गुरु पूर्णिमा उत्सव पर विशेष
(दिव्यराष्ट्र के लिए लेखाराम बिश्नोई लेखक व विचारक)
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोच्च है। वेद, उपनिषद, पुराण और अनेक धार्मिक ग्रंथों में गुरु को ईश्वर से भी ऊपर स्थान दिया गया है। गुरु न केवल ज्ञान का स्रोत होते हैं, बल्कि वे शिष्य के जीवन को सही दिशा प्रदान करते हैं। गुरु पूर्णिमा वह पावन पर्व है, जो गुरु के प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करने के लिए मनाया जाता है। यह पर्व भारतीय संस्कृति की उस जड़ को दर्शाता है, जिसमें ज्ञान, विनम्रता और समर्पण का बीज बोया गया है।
गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। यह पर्व महर्षि वेदव्यास की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है, जिन्होंने महाभारत जैसे महाकाव्य की रचना की और चारों वेदों का संपादन किया। उन्हें ‘आदिगुरु’ की संज्ञा दी जाती है। इस दिन शिष्य अपने गुरु को स्मरण करते हैं, उनका आशीर्वाद लेते हैं और गुरु-दक्षिणा अर्पित करते हैं।
गुरु पूर्णिमा केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि यह आत्मिक उन्नति का अवसर है। यह दिन आत्मचिंतन, आभार और आत्मविकास का प्रतीक बन चुका है। भारतवर्ष की संस्कृति में यह पर्व विद्यार्थियों, साधकों, योगियों और समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
गुरु गुरु केवल वही नहीं होते जो विद्यालय या पाठशाला में पढ़ाते हैं। भारतीय दर्शन में गुरु के कई रूप माने गए हैं। जीवन के हर पड़ाव पर हमें कोई न कोई ऐसा व्यक्ति मिलता है, जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है, कठिनाइयों से लड़ना सिखाता है और हमारे अंतर्मन को जाग्रत करता है। जो हमें औपचारिक शिक्षा प्रदान करते हैं, जो आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाते हैं, तत्व या कोई ऐसा व्यक्ति जो जीवन की सीख देता है। जो अपने विचारों से हमें प्रभावित करता है। अर्थात्, गुरु वह होता है जो ‘अंधकार’ से ‘प्रकाश’ की ओर ले जाए — ‘गु’ यानी अंधकार, ‘रु’ यानी प्रकाश। जो अज्ञान को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाए, वही सच्चा गुरु है।
गुरु दक्षिणा का और समर्पण
गुरु को दिया गया आदर केवल शब्दों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। भारतीय परंपरा में ‘गुरु दक्षिणा’ का विशेष महत्व है। गुरु दक्षिणा केवल भौतिक वस्तु देना नहीं, बल्कि यह शिष्य का पूर्ण समर्पण होता है।
1. तन का समर्पण:
तन का अर्थ है शारीरिक रूप से गुरु की सेवा में उपस्थित रहना। प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था में शिष्य गुरु के आश्रम की देखभाल, शिक्षा पूर्ण होने पर गुरु के आदेश पर समाज की आवश्यकताओं और समाज कार्यों में जीवन लगा देना।
आज के संदर्भ में भी हम अपने गुरु, समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्वच्छता, सहयोग, अनुशासन और दायित्वपूर्ण व्यवहार से।
2. मन का समर्पण:
गुरु की शिक्षाओं को आत्मसात करने के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक है। यदि मन इधर-उधर भटकता रहे, तो शिक्षा का लाभ नहीं मिल सकता। मन का समर्पण गुरु की बातों को श्रद्धा से सुनने, समझने और अमल में लाने से होता है।
एकाग्र चित्त होकर अध्ययन करना, जीवन में गुरु के सिद्धांतों को अपनाना ही मन की सच्ची दक्षिणा है।
3. धन का समर्पण:
प्राचीन समय में जब शिष्य शिक्षा पूर्ण कर लेते थे, तो वे अपनी सामर्थ्यानुसार गुरु को दक्षिणा देते थे — यह दक्षिणा कोई कीमती वस्तु नहीं, बल्कि श्रद्धा का प्रतीक होती थी। उदाहरण स्वरूप, एकलव्य ने बिना कहे अपना अंगूठा गुरु-दक्षिणा में दे दिया था।
आज के युग में धन के रूप में हम संगठन को सहयोग कर सकते हैं, गुरु की सेवा या उनके कार्यों में सहयोग हैं।
4. समय का समर्पण:
समय सबसे मूल्यवान है। यदि हम अपने गुरु की शिक्षाओं को जीवन में उतारने के लिए समय नहीं देंगे, तो वह ज्ञान व्यर्थ जाएगा। अपने गुरु से मिलने, उन्हें सुनने, उनसे मार्गदर्शन लेने और उनके कार्यों में समय देना एक महत्वपूर्ण दक्षिणा है।
समय देना मतलब अपने जीवन के कुछ क्षण अपने गुरु के कार्यों, सिद्धांतों और शिक्षाओं को समझने, प्रचारित करने या उनके साथ जुड़ने में लगाना।
गुरु-शिष्य परंपरा का ऐतिहासिक महत्व:
भारत की गुरु-शिष्य परंपरा बहुत समृद्ध और प्राचीन है। भगवान राम ने गुरु वशिष्ठ से शिक्षा ली, भगवान कृष्ण ने संदीपनि ऋषि से ज्ञान प्राप्त किया। एकलव्य और द्रोणाचार्य, चाणक्य और चंद्रगुप्त, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद — ये कुछ प्रसिद्ध उदाहरण हैं जिन्होंने गुरु के महत्व को स्थापित किया।
गुरु न केवल शिक्षित करते हैं, बल्कि चरित्र निर्माण करते हैं। वे प्रेरणा का स्रोत हैं, जो शिष्य के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानते हैं और उसे दिशा देते हैं।
आधुनिक समय में गुरु पूर्णिमा का महत्व:
आज के आधुनिक युग में जहाँ तकनीक और सोशल मीडिया के कारण संबंधों में औपचारिकता बढ़ी है, वहाँ गुरु-शिष्य का यह रिश्ता और भी महत्वपूर्ण हो गया है। आज युवा दिशा हीनता, तनाव, भटकाव से जूझ रहे हैं, ऐसे में एक सच्चे गुरु का मार्गदर्शन उन्हें सही राह दिखा सकता है।
गुरु पूर्णिमा के दिन हम अपने सभी गुरुओं को स्मरण कर सकते हैं — स्कूल के शिक्षक, माता-पिता, आध्यात्मिक संत, समाज के प्रेरक व्यक्ति या कोई ऐसा मित्र जिसने कठिन समय में हमें रास्ता दिखाया हो।
गुरु पूर्णिमा केवल एक पर्व नहीं, यह एक भाव है — गुरु के प्रति श्रद्धा, विश्वास और कृतज्ञता का। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हम जहां भी हैं, जो भी हैं, उसमें हमारे गुरु का अमूल्य योगदान है। तन, मन, धन और समय की गुरु-दक्षिणा देकर हम उनके प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकते हैं।
भारतीय संस्कृति में गुरु को ‘साक्षात् परब्रह्म’ माना गया है। ऐसे गुरु को समर्पित यह दिन हमें आत्मा के उत्थान की ओर ले जाता है। आइए, इस गुरु पूर्णिमा पर हम सभी अपने गुरुओं के चरणों में नतमस्तक होकर अपने जीवन को ज्ञान, अनुशासन और सेवा से समर्पित करें।
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय,
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताए।”
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि गुरु वह प्रकाश है जो हमें ईश्वर तक पहुँचाता है। गुरु के बिना जीवन अधूरा है, और गुरु पूर्णिमा के दिन यह उत्सव उसी गुरु के प्रति अर्पित हमारी श्रद्धा और समर्पण का दिवस है।
लेखाराम बिश्नोई
लेखक व विचारक