कश्मीर की अखण्डता के लिये बलिदान हुए डॉ. मुखर्जी

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जन्म दिवस (6 जुलाई) पर विशेष:-
(दिव्यराष्ट्र के लिए डॉ. विजय विप्लवी पूर्व पार्षद, उदयपुर)
संसद् में प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने जनसंघ को कुचलने की चेतावनी दी, तो डॉ. मुखर्जी ने प्रत्युत्तर दिया-’वे इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचलना चाहते है।’
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को विद्वता, संस्कृतिनिष्ठा, निर्भिकता, देशभक्ति एवं प्रशासनदक्षता विरासत में प्राप्त हुई थी। इनके पिता 1904 में कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश व कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए थे। उनका जन्म 6 जुलाई 1901को श्रीमती योगमायादेवी की कोख से हुआ। उन्होेंने अंग्रेजी साहित्य में एम. ए. करने के बाद इंग्लैण्ड से बेरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। मात्र 33 वर्ष की उम्र में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने।
1922 में उनका विवाह श्रीमती सुधा देवी से हुआ। उनके दो पुत्र व दो पुत्रियां थी। उनका दाम्पत्य जीवन अल्पकालिक रहा, 1933 में उनकी धर्मपत्नी का देहान्त हो गया। माताजी के प्रबल आग्रह पर भी उन्होंने पुनर्विवाह नहीें किया और अपना सम्पूर्ण जीवन शिक्षा, संस्कृति एवं राष्ट्र सेवामें अर्पित करने का संकल्प ले लिया। चार वर्ष के कुलपति कार्यकाल में बंगला भाषा को कॉलेज शिक्षा का माध्यम बनाया। बंग शब्द कोष बनवाने के साथ हिन्दी माध्यम की शिक्षा भी प्रारम्भ कराई। इनकी पहल पर विश्वविद्यालय में सैनिक शिक्षा व अध्यापक प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम भी शुरू करवाये। शैक्षिक जगत में उनकी सेवाओं के फलस्वरूप कलकत्ता विश्वविद्यालय व बनारस विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की।
1940 में हिन्दू महासभा के कार्यकारी प्रधान चुने गए। 1941 में वे बंगाल के फजलूलहक मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री बने। हक प्रजा ’कृषक प्रजा पार्टी’ के नेता थे। डॉ. मुखर्जी ने एच. एस. सुहरावर्दी के नेतृत्व वाली ’मुस्लिम लीग’ से हिन्दूओं को होने वाले उत्पीडन के प्रतिकार के लिये ’कृषक प्रजा पार्टी’  से गठजोड स्वीकार किया। 1942 में उन्होंने मिदनापुर में समुद्री तुफान पीडितों की सहायता मं अंग्रेज गर्वनर व फजलूलहक सरकार के रूचि न लेने व कार्य में बाधा डालने के विरोध में वित्त मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
1947 में स्वतंत्रता के बाद पं. नेहरू के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय सरकार में वे उद्योग व रसायन मंत्री बनाये गये, हालांकि सरकार में कांग्रेस का जबरदस्त बहुमत था, मंत्रिमंडल के 14 सदस्यों में 7 गैर कांग्रेसी थे, जिनमें डॉ. मुखर्जी, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, डॉ. जॉन मथाई, बलदेवसिंह, भाभा नियोगी व शनमुगम शामिल थे। उद्योग मंत्री के रूप में डॉ. मुखर्जी ने सिंदरी का रासायनिक खाद कारखाना व चितरंजन रेल इंजिन कारखाना बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1949 में पूर्वी पाकिस्तान में हुए हिन्दू विरोधी दंगों के कारण लाखों शरणार्थी भारत आये। इसके समाधान के लिये भारत-पाक के मध्य नेहरू-लियाकत पैक्ट हुआ। पाकिस्तान ने इसे व्यवहार में लागू नहीं किया और पं. नेहरू ने उसे मनवाने के लिये पाकिस्तान के प्रति कडा कदम उठाने से इंकार कर दिया।
डॉ. मुखर्जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी से मिलकर नये राजनीतिक दल के गठन की मंशा बताते हुए कुछ कार्यकर्ता मांगे। 21 अक्टूबर 1951 को जनसंघ की स्थापना हुई। उनके सहयोग के लिये संघ से दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, नानाजी देशमुख, डॉ. भाई महावीर, अटलबिहारी वाजपेयी, सुंदर सिंह भण्डारी व लालकृष्ण आडवाणी को जनसंघ में भेजा गया। 1952 के पहले आमचुनाव में भारतीय जनसंघ को लोकसभा में तीन सीटें मिली। जिनमें डॉ. मुखर्जी के अलावा बंगाल से एक और सांसद् व चित्तोडगढ (राजस्थान) से बेरिस्टर उमाशंकर त्रिवेदी थे।
संसद् में प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने जनसंघ को कुचलने की चेतावनी दी, तो डॉ. मुखर्जी ने प्रत्युत्तर दिया-’वे इस कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचलना चाहते है।’
1953 में कश्मीर में शेख अब्दुल्ला सरकार हिन्दुओं के प्रति भेदभाव कर रही थी। पं. प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ, तब भारतीय जनसंघ ने इस आंदोलन को समर्थन दिया।
भारतीय जनसंघ ने संविधान में कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत दिये गये विशेष दर्जे का विरोध किया। इसके अंतर्गत  कश्मीर का विधान, प्रधान व निशान अलग अलग थे। भारत के अन्य प्रांतों के नागरिकों वहां जाने के लिये परमिट लेना होता था, वहां उन्हें भूमि क्रय करने का अधिकार नहीं था। इन सभी प्रावधानों के विरोध में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष के के रूप में डॉ. मुखर्जी ने एलान किया – ’एक देश मंे दो विधान, दो प्रधान व दो निशान, नहीं चलेंगे-नहीं चलेंगे।’
डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट सत्याग्रह करके कश्मीर जा़ने का एलान कर दिया। 11 मई 1953 को माधोपुर की चेक पोस्ट उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वैद्य गुरूदत्त व अटलबिहारी वाजपेयी सहयोगी के रूप में डॉ. मुखर्जी के साथ थे। उदयपुर से सुंदरसिंह भंडारी, भानुकुमार शास्त्री व श्यामलाल कुमावत इस यत्याग्रह में सम्मिलित हुए थे। डॉ. मुखर्जी के साथ वैद्य गुरूदत्त गिरफ्तार हुए और डॉ. मुखर्जी ने वाजपेयी से कहा- ’वाजपेयी गो एण्ड टेल द पीपल ऑॅफ इण्डिया, आई एम एण्टर्ड इन कश्मीर दो एज ए प्रिजनर’ (वाजपेयी जाओ और भारतवासियों से कह दो, मैं कश्मीर में प्रविष्ठ हो गया हूं, भले ीि एक कैदी के रूप में’। कारावास 23 जून 1953 को संदेहास्पद परिस्थितियों में उनकी मृत्यु की घोषणा कर दी गई।
हिरासत में उनकी अस्वस्थता का कोई समाचार नहीं दिया गया। उनकी माताजी योगमाया देवी ने पं. नेहरू को पत्र लिखकर न्यायिक जांच की मांग की थी, लेकिन सरकार ने नहीे सुनी। इससे शक व संदेह और गहरा गया। उनके बलिदान से देश आंदोलित हो गया। जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे, केन्द्र सरकार पर दबाव बढने लगा । तब पं. नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद से हटाया और कश्मीर में परमिट से प्रवेश की व्यवस्था समाप्त की। उस समय अनुच्छेद 370 जस का तस रह गया। उसके पश्चात जनसंघ व भाजपा हमेशा इस अनुच्छेद को समाप्त करने के लिये आवाज उठाती रही।
अंततः 5 अगस्त 2019 को केन्द्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अनुच्छेद 370 को विलोपित करने का निर्णय लिया। मोदी सरकार ने मानों डॉ. मुखर्जी का स्वप्न साकार कर उन्हें सच्ची श्रृद्धांजलि अर्पित की। डॉ. मुखर्जी ने खण्डित भारत में अखण्डता के लिये अपना बलिदान दिया था। भारतमाता के लाडले सपूत डॉ. मुखर्जी को शत शत नमन….

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