
बहुत प्राचीन काल की बात है, जब पृथ्वी पर धर्म की ज्योति मंद पड़ने लगी थी। पाप, मोह, और अंधकार ने मनुष्यों के हृदय को ढँक लिया था। वे अपने कर्मों से दूर होकर केवल भोग में लिप्त हो गए थे। यज्ञ-मंडप सूने थे, वेदों की ध्वनि लुप्त थी और नदियाँ भी मानो उदास हो गई थीं। तब देवताओं ने ब्रह्मा के पास जाकर कहा —
“हे पितामह! पृथ्वी पर अंधकार और अधर्म बढ़ता जा रहा है, मानव भटक रहे हैं। उन्हें प्रकाश का मार्ग कौन दिखाएगा?”
ब्रह्मा ने अपनी गहरी दृष्टि से तीनों लोकों को देखा। फिर बोले —
“यह समय ‘कार्तिक मास’ का है। इस मास में जब दीप प्रज्ज्वलित होंगे, तब सत्य और श्रद्धा पुनः पृथ्वी पर लौटेगी। परंतु उसके लिए किसी को उस ज्योति को जगाना होगा, जो स्वयं भगवान विष्णु की नींद को भंग कर सके।”
उस समय भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग पर योगनिद्रा में थे। देवता उनके दर्शन नहीं कर पा रहे थे। लक्ष्मीजी भी मौन साधे पास में बैठी थीं। कार्तिक की शीतल रात्रियाँ थीं — चारों ओर नीरवता और हल्की हवाएँ चल रही थीं।
देवताओं ने सोचा — “यदि विष्णु जागेंगे नहीं, तो अंधकार मिटेगा कैसे?”
उन्होंने शिव से प्रार्थना की। महादेव ने ध्यान में नेत्र बंद किए और बोले —
“प्रकाश वहीं से उठेगा जहाँ भक्ति शुद्ध हो। किसी साधारण मनुष्य की श्रद्धा ही इस बार देवताओं को भी जाग्रत करेगी।”
उसी समय पृथ्वी के एक छोटे से ग्राम में ‘वृन्दा’ नाम की एक कन्या जन्मी। वह अत्यंत सात्विक और सुगंधित हृदय की थी। कहते हैं, वह भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थी। बचपन से ही वह कार्तिक मास आने पर उपवास रखती, दीप जलाती और गंगा जल से तुलसी के पौधों की सेवा करती।
धीरे-धीरे वही वृन्दा, देवी तुलसी के रूप में प्रसिद्ध हुई।एक दिन जब वृन्दा गंगा किनारे दीपदान कर रही थी, आकाश से एक तेज प्रकाश उतरा। उसमें नारद मुनि प्रकट हुए।
“वत्से वृन्दा!” — नारद ने कहा — “तुम्हारी भक्ति से विष्णु प्रसन्न होंगे। इसी कार्तिक मास में तुम्हारे कारण यह जगत जाग्रत होगा।”
वृन्दा ने कहा — “भगवान विष्णु तो योगनिद्रा में हैं, प्रभु। मैं कैसे उन्हें जगा सकती हूँ?”
नारद मुस्कराए — “भक्ति की अग्नि से जो दीप जलते हैं, वही भगवान को जगाते हैं।”
वृन्दा ने निश्चय किया कि वह पूरे कार्तिक मास में हर संध्या दीप जलाएगी। उसने मिट्टी के दीपक बनाए, उनमें घी डाला, और तुलसी के पौधे के पास उन्हें जलाकर प्रणाम किया।
उसकी निष्ठा देखकर गाँव के लोग भी जुड़ गए। हर घर में दीप जलने लगे।
धीरे-धीरे वह प्रकाश इतना फैल गया कि आकाश तक उसकी ज्योति पहुँच गई।
विष्णु की योगनिद्रा के सागर में वह ज्योति प्रतिबिंबित हुई। शेषनाग ने आँखें खोलीं। लक्ष्मी ने कहा — “प्रभु, देखिए, पृथ्वी पर कैसी अनोखी आभा छा गई है!”
विष्णु मुस्कराए — “यह वृन्दा की भक्ति है। अब समय है कि मैं जागूँ और जगत में धर्म की ज्योति पुनः स्थापित करूँ।”
वह उठे, और उसी क्षण कार्तिक पूर्णिमा का दिन हुआ। विष्णु ने देखा — सभी दिशाओं में दीपों का सागर लहरा रहा है। तब उन्होंने आशीर्वाद दिया —
“जो भी इस मास में दीप जलाएगा, तुलसी की पूजा करेगा और दान करेगा, उसके जीवन से अंधकार सदा के लिए दूर हो जाएगा।
विष्णु के जागने के साथ ही देवगंगा भी प्रसन्न हुईं। उन्होंने आकाश से उतरकर घोषणा की —
“जो कार्तिक मास की प्रातः बेला में मेरे जल में स्नान करेगा, उसका मन निर्मल हो जाएगा।”
तब से कार्तिक स्नान का आरंभ हुआ। लोग प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर गंगा, यमुना, सरयू और अन्य पवित्र नदियों में स्नान करने लगे।
कहा जाता है कि उस दिन सूर्य देव स्वयं गंगा के तट पर आए और बोले —
“यह महीना प्रकाश का है। जो दीप जलाएगा, वह मेरे तेज का अंश पाएगा।”
परंतु सभी को यह ज्योति स्वीकार नहीं थी। पाताल लोक में ‘अंधकासुर’ नाम का एक राक्षस था। वह अंधकार का उपासक था। उसे यह दीपोत्सव सहन नहीं हुआ। उसने कहा —
“यदि प्रकाश इतना बढ़ेगा, तो मेरा राज्य समाप्त हो जाएगा।”
वह पृथ्वी पर आया और दीप बुझाने लगा। गाँव-गाँव अंधकार फैलाने लगा।
जब वृन्दा ने यह देखा, तो उसने तुलसी के पास बैठकर प्रार्थना की —
“हे नारायण, यह अंधकासुर मेरे दीपों को नष्ट कर रहा है। मैं आपकी ज्योति को बचा नहीं पा रही।”
विष्णु ने तुरंत सुदर्शन चक्र प्रकट किया और बोले
“भक्त की ज्योति को कोई बुझा नहीं सकता।”
उन्होंने चक्र से अंधकासुर का संहार किया।
जहाँ वह गिरा, वहाँ से एक चमकती हुई ज्योति निकली जो दीपावली की रात्रि में हज़ारों दीपों में रूपांतरित हो गई।
तब विष्णु ने कहा — “यह दीपोत्सव सदा कार्तिक अमावस्या को मनाया जाएगा। यह दिवस होगा जब भक्ति अंधकार पर विजय पाती है।”
इस विजय के बाद स्वर्ग में देवताओं ने महोत्सव मनाया। लक्ष्मीजी ने कहा —
“हे प्रभु, जब आपने जगत को पुनः प्रकाश दिया, तो मुझे भी आनंद हुआ। यह महीना मेरे नाम से भी जाना जाएगा — लक्ष्मी मास।”
ब्रह्मा ने जोड़ा — “और वृन्दा की भक्ति को अमर किया जाएगा। हर घर में तुलसी विवाह होगा, ताकि लोग समझें — भक्ति और सौंदर्य का संगम ही जीवन का आधार है।”
शिव बोले —
“जो दीप जलाएगा, वह मेरे भक्तों में भी प्रकाश फैलाएगा। कार्तिक मास में जो दया, दान और संयम रखेगा, वही सच्चा साधक कहलाएगा।”
देवता प्रसन्न होकर लौटे, और पृथ्वी पर एक नवयुग आरंभ हुआ।
विष्णु ने वृन्दा से कहा —
“वत्से, तुम्हारी भक्ति ने मुझे जाग्रत किया। अब मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूँ।”
वृन्दा बोली —
“प्रभु, मैं चाहती हूँ कि यह मास सदा आपकी स्मृति में समर्पित रहे।”
तब विष्णु ने कहा —
“कार्तिक शुक्ल एकादशी को मैं तुम्हारे साथ विवाह करूंगा, ताकि यह मास प्रेम, भक्ति और समर्पण का प्रतीक बने।”
उस दिन से तुलसी विवाह की परंपरा शुरू हुई। लोग घरों में तुलसी और शालिग्राम का विवाह रचाने लगे। ढोल, मृदंग, मंगल गीतों से पूरा वातावरण गूंजने लगा। यह विवाह केवल एक संस्कार नहीं था — यह आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक बन गया।
दिन बीते। अमावस्या के अंधकार के बाद जब कार्तिक पूर्णिमा आई, तो चारों ओर चाँदनी छा गई। लोग गंगा में दीपदान करने लगे।
विष्णु और लक्ष्मी आकाश से देख रहे थे।
विष्णु बोले —
“देखो देवी, यह वही प्रकाश है जो वृन्दा ने आरंभ किया था। यह दीप केवल मिट्टी का नहीं, यह श्रद्धा का दीप है।”
लक्ष्मी ने कहा —
“और यह चाँदनी उस भक्ति की शीतलता है, जो हर मनुष्य के भीतर जल सकती है।”
तब आकाश से एक दिव्य वाणी आई —
“जो भी कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में दीपदान करेगा, उसके भीतर का अंधकार मिट जाएगा। उसके घर में लक्ष्मी का वास होगा और विष्णु की कृपा सदा बनी रहेगी।”
युग बीतते गए, पर वह कथा अमर रही।
आज भी जब कार्तिक मास आता है, लोग दीप जलाते हैं, गंगा स्नान करते हैं, तुलसी की पूजा करते हैं — उन्हें ज्ञात नहीं कि यह सब वृन्दा की भक्ति की स्मृति है।
हर दीप उस समय की गवाही देता है जब अंधकार ने प्रकाश से युद्ध किया था — और भक्ति ने विजय पाई थी।
कार्तिक मास केवल उत्सव नहीं है, यह मनुष्य के भीतर के अंधकार को पहचानने और उसे ज्योति से भरने का प्रतीक है।
यह सिखाता है कि भक्ति किसी देवता की नींद भी जगा सकती है, यदि वह सच्ची हो।