
(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. सीमा दाधीच)
भारतीय सभ्यता संस्कृति में पौराणिक काल से वर्तमान काल तक शिक्षण,शिष्य का दर्पण सिद्ध हुआ है। वैदिककाल,उत्तर वैदिक काल,सत्य युग,त्रेता युग,द्वापर युग,कलयुग यथा आधुनिक काल तक हम दृष्टिपात करें तो अनेकों प्रसंग गुरु (शिक्षक) शिक्षार्थी (शिष्य) में समन्वय स्थापित करने हेतु हमारे सामने अवतरित हुए है। भारत विश्व में जगतगुरु के रूप में विख्यात था क्योंकि भारतीय शिक्षण पद्धति एवं शिक्षक के कर्तव्यों की एक विशाल ज्योत के समान प्रज्वलित थी। भारतीय धर्म ग्रंथ यथा रामायण,महाभारत, वेद,पुराण,उपनिषद, आरण्यक,सूत्र , स्मृतियो,संहिताऐ, महाकाव्य, खंडकाव्य इत्यादि में गुरु ,शिष्य के संबंधों के बेजोड़ उदाहरण हमारे सामने आते हैं। शिष्य पाषाण है तो शिक्षक मूर्तिकार है। शिष्य रूपी पत्थर को गुरु तराशकर श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मूर्ति का निर्माण करता है। जिसका प्रकाश एवं आभा परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व को मिलता है एवं जिससे अज्ञान रूपी अंधकार दूर हो ज्ञान रूपी प्रकाश हमेशा प्रसारित होता रहे। ज्ञान द्वारा अज्ञान को मुक्त करवाना ही शिक्षा का लक्ष्य होता है वह कार्य शिक्षक के बिना असंभव है। भारतीय वांगमय में तभी प्रत्येक जन को गुरु बनाने की प्रेरणा प्रदान की जाती है। शिक्षक ही वह माध्यम है जो शिष्य की अतृप्तता को तृप्ता एवं लक्ष्य को विभेदित करने का मार्ग बताता है। गुरु शिष्य की परंपरा को देखते हैं तो भारतवर्ष में शिक्षक शिष्य की स्वाभाविकता के अनेकों दर्शन एवं प्रसंग दृष्टिगोचर होते हैं। द्वापर युग में अयोध्या के राजा दशरथ ने पुत्र श्री राम,भरत,लक्ष्मण, शत्रुघ्न की शिक्षा एवं दीक्षा हेतु महर्षि वशिष्ठ को नियुक्त किया था। किशोरावस्था में सात्विक एवं अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा हेतु ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र को नियुक्त किया गया। शास्त्रों में जगह-जगह प्रसंग आता है कि देवताओं के गुरु बृहस्पति एवं दानवों के गुरु शुक्राचार्य ने अपने उपासकों के लिए हर संभव प्रकार की शिक्षा प्रदान की थी। पौराणिक समय में शिक्षक द्वारा शिष्य को नैतिक, राजनीतिक,सामाजिक, धार्मिक, अस्त्र-शस्त्र सहित प्रत्येक प्रकार की शिक्षा प्रदान करके शिष्य को प्रत्येक क्षेत्र में पारंगत किया जाता था।रामायण में एक स्थान पर प्रसंग आता है कि जब भगवान श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम ने लंकाधिपति रावण की नाभि में तीर मारा और रावण मरणासन्न पर था तो श्री राम ने लक्ष्मण से कहा रावण प्रकांड विद्वान है अतः उससे राजनीति एवं दर्शनशास्त्र की शिक्षा को लेकर अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करो। अतः यह कहा जा सकता है कि रावण की विद्वत्ता से श्री राम भी प्रभावित थे। महाभारत काल में कुरुवंश के राजा शांतनु के पुत्र देवव्रत(भीष्म) ने भी श्रीपरशुराम से शिक्षा ग्रहण करके स्वयं को इतिहास में गौरान्वित किया था। दानवीर कर्ण ने भी भगवान तुल्य परशुराम से शिक्षा ग्रहण करके अपना नाम जगत में अमर कर दिया। जब कौरव और पांडव राजकुमार शिक्षा के योग्य हुए तो कुरुवंश के कुलगुरु कृपाचार्य से शिक्षा ग्रहण की लेकिन अस्त्र-शास्त्र में पारंगत बनाने हेतु गुरु द्रोणाचार्य को विशेष रूप से नियुक्त किया गया था जिसकी परिणिति में पांडुपुत्र गांडीवधारी अर्जुन धनुर्विद्या में विश्व का सर्वशक्तिमान धनुर्विद्या का ज्ञाता बना। इस काल में भील युवक एकलव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया तो उसने गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा को साक्ष्य मानकर धनुर्विद्या में दक्षता प्राप्त कर ली। एकलव्य ने गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोण को अपना अंगूठा काटकर गुरु को समर्पित करके गुरु शिष्य की एतिहासिक मिसाल पेश। व्यक्तित्व का निर्माण,चरित्र का निर्माण और मानव समाज का निर्माण का दायित्व शिक्षक पर ही होता है वह ही समाज दशा एवं दिशा को प्राणवान बनाता है। भगवान श्री कृष्ण ने गुरु सांदीपनी के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करके विश्व कल्याण के अग्रदूत बनकर विश्व समाज के निर्माण में जो सहयोग प्रदान किया अविस्मरणीयता का प्रतीक है जो वर्तमान विश्व के कल्याण हेतु गीता रूप ग्रंथ में प्रसांगिक बना हुआ है। भगवान श्री कृष्ण को “कृष्ण वंदे जगद्गुरुम” कहा गया है, कहा जाता है कि श्री कृष्ण पांडु पुत्र धनुर्धारी अर्जुन के गुरु थे उन्होंने ही धनंजय (अर्जुन) को गीता का उपदेश देकर महाभारत के युद्ध में न्याय एवं धर्म की सीख प्रदान करके एक सच्चे शिक्षक की भूमिका का निर्वहन किया था। महाभारत का युद्ध विश्व के सबसे बड़े शिक्षक,गीता सबसे बड़ी पुस्तक तथा अर्जुन सबसे बड़ा शिष्य में अग्रिणी रहा, जिसने विश्व को अपने औज से चमत्कृत किया जिसका औज सर्वव्यापक रूप में बना हुआ है और यह अपनी किरणों को सूर्य के समान विश्व पटल पर प्रस्तुत कर रहा है। गीता का ज्ञान कृष्ण ने शिक्षक रूप में अर्जुन को दिया। कृष्ण ज्ञान के स्रोत के समान युद्ध में अर्जुन के सारथी रूप में साथ रहे। अर्जुन ने ज्ञान को कृष्ण की उपस्थिति में ही जिया। कृष्ण अर्जुन का अभेद स्वरूप, एक दूसरे पर अटूट विश्वास तथा सत्य,धर्म व न्याय की मर्यादा उनको अमर कर दिया। श्रीकृष्ण,अर्जुन के शिक्षक के साथ सखा भी थे। कृष्ण जैसे शिक्षक, धर्मक्षेत्र से पलायन कर रहे अपने शिष्य अर्जुन को आध्यात्मिक,नैतिक, सांसारिक तथा सामाजिक सामरिक भावभूमि में दृढ़ता से प्रतिष्ठित करते हैं। जब जब अर्जुन अटकता है, फंसता है, कृष्ण बहुआयामी शिक्षक के रूप में मार्गदर्शन करते हैं और नीति,नैतिकता धर्म का ज्ञान भी देते हैं। महावीर कर्ण,आचार्य द्रोण,जयदत्त,भीष्म, दुर्योधन आदि के वध में तो मुख्य सलाहकार की भूमिका कृष्ण ने ही सारथी बनकर अर्जुन को विजय बनाया।भारत में ऐसे कई शिक्षक हैं जिन्होंने अखंड भारत के निर्माण में अपना योगदान देकर शिक्षक शिष्य की गरिमा को पूरे ब्रह्मांड में फैलाया।
चाणक्य जिन्हें विष्णगुप्त व कौटिल्य कहा जाता है जो ऐसे शिक्षक थे जिन्होंने अन्यायी शासक को साम्राज्य से उखाड़ने के लिए शिक्षक की परिभाषा ही बदल दी। चाणक्य के काल में मगध पर अत्याचारी व असहिष्णु शासक घनानंद का शासन था उसको समाप्त करने के लिए चंद्रगुप्त मौर्य जैसा ऐसे शिष्य को शिष्यत्व प्रदान किया जिसमें शिक्षक की गरिमा को शिखर पर पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया। चाणक्य ने अपने आप को ऐसे शिक्षक के रूप में पहचान बनाई जिसे समस्त विश्व नमन करता है। चाणक्य ने अपने धैर्य, कौशल एवं बुद्धिमत्ता से ऐसे विशाल साम्राज्य स्थापित करवाया जो राष्ट्रनीति का सर्वोत्तम उदाहरण है। चाणक्य ने अपने शिक्षकत्व को संपूर्ण जीवन में निर्वहन करके विश्व को अचंभित कर दिया। एक प्रसंग आता है कि एक बार विदेशी मेहमान चाणक्य से मिलने आए तो वह अपनी कुटिया में दीपक जलाकर कुछ कार्य कर रहे थे उनके आने की बाद दीपक को बुझा दिया और दूसरा दीपक चलाया। आगंतुक ने प्रश्न किया आपने एक दीपक बंद करके दूसरा दीपक क्यों जलाया। चाणक्य ने उत्तर दिया पहले दीपक से में राजकीय कार्य कर रहा था,अब आपसे वार्तालाप कर रहा हूं इसलिए इस दीपक का तेल मेरा है अतः इसको मैंने जलाया। उनकी राष्ट्रीयता से आगंतुक कायल हो गए। ऐसे शिक्षक थे चाणक्य जिन्होंने अखंड भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया।
प्राचीन काल में भारत विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र था जिसमें संपूर्ण विश्व की विद्यार्थी भारत में आकर शिक्षा ग्रहण करते थे और यहां शिक्षा का प्रकाश अपने देश में फैलाते थे। प्राचीन भारत में नालंदा, तक्षशिला एवं विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालय थे जिनकी ख्याति विश्व के प्रत्येक भाग में थी। यहां से शिक्षा प्राप्त करना अपने आप में गौरव था यहां पर हजारों विद्यार्थी सैकड़ो आचार्यों से नैतिक,धार्मिक, सामाजिक,दार्शनिक आयुर्वेदिक,आध्यात्मिक, खगोलीय,नक्षत्र विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करके इसका सकारात्मक उपयोग करते थे।रामचरितमानस के रचयिता विश्व कवि तुलसीदास जैसे अज्ञानी को गुरु नरहरिया नंदाचार्य ने ज्ञान प्रदान करके विश्वविख्यात महाकवि के रूप में प्रणीत किया जो इतिहास में अमर हो गए। राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता प्रेमी महाराज छत्रपति शिवाजी को कौन नहीं जानता जिनके गुरु समर्थ रामदास शिवाजी को ऐसे गणों से ओत प्रोत किया कि उन्होंने भारत की स्वतंत्रता हेतु जीवन पर्यंत संघर्ष की कहानी को गढ़ दिया है। गुरु रामदास के योगदान का कोई सानी नहीं। शिवाजी की राष्ट्रभक्ति के सामने अत्याचारी औरंगजेब जीवन पर्यंत शिवाजी को काबू नहीं कर सका। संपूर्ण विश्व में भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद का मार्गदर्शन उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने किया। विवेकानंद ने शिकागो(अमेरिका) के विश्व धर्म सम्मेलन में भारत की दर्शनशास्त्र एवं आध्यात्मिकता का लोहा पूरे विश्व में मनवाया। स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व के निर्माण में गुरु परमहंस का अतुलनीय योगदान था विवेकानंद युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं एवं मार्गदर्शक माने जाते हैं। विवेकानंद का व्यक्तित्व आज भी ज्वलयमान किरण पुंज के रूप में आज भी विश्व में चमक रहा है। भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन का शिक्षक के रूप में योगदान अविस्मरणीय है। वर्तमान युग में डॉ. राधाकृष्णन के समर्पण का औचित्य अपने आप में एक सुकून है। प्रत्येक वर्ष 5 सितंबर को राधाकृष्णन के जन्म को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शनशास्त्र एवं आध्यात्मिकता का संपूर्ण विश्व में परचम फहराया। उनका शिक्षण कार्य शिक्षक के रूप में चिरस्थायी रहेगा। शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैतवाद को आधुनिक युग के दर्शन के सामने प्रस्तुत कर भारतीय दर्शनशास्त्र की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करवाने में महत्ती भूमिका का निर्वहन किया जिसके फलस्वरुप आधुनिक विद्वान भी नतमस्तक हो गए। डॉ. राधाकृष्णन का शिक्षण कार्य के प्रति प्रवत्त हो कर शिष्यों में ज्योति उत्पन्न करने में विशेष योगदान रहा। जिसके फलस्वरुप उनके शिष्यों ने अनेक जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया जो उनके अविस्मरणीय योगदान को चरित्र करता है। वर्तमान सदी में भारत की जनता के राष्ट्रपति महान वैज्ञानिक अब्दुल कलाम का नाम सर्वोपरि है। डॉ.अब्दुल कलाम पर उनके प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक सुब्रह्मण्य अय्यर का बहुत प्रभाव रहा इन्हीं की प्रेरणा से कलाम ने एयरोस्पेस के क्षेत्र में को चुनाव और भारत के बहुत बड़े वैज्ञानिक के रूप में स्वयं को प्रतिस्थापित किया। कलाम कहा करते थे कि व्यक्ति को सपने देखना चाहिए क्योंकि सपने ही हकीकत में बदलते हैं। उनकी पुस्तक विंग्स आफ फायर शिक्षार्थियों में विशेष रूप से लोकप्रिय है, डॉ. कलाम स्वयं को वैज्ञानिक या राष्ट्रपति से ज्यादा शिक्षक कहलाना पसंद करते थे वे विद्यार्थियों में शिक्षक के रूप में बहुत लोकप्रिय थे। कलाम शिक्षक शिक्षार्थी के संबंध को जीने में यकीन रखते थे उनको पढ़ाने व पढ़ने में बहुत मजा आता था। कलाम की मृत्यु भी शिलांग में पढ़ाते हुए महान शिक्षक के रूप में हुई थी। राजस्थान सरकार ने डॉ.कलाम के त्याग एवं समर्पण को देखते हुए उनके जन्मदिन को विद्यार्थी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया।
यदि हम आदिकाल से वर्तमान युग की बात करें तो शिक्षा,शिक्षक एवं शिक्षार्थियों का दायित्व,कर्तव्य एवं सोच के आमूल चूल परिवर्तन से आया है। भारत में पुराने समय में शिक्षार्थी गुरुकुल में रहकर गुरु की सानिध्य में विभिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण करते थे। बाद में विश्वविद्यालय एवं कई प्रकार के नवीन विद्यालयों की स्थापना होने लगी व शिक्षा के स्वरूप में परिवर्तन आया जिसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों में बदलाव आया। आज आधुनिक शिक्षा में वैज्ञानिकता एवं तकनीक प्रवेश हो गया जिससे शिक्षा में नवाचार उत्पन्न होने लगा। शिक्षा प्राप्त करने के तरीकों में भी बदलाव आया। विशेष रूप से महिला शिक्षा में हालांकि वैदिक काल में गार्गी एवं मैत्रीय नाम की विदुषी महिलाओं का प्रसंग आता है जिन्होंने अपनी विद्वता का लोहा मनवाया। वर्तमान में संचार माध्यमों, सैटेलाइट एवं दूरस्थ माध्यम से शिक्षा में नवीन क्रांति का सूत्रपात हुआ। आज यदि हम महिला शिक्षा की बात करें तो प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी सफलता के झंडे गाड़े हैं। उन्होंने सभी क्षेत्र में अपनी योग्यता की धाक जमाई है यदि हम अंतरराष्ट्रीय मंच पर महिला की भागीदारी की बात करें तो वह पुरुषों से आगे बढ़ गई है। वर्तमान में शिक्षा प्रदान करने के नए-नए आयाम स्थापित हुए है। विशेष रूप से ग्रामीण एवं सुदूर क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं के लिए दूरस्थ शिक्षा का स्रोत , दूरस्थ शिक्षा ने आधुनिक शिक्षा पद्धति की नींव को बदल ही दिया है। यह ऐसा माध्यम है जिसमें महिलाओं को शिक्षा से जोड़ने का बहुआयामी कार्य किया गया है ग्रामीण एवं दुर्गम क्षेत्रों में महिलाओं को शिक्षा से जोड़ना बहुत दुष्कर कार्य था लेकिन जब से दुरुस्त शिक्षा का आयाम स्थापित हुआ महिलाओं की शिक्षा के प्रति जागरूकता में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। इसी दुरस्थ शिक्षा ने महिलाओं को वैश्विक परिदृश्य पर स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। दूरस्थ शिक्षा से महिलाओं, बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ना प्रगति के पथ की कड़ी के रूप में प्रस्तुत हुआ है। यदि हम प्राचीन भारत की शिक्षा पर मंथन करें तो संस्कृत शिक्षा का प्रभाव जनमानस के पटल पर सर्वाधिक रहा है। पुराने समय में गुरुकुल में संस्कृत शिक्षा ही माध्यम था क्योंकि प्राचीन भारत के संपूर्ण साहित्यकार रचना संस्कृत में ही हुआ करती थी। संस्कृत को देव भाषा कहा जाता है सभी भाषाओं के जननी संस्कृत ही मानी जाती है। संस्कृति तथा संस्कृति एक दूसरे का पर्याय है। दोनों का समावेश शिक्षा का सबसे बड़ा स्रोत है। श्रावण मास की पूर्णिमा तथा रक्षाबंधन के दिन संस्कृत दिवस के रूप में मनाया जाता है।भारत के शिक्षा मंत्री डॉ. वी. के.आर.वी.राव ने वर्ष 1969 ई. से श्रावण मास पूर्णिमा को संस्कृत दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। संस्कृत दिवस को श्रावण पूर्णिमा को मनाने का कारण था कि वैदिक काल में विद्याध्ययन एवं उपनयन संस्कार इसी दिन प्रारंभ होता था।इसलिए श्रावण मास की पूर्णिमा को संस्कृत दिवस के रूप में मनाना प्रारंभ किया। शिक्षक दिवस एवं संस्कृत दिवस पर सखी आपणी संस्थान की सचिव डॉ. सीमा दाधीच ने बताया की संस्कृत सभी भाषाओं का ऐसा प्रारूप है जिसके बिना किसी भी भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती थी। साथ ही शिक्षक, शिष्य की समन्वयात्मक परंपरा को सभ्यता संस्कृति का वाहक होता है सखी आपणी संस्थान के माध्यम से भी दूरस्थ शिक्षा, बालिका शिक्षा, महिलाओं को शिक्षा के प्रति जागरूक बनाने एवं शिक्षा से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है और निरन्तर प्रयासरत है।