( डॉ. शुचि चौहान*दिव्यराष्ट्र के लिए*)
वर्ष 1942, दिनांक 17 मार्च, अवसर था वर्ष प्रतिपदा का। एक कृश काय सन्यासी लोगों को सम्बोधित कर रहा था- “हमारा अहोभाग्य है कि हम आज जैसी संकटपूर्ण परिस्थिति में पैदा हुए हैं। संसार में उसी का नाम अमर होता है, जो संकटकाल में कुछ कर दिखाता है। एक वर्ष के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन के सारे विचार स्थगित कर दीजिए। इस असिधारा व्रत को अपनाकर एक वर्ष के लिए संन्यासी बन जाइए। अपने प्रति चाहे जितना कठोर बनना पड़े, उसके लिए तैयार हो जाइए।” यह वह दौर था, जब भारत स्वतंत्रता की लड़ाई के निर्णायक चरण में था और मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग कर रही थी। जगह-जगह दंगे हो रहे थे। ऐसे समय में संन्यासी के आह्वान का युवाओं पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उद्बोधन के बाद कुछ ही दिनों में अकेले अमृतसर से 52 और लाहौर से 48 युवाओं ने स्वयं को राष्ट्र सेवा के लिए संन्यासी के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। इनमें बड़ी संख्या में डॉक्टर, स्नात्कोत्तर, स्नातक और शास्त्री शामिल थे। यह तपस्वी और कोई नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी थे।
गुरुजी का संघ से परिचय बनारस में हुआ, जहां वे पहले पढ़ाई और बाद में अध्यापन से जुड़े थे। वहीं पर उनकी भेंट भैय्याजी दाणी से हुई। भैय्याजी एक स्वयंसेवक थे और डॉ. हेडगेवार की प्रेरणा से बनारस में संघ कार्य कर रहे थे। भैय्याजी ने श्री गुरुजी को शाखा से जोड़ दिया, जिसका बाद में उन्होंने नेतृत्व भी किया। 1937 में जब श्री गुरुजी नागपुर लौटे, तब डॉ. हेडगेवार के निकट सहयोगी बनकर कार्य करने लगे। श्री गुरुजी के समर्पण और नेतृत्वशीलता जैसे गुणों को देखते हुए उन्हें 1939 में सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में वे संघ के सरसंघचालक बने। इस समय संघ महाराष्ट्र के बाहर दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मुंबई आदि प्रांतों में फैल चुका था, लेकिन देश का बड़ा हिस्सा अभी भी अछूता था। गुरुजी ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार देने का बीड़ा उठाया।
लेकिन यह आसान नहीं था। तब संघ कार्य बहुत कठिन होता था।पूर्णकालिक प्रचारक बहुत कम थे। प्रचारकों के पास भोजन-पानी से लेकर रात को रहने तक का कोई ठिकाना न था। बस एक झोला होता था, जिसमें एक जोड़ी कपड़े, कभी कभी सत्तू या सूखी रोटी, कोई पुस्तक या पेपर व पेन होता था। घरों में सम्पर्क और शाखा कार्य की चुनौतियाँ थीं। सम्पर्क के लिए भी पैदल ही घूमना पड़ता था। गुरुजी ने सबसे पहले प्रचारकों की संख्या बढ़ाने और शाखा विस्तार पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने लाहौर, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अनेक यात्राएँ कीं। जन सम्पर्क बढ़ाया। युवाओं को प्रचारक बनने के लिए प्रेरित किया। इन प्रचारकों को देश के अलग अलग भागों में संघ कार्य के विस्तार के लिए भेजा। वे अपने उद्बोधनों में प्रायः कहा करते थे कि यदि देश के मात्र तीन प्रतिशत लोग भी समर्पित होकर देश की सेवा में लग जाएं तो देश की बहुत सी समस्यायें स्वतः समाप्त हो जायेंगी।
वह कहते थे, शाखाएं संघ की रक्त वाहिनियां हैं, इनकी मजबूती आवश्यक है। वर्ष 1950 में वे पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में आए। प्रभात शाखा के स्वयंसेवक माला लेकर स्टेशन पहुंचे तो उन्होंने माला पहनने से मना कर दिया और कहा, ‘आप शाखा छोड़कर क्यों आए हो? क्या आप मुझे नेता मानते हो? मुझे अच्छी शाखा चाहिए। अच्छी शाखा देखता हूं तो मेरे शब्दों में शक्ति आ जाती है।’
गुरुजी कार्यकर्ताओं की सँभाल बहुत अच्छी करते थे। उनका व्यवहार ऐसा था कि जो उनसे मिलता, उनका ही होकर रह जाता था। उनका यह गुण भी संघ विस्तार में बहुत काम आया। बाला साहब देवरस अक्सर कहा करते थे, गुरुजी ने अपने परिश्रम और व्यक्तिगत सम्पर्क के माध्यम से देव दुर्लभ कार्यकर्ता निर्मित किए और उन्हें निरंतर सक्रिय रखा।
गुरुजी एक ओर ऐसे कार्यकर्ता गढ़ रहे थे और संघ विस्तार कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर देश में अनेक चुनौतियां एक एक कर सामने आ रही थीं, जिनमें सही निर्णय और दूरदर्शिता अत्यंत आवश्यक थी।
1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ। 1946 में बंगाल में डायरेक्ट एक्शन डे पर मुस्लिम लीग ने हजारों हिन्दू काट डाले गए। अगस्त 1947 में भारत विभाजन हुआ, उस समय भी हिन्दुओं की लाशों से भरी रेलगाड़ियां पाकिस्तान से भारत पहुंचीं। अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कश्मीर को लेकर भारत पर हमला किया। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई। 20 हजार स्वयंसेवकों समेत गुरुजी गिरफ्तार कर लिए गए, संघ पर प्रतिबंध लगा। 1962 में चीन से युद्ध हुआ और 1965 में पाकिस्तान से। इन सभी अवसरों पर गुरुजी के नेतृत्व में संघ स्वयंसेवकों का जो सेवा और समर्पण भाव सामने आया, उससे हर बार संघ पहले से मजबूत हुआ, उसका विस्तार हुआ। 1973 तक इसकी शाखाओं का जाल पूरे देश में फैल गया था।
इसी दौर में समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में जहॉं-जहॉं आवश्यकता लगी स्वयंसेवकों ने गुरुजी की प्रेरणा से 23 से अधिक संगठन भी खड़े किए। 1948 में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की स्थापना की गई। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए विस्थापितों की दुर्दशा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के व्यवहार से खिन्न होकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संसद से 8 अप्रैल 1950 को त्यागपत्र दे दिया और एक नए राजनीति दल के गठन की आवश्यकता अनुभव की, तो वे श्री गुरुजी से मिले। उसके बाद 1951 में जनसंघ की स्थापना हुई। इसी प्रकार 1952 में श्री गुरुजी और ठक्कर बप्पा की प्रेरणा से वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई। 1955 में श्रमिक क्षेत्र में विशुद्ध भारतीय दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण आवश्यक मानते हुए श्री गुरुजी की ही प्रेरणा से दत्तोपंत ठेंगड़ी ने भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की। इनके साथ ही विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती आदि संगठनों की स्थापना के श्री गुरुजी प्रेरणा स्रोत रहे। गुरुजी के नेतृत्वकाल में ही पूरे विश्व के हिन्दुओं के लिए एक सांस्कृतिक व आध्यात्मिक संगठन खड़ा करने का निर्णय लिया गया, जिसे आज हम एचएसएस के नाम से जानते हैं। वर्तमान में यह 156 देशों में सक्रिय है और इसकी शाखाओं की अनुमानित संख्या 3289 है।
संघ इस विजयादशमी (2 अक्टूबर) को सौ वर्ष का हो गया। इससे जुड़े संगठनों की संख्या 32 से अधिक हो गई है। वर्तमान में देशभर में एक करोड़ से अधिक स्वयंसेवक हैं, इनमें से लगभग 6 लाख प्रतिदिन शाखा जाते हैं। इसके अतिरिक्त भी कई स्वयंसेवक विविध क्षेत्रों में संघ प्रेरित संगठनों में कार्यरत हैं। देश भर में 73,646 स्थानों पर संघ की गतिविधियां चल रही हैं। 83,139 शाखाएं लग रही हैं। सरसंघचालक के आह्वान पर दो वर्ष का समय देने वाले 2,453 लोगों ने अपना घर छोड़ा है। संघ अब विशाल वटवृक्ष बन चुका है। इस सफलता के पीछे बहुत बड़ा हाथ श्री गुरुजी की दूरदर्शिता का है। संघ आज भी उसी संगठनात्मक संरचना पर चल रहा है, जिसे उन्होंने वर्षों की तपस्या से गढ़ा था।