(पं.दीनदयाल उपाध्याय ने’एकात्म मानव-दर्शन’ का सिद्धांत दिया दीनदयाल की 25 सितंबर पर जयंती विशेष )

जयपुर। व्यक्तिगत हित, परिवारहित के लिए छोड़ देना चाहिए। समाजहित के लिए परिवार हित को कुर्बान कर देना चाहिए और राष्ट्रहित के लिए परिवार हित को तिरोहित किया जाना चाहिए। यह कथन पं.दीनदयाल उपाध्याय का था। उनका जन्म 25 सितम्बर,1916 को हुआ। उनके विचारों की सुगंध से ना सिर्फ करोड़ लोग प्रभावित हुए बल्कि पूंजीवाद और साम्यवाद की विचारधाराओं के बीच भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से निकला ’एकात्म मानव-दर्शन’ का सिद्धांत देकर स्वदेशी चिंतन का अहसास कराया। उनका मानना था कि स्वदेशी और लघु उद्योग भारत की आर्थिक योजना की आधारशिला होनी चाहिए, जिसमें सद्भाव, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय नीति और अनुशासन का समावेश हो। स्वदेशी की प्राथमिकता रखते हुए वह विश्व स्तर पर हो रहे नवाचारों के भी कतई खिलाफ नहीं थे। उन्होंने राष्ट्र को सर्वोपरी माना, लेकिन पश्चिम की एक विचारधारा रही है, जिसमें व्यक्ति को ही महत्व दिया जाता है। वे कहते थे कि व्यक्ति से बड़ा परिवार, परिवार से बड़ा समाज और समाज से बड़ा राष्ट्र होता है। वे अपने चिंतन में राष्ट्र को प्रथम स्थान पर रखते थे। उनका मानना था कि राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति को सुख, समृद्धि, शिक्षा, संस्कार मिलने चाहिए। सरकार की नीति होनी चाहिए कि इसके नागरिक सुखपूर्वक जीवन गुजार सकें। जबकि नागरिक का भी धर्म है कि वह राष्ट्र के अभ्युदय और विकास के लिए अधिक से अधिक कार्य करें। उनका आग्रह था कि शासन को व्यापार नहीं करना चाहिए। जबकि व्यापारी के हाथ में शासन संचालन के सूत्र भी नहीं होने चाहिए। वे लोकमत परिष्कार को जीवन के लिए आवश्यक मानते थे। विकेंद्रीकृत अर्थव्यवस्था के समर्थक होने के कारण केन्द्रीयकरण को लोकतंत्र और समाज के लिए घातक समझते थे।
उपाध्याय के राजनीतिक विचारों में उनका मूल तत्व लोकतांत्रिक शासन पद्धति व प्रक्रिया से अधिक उनकी रूचि लोकतांत्रिक सामाजिक संस्कृति में रही है। राज्य व्यवस्था से अधिक इनकी रूचि समाज की ’धर्म चेतना’ में रही है।
दीनदयाल उपाध्याय ने प्रजातंत्र की अवधारणा को स्वीकार किया है। भारत में आजादी के बाद ही लोकतंत्र की स्थापना व वयस्क मताधिकार की संवैधानिक व्यवस्था हुई। उनका मानना था कि लोकतंत्र भारत को पश्चिम की देन नहीं है। भारत की पंचायतीराज व्यवस्था लोकतंत्र का मूल आधार है। वे कहते थे कि ’वैदिक सभा’ और ’समिति’ का गठन जनतंत्रीय आधार पर ही होता था और मध्यकालीन अनेक गणराज्य पूर्णतः जनतंत्रीय थे। उनका मानना था कि लोकमत का तात्कालिक निर्णय चाहे बहुमत से हो, लेकिन लोकमत केवल बहुमत के शासन व अल्पमतों की वैचारिक स्वतंत्रता से अपने को ठीक प्रकार से अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। इससे दलीय कटुता व समाज में अखण्ड कलह का निर्माण होता है, अतः लोकतंत्र न बहुमत का शासन है, न अल्पमत का, वह जनता की सामान्य इच्छा का शासन है। लोकतंत्र के भारतीयकरण पर प्रकाश डालते हुए कहते थे कि पश्चिम ने लोकतंत्र को निर्वाचन की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया प्रदान की है। संविधान में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का सृजन किया है। लेकिन यह लोकतंत्र का औपचारिक स्वरूप है। लोकतंत्र की असली आत्मा उसके स्वरूप में नहीं, वरन् जनाकांक्षा को सही रूप में प्रतिबिंबित करने की भावना में है।
बालिग मताधिकार और निर्वाचन पद्धति जनतंत्र के बहुत बड़े अंग हैं, किन्तु इनसे ही जनतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती। रूस में दोनों विद्यमान हैं, किन्तु राजनीतिक विशेषज्ञ इसे जनतंत्र मानने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका मानना था कि मताधिकार और निर्वाचन के साथ एक भावना भी जनतंत्र के लिए आवश्यक है। केवल बहुमत का शासन ही लोकतंत्र नहीं है। ऐसे तंत्र में तो जनता का एक वर्ग सदैव ऐसा रहेगा, जिसकी आवाज चाहे वह सही ही क्यों न हो, दबा दी जाएगी। जनतंत्र का यह स्वरूप ’सर्वजनहिताय – सर्वजनसुखाय’ नहीं हो सकता। भारतीय जनतंत्र की कल्पना में निर्वाचन, बहुमत, अल्पमत आदि बाहरी व्यवस्थाओं के स्थान पर सभी मतों के सामंजस्य और समन्वय पर ही बल दिया गया है। वे कहते थे कि खेल के लिए जैसे दो दलों का होना आवश्यक है, वैसे ही संसद में दो दलों का होना आवश्यक समझा जाता है। दीनदयाल उपाध्याय ’पॉलिटिकल डायरी’ के प्रथम संस्मरण के पृष्ठ 139 में लिखते हैं कि ’कहा जाता है कि एक बार पश्चिमी एशिया के एक अतिथि राजा का ब्रिटिश पार्लियामेंट में विरोधी दल के नेता से परिचय कराया गया और यह बताया गया कि इसे राजकोष से वेतन मिलता है। तब अतिथि राजा उलझन में पड़ गए। वह यह नहीं समझ पाए कि ऐसे व्यक्ति को जो सरकार का विरोध करता है, सरकारी कोष से कैसे वेतन दिया जाता है।’
इसी तरह राज्य का समाज जीवन में क्या स्थान है? इस विषय पर राजनीति विज्ञान में मत-भिन्नता रही है। कुछ विद्वानों का मानना है कि ’राज्य एक आवश्यक बुराई है।’ कुछ कहते हैं कि ’राज्य एक अनावश्यक बुराई है। जबकि दीनदयाल उपाध्याय का मानना रहा है कि राज्य संस्था समाज के लिए आवश्यक है। वे ’राज्य’ को न तो समाज व राष्ट्र के समानार्थी मानते हैं, न समाज का पूर्ण प्रतिनिधि। वे मानते हैं कि राज्य, समाज द्वारा अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए बनाई गई, एक संस्था है। सर्वसत्तावादी राज्य के वे नितांत खिलाफ थे। वे इस मत से सहमत थे कि ’राज्य’ समाज जितना की बाधाओं की बाधा है तथा ’शासन वह अच्छा, जो कम से कम शासन करे। केवल औपचारिक कानून के बल पर शासन का चलना वे समाज की अस्पष्टता की निशानी मानते थे। समाज जितनी स्वायत्ता से चले, समाज का जितना नियमन लोक-शिक्षा, लोक संस्कार व लोकमत-परिष्कार से हो उतना ही अच्छा है। दीनदयाल उपाध्याय ने पाश्चात्य जगत में पूंजीवाद और समाजवाद की अतिवादी बहस का समाधान ’लोक कल्याणकारी राज्य’ की अवधारणा से किया है।
उपाध्याय का पत्रकारिता में योगदान:
दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीतिक और सामाजिक व्यस्तताओं के बीच भी पत्रकारिता के माध्यम से अपने राजनीतिक विचारों को जनता तक पहुंचाया। उन्होंने पत्रकारिता उसी समय शुरू की, जब देश आजाद होने वाला था। राष्ट्रीय विचार से प्रेरित वर्ष 1947 में ’लखनऊ’ से प्रकाशित होने वाले ’राष्ट्रधर्म’ के साथ उन्होंने पत्रकारिता शुरू की। 14 जनवरी, 1948 को उनकी प्रेरणा से ’पांचजन्य’ प्रकाशित हुआ और बाद के वर्षों में ’स्वदेश’ समाचार पत्र भी प्रकाशित होने लगा। हालांकि, उपाध्याय किसी भी समाचार पत्र और पाक्षिक के सम्पादक नहीं बने, लेकिन वे पत्र इनकी प्रेरणा से ही प्रकाशित हुए थे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्मारिका ’समग्र दृष्टि’ प्रकाशन – पं. दीनदयाल उपाध्याय जन्मभूमि स्मारक समिति मथुरा 1991 पृ. 28-29 में लिखा है कि – ’’उपाध्याय जी के साथ रहने का अवसर पहली बार सन् 1947 में मिला। लखनऊ से मासिक ’राष्ट्रधर्म’ प्रकाशित करने का निश्चय किया गया था। मैं डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर से सीधा लखनऊ पहुंचा। मेरे साथ राजीव लोचन अग्निहोत्री भी थे, जो सम्पादन कला में मेरी तरह कोरे थे। किन्तु यह देखकर अच्छा लगा कि मैं सम्पादन केवल नाम का था, काम करने और करवाने के लिए उपाध्यायजी स्वयं मौजूद थे। ’राष्ट्रधर्म’ का पहला सम्पादकीय उपाध्यायजी ने ही लिखा था। उपाध्याय जी के लिए सीखना और सिखाना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया थी। काम करते-करते वे सिखाते जाते और सीखते-सीखते सिखाते जाते थे।’ वे पत्रकारिता में आदर्शवाद के आग्रही थे। पत्रकारिता की औपचारिक पढ़ाई नहीं करने के बाद भी पत्रकारिता में नए मुहावरे गढे थे। उनका आदर्श था कि पत्रकार की भाषा सौम्य रहनी चाहिए। पत्रकार को हमेशा सत्य ही लिखना चाहिए। उन्होंने आजादी के संघर्ष के दौर में पत्रकारिता शुरू की थी, जब पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी।