ने श्रद्धाभाव से स्मृत रखा है। सामान्य परिवार में जन्म और अल्पायु में विवाह के बाद विधवा हुई, अहिल्याबाई ने लगभग 30 वर्ष तक शासन किया। उन्होंने अपने राज्य के बाहर भी विभिन्न तीर्थस्थानों पर निर्माण कराये, जो आज भी मौजूद है।
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के चौंड़ी(जामखेडा, अहमदनगर) में सामान्य किसान परिवार में हुआ। कभी स्कूल नहीं गईं थीं। उन्हें उनके पिता मनकोजी सिंधिया ने ही अक्षर ज्ञान करवाया था। 1733 में यानी महज आठ साल की उम्र में ही उनका विवाह मल्हार राव खांडेकर के बेटे खांडेराव होलकर से कर दिया गया था।
1754 में मात्र बीस वर्ष की आयु में उनके पति खांडेराव होलकर कुम्भार के युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए। तब अहिल्याबाई की उम्र 19 वर्ष की थी और वे विधवा हो गईं। उस समय की प्रथा के अनुसार, पति की मौत के बाद पत्नी को सती बनना पड़ता था। अहिल्याबाई ने इसका विरोध किया और सती बनने से इनकार कर दिया। इस निर्णय में उनके ससुर मल्हार राव खांडेकर भी उनके साथ थे। लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था।
1766 में मल्हार राव खांडेकर भी दुनिया को अलविदा कह गए तो अहिल्याबाई को अपना राज्य ताश के पत्तों के जैसा बिखरता नजर आ रहा था। तब अहिल्याबाई ने अपने बेटे मालेराव होलकर को सिंहासन संभलाया था। लेकिन अगले ही साल एक बार उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा और उनके जवान बेटे मालेराव होलकर का निधन हो गया। यह दौर ऐसा था जब इंदौर का सिंहासन खाली था। अहिल्याबाई पति, ससुर और जवान बेटे को खो चुकी थी। शत्रु राज्य के बाहर लालची निगाहों से टकटकी लगाकर इसी मौके की तलाश में थे। इस स्थिति को भांपकर अहिल्याबाई ने राजगद्दी की बागडोर खुद अपने हाथ में संभाली और इंदौर की शासक के तौर पर शपथ ली।
मालेराव के निधन के बाद अहिल्याबाई ने तत्कालीन पेशवा कोमालवा के प्रशासन को संभालने की अनुमति मांगी थी। अनुमति मिलने के साथ ही वे मालवा की शासक भी बन गईं।
11 दिसम्बर 1767 को अहिल्याबाई होलकर का राज्याभिषेक हुआ। उन्होनें धार्मिक व तीर्थ स्थानों का निर्माण करवाया ही साथ ही नारी शिक्षा का महत्व समझकर इसके लिये समाज को प्रेरित किया। नर्मदा तट पर महेश्वर किले का निर्माण करवाया।
भारत माता की वह बेटी जिसने 275 साल पहले ही कुरीतियों की बेड़ियों को तोड़ डाला। संकट के समय जब जरूरत पड़ी तो अपनी प्रजा के लिए घोड़े पर सवार होकर हाथ में खड़ग लिए जंग भी लड़ी। धर्म का संदेश फैलाया, संस्कृति संरक्षण, बालिका शिक्षा, महिला अधिकारों और औद्योगीकरण को बढ़ावा दिया।
होलकर साम्राज्य की महारानी अहिल्याबाई होलकर भारतीय इतिहास की कुशल महिला शासकों में से एक रही हैं।
लेकिन आस-पास के राजाओं को यह रास नहीं आया, पर होलकर सेना उनके समर्थन में खड़ी रही और अपनी महारानी के हर फैसले में उनकी ताकत बनी। इस बीच, मालवा को कमजोर जानकर और राज्य हड़पने के उद्देश्य से राघोवा पेशवा ने अपनी सेना इंदौर भेजी। लेकिन यह अहिल्याबाई की राजनीतिक कूटनीति का ही परिणाम था कि उनके एक पत्र से यह युद्ध टल गया और आक्रमण करने वाले पेशवा ने उन्हें उनके राज्य की रक्षा का वचन भी दिया।
अहिल्याबाई में राजनीति, प्रशासन, कूटनीति व युद्धनीति की गहरी समझ थी। उनका हृदय उदार था। वे शांति के साथ राज्य व जनता की प्रगति चाहती थी, लेकिन राज्य की सुरक्षा के लिये उन्होनें समरभूमि में जाने से भी कभी गुरेज नहीं किया।
अहिल्याबाई ने सोमनाथ, त्रयंम्बकेश्वर, गया, पुष्कर, वृंदावन, आलमपुर, हरिद्वार, काशी, बद्रीनाथ, केदारनाथ, देवप्रयाग, चिकलदा, सुलपेश्वर, मंडलेश्वर, ओंकारेश्वर मांधाता, हडिया में निर्माण कार्य करवाया , यह सब निर्माण अपने आपमें ऐतिहासिक है। अन्य किसी राजा ने अपने राज्य के बाहर इस प्रकार का निर्माण नहीं करवाया था। इससे स्पष्ट होता है कि वे अपने राज्य की भौतिक सीमाओं से परे पूरे भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र मानती थी।
उन्होंने नर्मदा तट पर स्थित महेश्वर किले में 13 अगस्त 1795 को अंतिम श्वास ली। जनता के हृदयों पर शासन करने वाली वो महारानी चिरनिद्रा में लीन हो गयी। देश व समाज आज भी उनके व्यक्तित्व व कृतित्व का यशोगान कर रहा है, यह उनके यशस्वी जीवन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वीरांगना अहिल्याबाई होल्कर को शत शत नमन..
डॉ. विजय विप्लवी
पूर्व पार्षद, उदयपुर

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