
लद्दाख का नाम सुनते ही मन में बर्फ़ से ढकी पहाड़ियाँ, निर्मल नदियाँ, नीले आकाश और सादगी भरे चेहरे उभर आते हैं। पर इस सुंदरता के पीछे एक गहरी चिंता भी छिपी है — पर्यावरण, पहचान और अधिकारों की। और इन्हीं तीनों मोर्चों पर एक व्यक्ति पिछले कुछ वर्षों से शांतिपूर्वक लेकिन दृढ़ता के साथ खड़ा है — सोनम वांगचुक। वह केवल एक अभियंता या नवप्रवर्तनकर्ता नहीं, बल्कि आज के समय में एक विचार, एक चेतना और एक प्रतिरोध का प्रतीक बन चुके हैं।
सोनम वांगचुक को पहली बार दुनिया ने तब जाना जब उन्होंने लद्दाख के सूखे रेगिस्तान में जल संरक्षण की अनोखी तकनीक “आईस स्तूप” विकसित की। बर्फ़ के इन कृत्रिम शिखरों ने सर्दियों के पानी को गर्मियों तक संजोने का रास्ता दिखाया। यह एक स्थानीय समाधान था — विज्ञान और प्रकृति के बीच तालमेल का उदाहरण। वांगचुक की यही सोच आगे चलकर उनके सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण का आधार बनी।
2019 में जब अनुच्छेद 370 और 35A हटाए गए और जम्मू-कश्मीर को विभाजित कर लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया, तब स्थानीय जनता ने इसे ऐतिहासिक अवसर माना। उम्मीद थी कि अब दिल्ली के सीधे नियंत्रण में आने से विकास की रफ्तार बढ़ेगी, पर्यटन फलेगा-फूलेगा और रोजगार के नए रास्ते खुलेंगे। लेकिन बहुत जल्द यह सपना हकीकत से टकराया। लद्दाख के लोग देख रहे थे कि बिना विधानसभा, बिना संवैधानिक सुरक्षा और बिना भूमि अधिकारों के वे धीरे-धीरे अपने ही घर में पराये बनते जा रहे हैं।
लद्दाख की जनसंख्या बेहद कम है और क्षेत्रफल विशाल। यहाँ की भूमि और संसाधन हमेशा से सामुदायिक स्वामित्व में रहे हैं। पर अब जब बड़े कॉर्पोरेट और उद्योग समूह पर्यटन और खनन में निवेश की योजनाएँ बना रहे हैं, तब स्थानीय लोगों को यह डर सता रहा है कि कहीं उनकी जमीनें, जलस्रोत और पारंपरिक आजीविका उनसे छिन न जाएँ। इसी भय ने “छठी अनुसूची” की माँग को जन्म दिया — ताकि संविधान के तहत जनजातीय क्षेत्रों की तरह लद्दाख को भी अपने प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा का अधिकार मिल सके।
सोनम वांगचुक ने इस मुद्दे को शांतिपूर्वक लेकिन प्रखर स्वर में उठाया। उन्होंने किसी राजनीतिक दल का झंडा नहीं थामा, बल्कि गांधीवादी मार्ग चुना। मार्च 2024 में लेह की कड़ाके की ठंड में उन्होंने ‘क्लाइमेट फास्ट’ किया — खुले आसमान के नीचे, बर्फ़ के बीच। यह उपवास केवल छठी अनुसूची की माँग के लिए नहीं था, बल्कि हिमालयी पारिस्थितिकी की सुरक्षा के लिए एक प्रतीकात्मक पुकार भी था। उन्होंने कहा था, “यह धरना किसी व्यक्ति या सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि हिमालय को बचाने की प्रार्थना है।”
उनके इस अहिंसक आंदोलन ने न केवल देश बल्कि दुनिया भर के पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित किया। विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों और सामाजिक संगठनों ने उनके समर्थन में आवाज़ उठाई। लेकिन दूसरी ओर प्रशासन ने इसे सुरक्षा और नियंत्रण के चश्मे से देखा। वांगचुक को कई बार नज़रबंद किया गया, सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगी, और सोशल मीडिया पोस्ट तक को निगरानी में रखा गया। यह विरोधाभास आज के भारत की उस स्थिति को उजागर करता है, जहाँ पर्यावरण की चिंता को अक्सर राजनीतिक असहमति समझ लिया जाता है।
लद्दाख के इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें स्थानीय बौद्ध और मुस्लिम समुदाय कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं। चाहे लेह हो या कारगिल, दोनों ज़िलों के लोग समझ चुके हैं कि यह संघर्ष किसी धर्म या क्षेत्र का नहीं, बल्कि अस्तित्व का है। यही कारण है कि सोनम वांगचुक की अपील ने विभाजनों से ऊपर उठकर “लद्दाखियत” की भावना को मज़बूत किया है।
आज की ताज़ा स्थिति यह है कि सितंबर 2025 तक केंद्र सरकार ने छठी अनुसूची पर कोई ठोस निर्णय नहीं लिया है। केवल एक उच्च स्तरीय समिति का गठन हुआ, लेकिन बातचीत परिणामहीन रही। इस बीच लद्दाख ऑटोनॉमी मूवमेंट और नागरिक समूहों ने नई रणनीतियाँ अपनाई हैं। हाल ही में वांगचुक ने “माउंटेन मार्च” अभियान शुरू किया है — एक ऐसा जन-जागरण जिसमें गाँव-गाँव जाकर लोगों को जलवायु परिवर्तन, टिकाऊ पर्यटन, और भूमि अधिकारों के प्रति शिक्षित किया जाएगा।
लेकिन इस आंदोलन की राह कठिन है। एक ओर सीमाई सुरक्षा की जटिलताएँ हैं, दूसरी ओर दिल्ली की विकास-नीति जो औद्योगिक निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर को प्राथमिकता देती है। लद्दाख की सीमाएँ चीन और पाकिस्तान दोनों से लगती हैं, इसलिए वहाँ का हर प्रशासनिक निर्णय रणनीतिक दृष्टि से देखा जाता है। यही कारण है कि लद्दाख की मांगों को केंद्र केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सुरक्षा से जुड़ी संवेदनशीलता के रूप में लेता है।
फिर भी, सोनम वांगचुक का दृष्टिकोण स्पष्ट है — वह विकास के विरोधी नहीं हैं। उनका कहना है, “हमें ऐसा विकास चाहिए जो पहाड़ों की आत्मा के अनुरूप हो। यहाँ का हर पत्थर, हर झरना, हर जीव पर्यावरण की लय में बसा है। अगर हमने इस लय को तोड़ा, तो न लद्दाख बचेगा, न भारत की पारिस्थितिक सुरक्षा।”
उनकी यह चेतावनी केवल लद्दाख के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए है। जब हम पहाड़ों को खोदकर सड़कों और होटलों में बदल रहे हैं, नदियों को मोड़कर बांधों में बाँध रहे हैं, तब हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रकृति हमेशा उधार नहीं देती — वह बदला भी लेती है। हाल ही में हिमाचल और उत्तराखंड की आपदाओं ने यह सच्चाई स्पष्ट कर दी है।
सोनम वांगचुक का संघर्ष हमें यह भी सोचने को विवश करता है कि क्या लोकतंत्र में विकास और संवाद एक साथ नहीं चल सकते? क्या पर्यावरण की रक्षा को देशभक्ति का रूप नहीं दिया जाना चाहिए, न कि असहमति का? उनकी राह कठिन है, पर उनकी आवाज़ स्वच्छ है। वह सत्ता से टकराने नहीं, बात करने निकले हैं — उस भाषा में जो गांधी, बुद्ध और हिमालय — तीनों की भाषा है — शांति, सादगी और सत्य की।
आज लद्दाख की ठंडी हवाओं में यह प्रश्न गूंज रहा है — क्या हम अपने पहाड़ों की आत्मा बचा पाएँगे या उसे भी तथाकथित प्रगति की भीड़ में खो देंगे? सोनम वांगचुक का संघर्ष हमें यह याद दिलाता है कि पहाड़ केवल भौगोलिक सीमा नहीं, बल्कि भारत की आत्मा हैं — और आत्मा की रक्षा हर युग में किसी न किसी ‘वांगचुक’ से अपेक्षा करती है।