सांगली, दिव्यराष्ट्र। खरतरगच्छाधिपति गुरुदेव श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म. ने सांगली में धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा- सत्संग में हम अपने जीवन और व्यवहार का परिवर्तन करने के लिये आये हैं। यदि स्वभाव में बदलाव नहीं आया तो गंगा गये पर प्यासे लौट आये, वाली हकीकत हम पर लागू होगी।
उन्होंने कहा- हमें हृदय परिवर्तन करने का संकल्प लेना है। हृदय को साफ करना है ताकि जिनवाणी व परमात्मा के प्रति श्रद्धा का रस हमारे अन्तर में प्रविष्ट हो सके। मन को मजबूत बनाना है। सुख और दुःख दोनों ही स्थितियों में समभाव का अभ्यास करना है। उन्होंने कहा- हम मन की गुलामी का जीवन जी रहे हैं। हमने हमेशा मन का आदेश मानना ही सीखा है। मन को आदेश देना अभी तक नहीं आया। हमें ऐसी साधना करना है कि मन को आदेश देना सीख सके। जो व्यक्ति अपने मन को समझाना, मनाना, आदेश देना जान लेता है, वह अपने जीवन को सार्थक कर लेता है।
उन्होंने कहा- जब मन बदलता है, तो जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन घटित होता है। फिर दृश्य वही रहते हैं पर दृष्टि और द्रष्टा बदल जाता है। द्रष्टा का परिवर्तन स्थायी हो जाता है। फिर सुख में वह व्यक्ति सुखी होकर नाचने नहीं लग जाता और दुःख आने पर रोने नहीं बैठ जाता। वह दोनों ही स्थितियों में समभाव में रहता है। यह समभाव ही आत्मा का परम आनन्द है।
उन्होंने कहा- जीवन हमारे अपने हाथों में है । उसे चाहे जिस दिशा में मोडा जा सकता है । कोई दूसरा व्यक्ति हमारे जीवन के लिये उत्तरदायी नहीं हो सकता । जीवन एक किताब है बिल्कुल कोरी पोथी है । उन खाली पन्नों पर हम चाहे तो गालियॉं भी लिख सकते हैं और चाहे तो गीत भी ! चाहे तो ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, हिंसा, अनाचार, अत्याचार की गालियॉं भी लिख सकते हैं और चाहे तो परमात्म भक्ति के, परोपकार के, संवेदना और सहयोग के, प्रेम, विनय और वात्सल्य के मीठे अनूठे गीत भी लिख सकते हैं । निर्णय हमें स्वयं को ही करना होगा कि हम अपना जीवन कैसा चाहते हैं ।
उन्होंने कहा- परमात्मा से संसार की प्रार्थना करने वाला व्यक्ति धर्म से नासमझ है। जिसने धर्म को समझा है, वह व्यक्ति सुख पाने या दुख मिटाने की प्रार्थना नहीं करता। वह सुख दुख में समभाव में रहने का संकल्प चाहता है। वह यही प्रार्थना करेगा कि सुख कितना भी हो, प्रभो! मुझे वह शक्ति देना, जिससे मेरे मन में उस सुख के प्रति आसक्ति का भाव नहीं जगे! अहंकार का भाव मन में नहीं आने पाये। दुख को दूर करने की बजाय वह यह प्रार्थना करेगा कि प्रभो! दुख में भी आपका स्मरण सदा बना रहे और दुख में भी सुख का अनुभव करूॅं, ऐसी शक्ति वह चाहता है।
उन्होंने कहा- मैं कहॉं से आया हूॅं, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न है- मुझे कहॉं जाना है? आगे की चिंता करो और अभी से चिंता करो। अपने भविष्य का निर्माण हमें ही करना है। हमारे अपने ही हाथों में है हमारा भविष्य! यह हमारा स्थायी ठिकाना नहीं है। यहॉं से तो हमें चलना ही पडेगा। पर कहॉं जाना है, इसका निर्णय हमारा आचरण करेगा। इसलिये अपने आचरण पर लगातार निगाह रखो। संघ के ट्रस्टी महावीर भंसाली ने बताया कि आचार्यश्री यहॉं से मिरज, बेडग, अथनी होते हुए बीजापुर की ओर विहार करेंगे। जहॉं वे 9 मई को प्रवेश करेंगे।