अक्षय तृतीया : सनातन संस्कृति का अक्षुण्ण उत्सव

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(दिव्यराष्ट्र के लिए गोविंद पारीक, पूर्व संयुक निदेशक, डीआईपीआर)

अक्षय तृतीया भारतीय संस्कृति की शुभता, समृद्धि और धर्म की अक्षुण्ण परम्पराओं का प्रतीक है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाने वाला यह पर्व न केवल धार्मिक मान्यताओं से परिपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को भी गहराई से प्रभावित करता है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, अक्षय तृतीया के दिन से ही वेदव्यास और भगवान गणेश ने महाभारत ग्रंथ का लेखन आरम्भ किया था। इस तिथि का संबंध सतयुग और त्रेतायुग के प्रारंभ से भी जोड़ा जाता है। द्वापर युग के समापन का प्रतीक भी यही शुभ तिथि मानी जाती है। इस प्रकार, अक्षय तृतीया न केवल युग परिवर्तन की साक्षी है, बल्कि यह समयचक्र के पवित्र पड़ावों की भी गवाह रही है।

धार्मिक कथाओं में यह भी वर्णित है कि अक्षय तृतीया के दिन भगवान श्रीकृष्ण और सुदामा का मिलन हुआ था। यह कथा मित्रता, प्रेम और निःस्वार्थ भक्ति का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है। इस दिन का महत्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि मानवीय मूल्यों और सामाजिक सद्भाव के स्तर पर भी अतुलनीय है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अक्षय तृतीया के दिन जो भी शुभ कार्य किए जाते हैं, उनका फल अक्षय अर्थात् कभी क्षीण नहीं होता। यही कारण है कि इस दिन विवाह, गृह प्रवेश, भूमि या वाहन खरीदने जैसे मंगल कार्य बिना मुहूर्त देखे किए जा सकते हैं। इसे ‘सर्वसिद्ध मुहूर्त’ कहा जाता है। इस दिन समुद्र या गंगा स्नान का विशेष विधान है। भगवान विष्णु की पूजा कर नैवेद्य में जौ, गेहूं का सत्तू, ककड़ी और चने की दाल अर्पित की जाती है। साथ ही जल से भरे घड़े, सकोरे, पंखे, खड़ाऊँ, छाता, खाद्यान्न आदि का दान पुण्यकारी माना जाता है। लोकमान्यता है कि इस दिन दान की गई वस्तुएँ अक्षय सुख प्रदान करती हैं।

भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि को युगादि तिथि कहा गया है। भगवान विष्णु के नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम रूपों का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। श्री बद्रीनाथ धाम के कपाट भी अक्षय तृतीया के दिन ही श्रद्धालुओं के लिए खोले जाते हैं। वृंदावन के बाँके बिहारी मंदिर में बिहारी जी के चरण-दर्शन की अनूठी परंपरा भी इस दिन ही निभाई जाती है।

जैन धर्म में भी अक्षय तृतीया का विशेष स्थान है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने एक वर्ष की तपस्या के उपरांत इस दिन गन्ने के रस का पारायण किया था। इस कारण जैन समाज इस दिन को ‘इक्षु तृतीया’ के रूप में भी मनाता है और विशेष श्रद्धा के साथ वर्षीतप का पारायण करता है। संयम, तपस्या और आत्मशुद्धि की दिशा में यह पर्व प्रेरणा देता है।

अक्षय तृतीया न केवल धार्मिक महत्व का पर्व है, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन परिणय की परंपराएं प्रारंभ होती हैं। अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे बच्चे भी गुड़िया-गुड़िया का विवाह कर सामाजिक रीति-रिवाजों का अभ्यास करते हैं। कृषक समुदाय में इसे वर्षा की भविष्यवाणी और आगामी कृषि सत्र के शुभारंभ के रूप में भी देखा जाता है।

अक्षय तृतीया के दिन सात प्रकार के अन्नों से पूजा कर वर्षा की कामना की जाती है। मालवा में नए घड़े पर खरबूजा और आम के पल्लव रखकर पूजा होती है। राजपूत समुदाय में वर्ष की सुख-समृद्धि के लिए आखेट की परंपरा भी अक्षय तृतीया से जुड़ी हुई है।

अक्षय तृतीया के अवसर पर हमें न केवल भौतिक समृद्धि की कामना करनी चाहिए, बल्कि आत्मिक उन्नति और सद्गुणों के विकास का भी संकल्प लेना चाहिए। यह पर्व हमें सिखाता है कि शुभ संकल्प और पुण्य कर्मों का फल कभी नष्ट नहीं होता। यह दिन अपने भीतर छिपे हुए आलोक को पहचानने और उसे प्रकट करने का सुनहरा अवसर है।

आज जब भौतिकता और त्वरित सुख-सुविधाओं की अंधी दौड़ में मानवता अपने मूल्यों को भुलाती जा रही है, तब अक्षय तृतीया के संदेश के अनुरूप “सदाचार, सेवा और परोपकार” के मार्ग पर चलकर ही सच्ची समृद्धि प्राप्त की जा सकती है। अक्षय तृतीया पर अपने जीवन को भौतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाने का संकल्प लेकर हम अपने अस्तित्व को अक्षय और चिरंजीवी बना सकते हैं।

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