
भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 6 अक्तूबर 2025 को घटी एक घटना ने न केवल न्यायपालिका बल्कि पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान वरिष्ठ वकील राकेश किशोर ने मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गावई की ओर जूता फेंकने का प्रयास किया। यह जूता न्यायाधीश तक नहीं पहुँचा, लेकिन इस घटना ने अदालत की गरिमा, वकीलों की अनुशासनशीलता और लोकतांत्रिक असहमति की मर्यादा पर गंभीर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए।
कहा गया कि वकील की यह प्रतिक्रिया न्यायमूर्ति की उस टिप्पणी से उपजी थी, जिसे उन्होंने “धार्मिक अपमान” माना। उनका कहना था कि न्यायाधीश ने सनातन धर्म से जुड़ी याचिका पर ऐसा कथन किया था जिससे उनकी आस्था को ठेस पहुँची। अदालत के भीतर उन्होंने नारे लगाए और भावनात्मक आवेश में यह असंयमित कदम उठाया। सुरक्षा कर्मियों ने तुरंत हस्तक्षेप किया और न्यायाधीश ने पूरे धैर्य से कहा कि ऐसे व्यवहार से न्याय व्यवस्था को विचलित नहीं होना चाहिए।
घटना के तुरंत बाद बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने वकील की सदस्यता निलंबित कर दी और अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू कर दी। देश के अधिकांश राजनीतिक और न्यायिक वर्ग ने इस कृत्य की निंदा की, यह कहते हुए कि किसी भी असहमति की अभिव्यक्ति हिंसक या अपमानजनक नहीं हो सकती। लेकिन इस घटना के पीछे जो सामाजिक और राजनीतिक भावनाएँ छिपी हैं, उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता।
भारत जैसे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोच्च मूल्य है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि हम गरिमा की सीमाएँ तोड़ दें। न्यायालय केवल कानूनी संस्था नहीं, बल्कि संविधान की आत्मा का प्रतीक है। वहाँ हिंसा या अपमान की कोई जगह नहीं। जूता फेंकने जैसी हरकत न केवल व्यक्तिगत गरिमा का हनन है बल्कि उस संस्थागत विश्वास को भी चोट पहुँचाती है जिस पर न्याय व्यवस्था खड़ी है।
हालाँकि, यह भी सच है कि न्यायपालिका की निष्पक्षता और भाषा-संवेदनशीलता पर जनता का विश्वास तभी बनेगा जब न्यायाधीश अपने विचारों में संतुलन और सावधानी बरतें। न्यायाधीश के किसी कथन को यदि कोई समुदाय या व्यक्ति अपमानजनक मानता है, तो उसे शिकायत, समीक्षा या जनसंवाद के वैधानिक मार्ग अपनाने चाहिए। परंतु ऐसी भावनात्मक प्रतिक्रिया यह दिखाती है कि असहमति को व्यक्त करने के शांतिपूर्ण रास्ते हमारे समाज में कमज़ोर पड़ रहे हैं।
इस घटना का राजनीतिक आयाम भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। दलित पृष्ठभूमि से आने वाले मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ़ इस तरह का व्यवहार सामाजिक विभाजन और छिपे पूर्वाग्रहों की ओर इशारा करता है। कुछ राजनीतिक दल इसे “धार्मिक असंतोष” कह रहे हैं, तो कुछ “जातीय असहिष्णुता” के रूप में देख रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जब न्यायपालिका और धर्म-भावना के बीच सीधी टकराहट होती है, तो लोकतंत्र का संतुलन डगमगाने लगता है।
इस प्रकरण का सबसे बड़ा सबक यही है कि असहमति को हिंसा से नहीं, विवेक से व्यक्त किया जाना चाहिए। यदि न्यायाधीशों की भाषा पर सवाल हैं, तो उसके समाधान का रास्ता कानून के भीतर है, न कि न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुँचाने में। इसी तरह न्यायपालिका को भी यह स्वीकार करना होगा कि समाज की आस्थाएँ केवल भावनाएँ नहीं, बल्कि सांस्कृतिक तंतु हैं, जिन्हें संवेदनशीलता से संभालना चाहिए।
जूता फेंकने जैसी घटनाएँ हमें यह याद दिलाती हैं कि लोकतंत्र की ताक़त संस्थाओं की गरिमा में है, न कि उनके अपमान में। एक मज़बूत लोकतंत्र वही है जो आलोचना सुन सके, पर उसकी प्रतिक्रिया संयमित और संवेदनशील हो। न्यायालय की दीवारें केवल कानून की भाषा से नहीं, बल्कि नागरिकों के विश्वास से टिकती हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि न्यायपालिका और समाज के बीच संवाद की पुल मजबूत रहे — ताकि असहमति भी आदर के साथ व्यक्त हो और न्याय भी सम्मान के साथ दिया जा सके।