संविधान सभा ने वर्ष 1949 में हिंदी को राजभाषा के रूप में अपनाया था। आजादी के बाद हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के संबंध में तमाम बहस-मुहाबिसें हुईं। अहिंदी भाषी राज्य हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के पक्षधर नहीं थे। इनमें भी दक्षिण भारतीय राज्य जैसे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश पश्चिम बंगाल प्रमुख थे। उनका तर्क था कि हिंदी उनकी मातृभाषा नहीं है और यदि इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया जाएगा तो ये उनके साथ अन्याय सरीखा होगा।

अहिंदी भाषी राज्यों के विरोध को देखते हुए संविधान निर्माताओं ने मध्यमार्ग अपनाते हुए हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया, इसके साथ ही अंग्रेजी को भी राज्यभाषा का दर्जा दिया गया। वर्ष 1953 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव दिया तब से ये दिन हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।हिंदी वह भाषा है जिसने कृश्मीर से कन्याकुमारी तक संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँध रखा है। किंतु आज जन की भाषा हिंदी के समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं।अगर हिंदी भाषा की एक भाषा के तौर पर सामयिक स्थिति का विश्लेषण किया जाए तो इसके समक्ष अनेक चुनौतियाँ हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो इसे ‘राष्ट्रभाषा की स्वीकार्यता’ का न मिलना है। इसके अलावा एक उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग ऐसा भी है जो हिंदी बोलने में शर्म और हिचकिचाहट महसूस करता है। हिंदी भारत की सार्वभौमिक संवाद भाषा भी नहीं है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 41 फीसदी आबादी की ही मातृभाषा हिंदी है। इसके अलावा लगभग 75 फीसदी भारतीयों की दूसरी भाषा हिंदी है जो इसे बोल और समझ सकते हैं।अंग्रेजी के प्रति मोह हिंदी अत्यंत समृद्ध भाषा है पर इतनी स्मृद्धता के बाद भी बातचीत में इंग्लिश शब्दों के प्रयोग का मोह हम छोड़ नहीं पाते। बात-बात में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हमारी मानसिक दरिद्रता, भाषीय ग़ुलामी और अपनी भाषा के प्रति उदासीनता का परिचायक है। हिंदी को लेकर हम हीन भावना से ग्रस्त रहते हैं और अंग्रेजी भाषा को ग़ुरूर के साथ उच्च स्तर पर पहुँचा रहे हैं।अंग्रेजी के प्रति यह मोह ग़ुलाम मानसिकता का द्योतक है।
भाषा का स्वरूप विकृत हो रहा है।व्यक्ति अभिव्यक्ति का मुख्य तत्व राजभाषा मातृभाषा थी वो ही उपेक्षित और नगण्य हो गई। विद्यार्थियों अधिकारियों के साथ सामान्य जन की सहज साधारण भाषा में भी अंग्रेजी शब्दों की भरमार हो गई है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि वो हिंदी बोल रहा है या अंग्रेजी। वह एक खिचड़ी, बिगड़ी, अशुद्ध और कामचलाऊ भाषा के दम पर सब कुछ पा लेना चाहता है। ये मानसिकता हिंदी भाषा के उपयोग और विकास को अवरूद्ध कर हमारी पहचान को मिटा रही है
अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई, अंग्रेजी से संबद्ध आधुनिकता का बोध और विदेशी संस्कृति के प्रति आकर्षण हिंदी भाषा के समक्ष विकट चुनौती है। अंग्रेजी के प्रति यह मोह रुझान और झुकाव न सिर्फ़ महानगरों बल्कि गाँवों और कस्बों तक भी फैल रहा है जिससे हिंदी की अस्मिता पर संकट मंडरा रहा है और उसका विकास बाधित हो रहा है।एकीकरण का अभाव: भारत की 42% आबादी हिंदी बोलती है। फिर भी, इसकी राजभाषा का दर्जा विभिन्न भाषाई समूहों को एकजुट नहीं कर पाया है। इसके बजाय, इसे थोपे जाने के कारण गैर-हिंदी भाषियों में नाराजगी पैदा हुई है।
हिंदी भाषा के सामने एक प्रमुख चुनौती यह है कि यह अब तक रोजगार की भाषा नहीं बन पाई है। आज तमाम मल्टीनेशनल कंपनियों के दैनिक कामकाज से लेकर कार्य संचालन की भाषा अंग्रेजी है। इसके अलावा तमाम क्षेत्रीय राजनीतिक और सामाजिक संगठन भी अपने निहित स्वार्थों के लिए हिंदी का विरोध करते हैं। अभी भी भारत में उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा का माध्यम ज्यादातर अंग्रेजी ही रहता है। हिंदी भाषा की हालत आज ऐसी है कि इसके संबंध में जागरूकता सृजन के लिए विभिन्न सेमिनारों, समारोहों और कार्यक्रमों का सहारा लेना पड़ता है।हालांकि इंटरनेट के बढ़ते इस्तेमाल ने हिंदी भाषा के भविष्य के संबंध में भी नई राहें दिखाई है। गूगल के अनुसार भारत में अंग्रेजी भाषा में जहाँ विषयवस्तु निर्माण की रफ्तार 19 फीसदी है तो हिंदी के लिए ये आंकड़ा 94 फीसदी है। इसलिए हिंदी को नई सूचना-प्रौद्योगिकी की जरूरतों के मुताबिक ढाला जाए तो ये इस भाषा के विकास में बेहद उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के स्तर पर तो प्रयास किए ही जाने चाहिए, निजी स्तर पर भी लोगों को इसे खूब प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हिंदी भाषियों को भी गैर हिंदी भाषियों को खुले दिल से स्वीकार करना होगा। उनकी भाषा-संस्कृति को समझना होगा तभी वो हिंदी को खुले मन से स्वीकार करने को तैयार होंगे।
हिंदी दिवस से भाषा दिवस तक: 14 सितंबर को हिंदी दिवस से भाषा दिवस में बदलें। इस दिन को सभी भारतीय भाषाओं को मनाना चाहिए।
राज्यों और स्वयंसेवी संस्थाओं को इसे बढ़ावा देना होगा। सिनेमा और खेलों ने स्वाभाविक रूप से सरकारी प्रयासों से ज़्यादा हिंदी के प्रभाव को बढ़ाया है। हिंदी की आगे की राह में इसका ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनना, तकनीक और व्यावसायिक क्षेत्रों में इसका विस्तार, और इंटरनेट व डिजिटल मंचों पर इसका प्रभुत्व बढ़ाना शामिल है। विश्व स्तर पर अपनी स्थिति मजबूत करने, इसे हर स्तर की शिक्षा में अनिवार्य करने और विभिन्न प्रदेशों की भाषाओं के साथ सामंजस्य बिठाते हुए इसे राष्ट्रीय एकता के सूत्र में पिरोना भी इसके भविष्य के लिए आवश्यक है।